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रचना प्रसंग


क्या कविता का अनुवाद सम्भव है ?
विजय कुमार


साहित्यिक अनुवादों में कविता के अनुवाद की जितनी चर्चाएँ होती हैं, उतनी अन्य किसी विधा के अनुवाद की नहीं। कविता का अनुवाद लगभग असम्भव कार्य माना जाता है, क्योंकि कविता का अर्थ भाषा में होते हुए भी भाषा के पार जाता है। उसमें सिर्फ शब्द ही नहीं हैं। कविता उन शब्दों के आपसी सम्बन्धों और उन शब्दों के बीच छूटी हुई जगहों में भी बसी होती है। वह शब्दों के पार जाती है। कथन की भंगिमाएँ, संवेदनात्मक ज्ञान, संरचनाओं की तहदारियाँ, नाद सौन्दर्य, भाव सम्पदा, उपमाएँ और उपमान, कल्पना की उड़ान, ध्वनियों के विशिष्ट रूप, लय का आरोह-अवरोह, सामाजिक संस्कारों की अर्थछटाएँ, मुहावरों की स्थानिकता, जातीय स्मृतियाँ, स्वप्न जगत, सामूहिक अवचेतन, परोक्ष और अपरोक्ष के जटिल सम्बन्ध, परम्पराओं से पोषित बोध और मूल्य चेतनाएँ, अनकहे को भाषा के भीतर कथनीय बनाने की युक्तियाँ और इस सबकी अनेक स्तरीयता- क्या इस सबका किसी दूसरी भाषा में अनुवाद सम्भव है ? प्रसिद्ध फ्रेंच कवि पॉल वेलरी का वह बहुउद्धरित कथन याद आ रहा है कि ``गद्य यदि एक स्थान से दूसरे स्थान तक की यात्रा है, तो कविता अपनी जगह पर नृत्य है। गतिमयता, उद्देश्य और यात्रा तो दोनों रूपों में है- पर कितनी अलग। कविता की इस सांकेतिकता को उसका गोपन कक्ष कहा गया है।

हिन्दी के कवि धूमिल के शब्दों में कहें कि-
``कविता माँगती है
एक समूचा आदमी
अपनी खुराक में''
आजकल वैश्विक-संचार, वैश्विक-अर्थ व्यवस्था, वैश्विक-राजनीति, वैश्विक-संस्कृति जैसे पद खूब चलते हैं। क्या हम अनुवाद द्वारा कविता की एक भाषा में रची-बसी मानव मन की किसी जटिल अभिव्यक्ति को दूसरी भाषा में रूपान्तरित करते हुए स्थानिक विशेषताओं, देशज सौन्दर्यबोध को किसी विश्व-भाषा में संक्षिप्त कर देना चाहते हैं ? बहुत से लोग इसलिए कविता के अनुवाद को उचित नहीं मानते। प्रसिद्ध अमरीकी निबन्धकार डब्ल्यू.एस. पियरो बहुत सख़्त शब्दों में कहते हैं कि किसी विश्व-भाषा के आवाहन का विरोध करने के बहुत सारे व्यावहारिक कारण हैं।

हाल की संचार प्रौद्योगिकी ने सूचनाओं और घटनाओं की प्रस्तुति को अधिकाधिक मानक बनाना आरम्भ कर दिया है। वे आगे कहते हैं कि प्रौद्योगिकी आधारित संचार के इस एकीकृत रूप के जिन खतरों की ओर पियरो ध्यान आकर्षित कर रहे हैं, उनके मुकाबले साहित्य और संस्कृतियों के आपसी संवादों ने बिना स्थानिकताओं के लिए खतरा पैदा किये, मूल्यों और संवेदना की एक विश्व संस्कृति को हमेशा से बढ़ावा दिया है। सैंकड़ों वर्षो से एक भाषा और संस्कृति में जन्मी कविता का दूसरी भाषा और संस्कृति में अनुवाद होता रहा है। यह एक आवागमन है। हममें से कितनों ने होर, दांते, वर्जिल, गेटे, जिमनेज़, बोयख्खो, कवाफी, बोरर्वेस, बॉदलेयर, मेलार्मे, उमर खय्याम, हाफिज़, मायकोव्स्की, आख़्मातोवा, नाजिम हिकमत, नेरूदा, रित्सोस रिल्के, लोर्का, होलुब, मोंताले, पेसोआ, अमीखाई या शिम्बोर्स्का की कविताओं को उनकी मूल भाषाओं में पढ़ा है ? ये तमाम असाधारण कवि ग्रीक, लैटिन, इतालवी, पुर्तगाली, स्पेनिश, जर्मन, फ्रेंच, रूसी, पोलिश, तुर्की, फारसी और हिब्रू आदि भाषाओं से अँग्रेज़ी में अनूदित होकर ही तो हम तक पहुँचे हैं।

चाहे जितने भी पहुँचे और जिस रूप में भी पहुँचे। निश्चय ही इन्हें मूल में न पढ़ पाने के कारण हमारे रसास्वादन की अनेक सीमाएँ हैं, लेकिन इसके बावजूद यदि हमने अनुवाद में इन कवियों को न पढ़ा होता तो विश्व-कविता की अलग-अलग नागरिकताओं से क्या हमारा परिचय कभी हो पाता ? क्या हमें उन स्थानिकताओं, देशज प्रभावों और जातीय परम्पराओं का कोई आभास हो पाता, जिसे प्रौद्योगिकीमूलक वैश्विक संचार की आधुनिकता ज्यादा महत्त्व नहीं देती है।

तब हमारे सौन्दर्य-बोध की यह दुनिया कितनी सीमित और एकांगी होती। संचार प्रौद्योगिकी के बुलडोज़र से पैदा हुए आसन्न संकटों की बहस को फिलहाल छोड़ दें और यदि साहित्य की विश्व नागरिकता की ओर लौटें, तो हम पाएँगे कि हमने बिना स्थानिकताओं को खोये एक सार्वदेशिकता को उपलब्ध किया है। कोई भी व्यक्ति संसार के महान कवियों को उनकी मूल भाषाओं में नहीं पढ़ सकता। कम से कम एक मनुष्य जीवन में तो यह सम्भव नहीं है। हमने अनुवादों के जरिये ही सही, कविता की जिस विश्व-नागरिकता को जाना है, उसमें हम रचनाकारों की स्थानिकताओं, उनकी विशिष्ट भंगिमाओं और अलग-अलग काव्य- व्यक्तित्त्वों में फर्क कर सकते हैं। मायकोवस्की, रिल्के और नेरूदा तीन अलग-अलग भाषाओं के ही महान आधुनिक कवि नहीं हैं, वे लगभग एक ही समय में होते हुए भी एक-दूसरे से कतई अलग हैं। अँग्रेजी में आकर भी वे अपनी मूल विशिष्टताओं को खोते नहीं। प्रसिद्ध अमरीकी लेखिका सूसव सोंताग का यह कथन याद आ रहा है कि सूसन सोन्ताग और टेड ह्यूज़ेस जैसे एक ही बात को दो अलग-अलग कोणों से कह रहे हैं। रॉबर्ट फ्रॉस्ट ने जब यह कहा था कि `कविता वह है, जो अनुवाद में खो जाती है, तो उन्हीं के बरक्स रूसी कवि जोसेफ ब्रॉडस्की कहते हैं कि ``कविता वह है जो अनुवाद के बाद भी बची रहती है।'' कितनी दिलचस्प स्थिति है। जो बचा रह गया वह भी क्या कम महत्त्वपूर्ण है। मेक्सिको के कवि ऑक्तोवियो पाज़ इसी में एक नया आयाम जोड़ते हैं कि ``कविता वह है जो रूपान्तरित हो गयी।''

अँग्रेजी के कवि एज़रा पाउण्ड ने अपने चर्चित निबन्ध `हाउ टु रीड ए पोएम' में कविता की भाषा के तीन मुख्य भेद बताये हैं- `मेटापोइया, अर्थात् कविता का वह तत्त्व जो रूपक से सम्बन्धित है। दूसरे, `फोनापोइया- जो उसका ध्वनि तत्त्व है और तीसरा `लोगापोइया'- जो शब्दों के भीतर बुद्धितत्त्व का नृत्य है। एजरा पाउण्ड कहते हैं कि यदि इस अन्तिम तत्त्व को भी हमने दूसरी भाषा में संरक्षित कर लिया, तो भी अनुवाद का प्रयत्न अकारथ नहीं गया। एज़रा पाउण्ड द्वारा किये गये प्राचीन चीनी कविताओं के अनुवाद मूल के प्रति एक अनुवादक की वफादारी और बेवफाई के दिलचस्प उदाहरण हैं। पाउण्ड चीनी भाषा नहीं जानते थे। एक प्राच्य- विद्या-विशेषज्ञ और चीनी भाषा के जानकार अर्नेस्ट फेनोलोसा की मृत्यु के बाद चीनी कविताओं के सम्बन्ध में उनके लिखे हुए नोट्स एज़रा पाउण्ड के हाथ लगे। इन नोट्स के आधार पर पाउण्ड ने ८वीं सदी के चीनी कवि ली पो की कविताओं का १९१३ में अनुवाद किया। आठवीं सदी के प्राचीन कवि की कविताओं का बीसवीं सदी में किया गया यह अनुवाद मूल रचनाओं के कितना निकट था और कितना दूर यह बहस का विषय रहा है, लेकिन यह सच है कि इन अनुवादों में एक प्राचीन कवि का इतिहास के एक दूसरे युग में पुनर्जन्म था। यह अनुवाद इन मूल कविताओं का एक प्रकार से उत्तर-जीवन था। जर्मन विचारक वाल्टर वेंजामिन कहता है कि हर अनुवाद मूल-कृति का उत्तर-जीवन (पोस्ट- लाइफ) है, जो बदलते सन्दर्भो में मूल कृति के सारतत्त्व का विस्तार करता है।

एज़रा पाउण्ड ने भिन्न संस्कृति के एक प्राचीन कवि को जिस तरह से अपनी भाषा में प्रत्यारोपित किया, उसने बीसवीं सदी की समूची आधुनिक अँग्रेजी कविता को गहरे प्रभावित किया। आधुनिक कविता में बिम्बवादी कला आन्दोलन को खड़ा करने में इन प्राचीन चीनी कविताओं से बहुत मदद मिली। १९४० में प्राचीन चीनी कविताओं का यह सौन्दर्य-बोध एज़रा पाउण्ड की आधुनिक रचना `केन्टोस' के सृजन में एक केन्द्रीय भूमिका निभा रहा था। उमर ख़य्याम ११वीं सदी के फारसी के महान कवि, खगोलशास्त्री और गणितज्ञ थे। १९वीं सदी में एडवर्ड फिट्जगेराल्ड की जब इन कविताओं से मुठभेड़ हुई, तो अपने अँग्रेजी अनुवाद में उन्होंने मूल रचना के शिल्प के साथ बहुत अधिक सृजनात्मक छेड़-छाड़ की। इस हद तक कि कहते हैं कि मूल से इन अँग्रेजी अनुवादों को मिलाया भी नहीं जा सकता।

फिट्जगेराल्ड बहुत स्पष्ट थे। अनुवाद करते समय उनका उद्देश्य मूल कृति का अन्धानुकरण करना नहीं, कवि की संवेदना-दृष्टि और भाव-सौन्दर्य से पश्चिम के पाठक को परिचित कराना था। यहाँ अनुवादक एक बिल्कुल भिन्न भाषा के संवेदना-जगत को अपनी भाषा में प्रत्यारोपित कर रहा था। अनुवाद के जरिये यह `ट्नन्सप्लान्टेशन और सेंसिबिलिटी' या संवेदना का प्रत्यारोपण १९वीं सदी की एक बड़ी साहित्यिक घटना थी। कुछ लोग फिट्जगेराल्ड के इन अनुवादों को `फिट्जोर की रुबाइयाँ' भी कहते हैं। हमारे यहाँ उमर खय्याम की रुबाइयों का अनुवाद मैथिलीशरण गुप्त ने भी
किया है और हरिवंश राय बच्चन ने भी। मैथिलीशरण गुप्त से बच्चन के काव्य-संस्कारों के अन्तर को यहाँ देखा जा सकता है। इसी प्रकार `मैकबेथ' का अनुवाद रांगेय राघव ने भी किया है, बच्चन ने भी और रघुवीर सहाय ने भी। रांगेय राघव या बच्चन से रघुवीर सहाय के समय तक आते-आते न सिर्फ भाषा का मिज़ाज बदला है, बल्कि वस्तुओं को देखने के समूचे दृष्टिकोण की एक यात्रा को हम इन अनुवादों में पा सकते हैं।

अनुवाद करते समय मूल के प्रति वफादारी या निष्ठा की बहस इतनी सीधी-सरल नहीं है। कविता जैसी विधा में मूल कृति के प्रति निष्ठावान होने का अर्थ बहुत अलग तरह से कार्य करता है। इतिहास के भिन्न काल- खण्डों से, भिन्न संस्कृतियों से, भिन्न भौगोलिक परिवेशों से कालान्तर में जब कृतियाँ अनुवाद के लिए उठाई गई हैं, तो अक्सर ही वे अनुवादक की मूल पाठ के प्रति अपनी व्याख्या भी बन गई हैं।

जॉन ड्नयडन १७वीं सदी के अँग्रेज कवि, नाटककार, आलोचक और अनुवादक थे। ईसा पूर्व के लैटिन कवि ओविड की रचना `एपिस्टल्स' का अनुवाद करते समय उन्होंने भूमिका में लिखा कि एक परवर्ती कवि पहले के किसी कवि का अनुवाद करते समय तीन तरह के सम्बन्ध बना सकता है। पहला सम्बन्ध `मेटाफ्रेज़' का है जिसमें आप मूल लेखक के दास बन जाते हैं। दूसरा सम्बन्ध शब्द-दर-शब्द अुनवाद या `पैराफ्रेज़' का सम्बन्ध है जिसमें आप अर्थ का फैलाव करने लगते हैं, लेकिन तीसरा सम्बन्ध मूल के अनुकरण का है, जहाँ आप एक सृजनात्मक स्वच्छन्दता लेते हुए एक समानान्तर पाठ तैयार करते हैं। इसमें आप न सिर्फ मूल के शब्दों और अर्थो के साथ खुलेपन से पेश आते हैं बल्कि कई बार तो उन्हें त्याग कर आगे बढ़ते हैं। यह कई बार एक नयी अनुकृति बन जाती है। इस तरह की सृजनात्मक छेड़-छाड़ का कार्य अनेक विश्व-प्रसिद्ध कवियों ने किया है। आधुनिक कवियों ने जब भी पुराने युनानी और लैटिन कवियों को उठाया है, उन्हें अपने भीतर जज़्ब कर एक नया संस्कार दिया है। जिस क्षण एक बड़ी कविता को एक दूसरा बड़ा कवि अपनी भाषा के लिए उठाता है तभी उस मूल सामग्री को लेकर उसका अपना एक बोध बनने लगता है। यह एक प्रकार से दो व्यक्तित्वों के बीच का सृजनात्मक `मिलन' है। अनुवाद की राह कब सृजन की राह में बदल गई, कई बार इसका अनुवादक को भी आभास नहीं हुआ है। अनुवाद में निष्ठा का यह एक बिल्कुल दूसरी तरह का मामला है। शायद ऐसे लोग अपनी सृजनात्मक यात्रा में मूलकृति के प्रति सर्वाधिक निष्ठावान रहे हैं, लेकिन इस निष्ठा का बाह्य-प्रदर्शन करना उन्होंने आवश्यक नहीं माना। शायद इस तरह एक मूलकृति का अनुवाद में पुनर्जन्म उसकी देश, काल और परिस्थिति के अनुसार एक नयी व्याख्या को जन्म देता है। १७वीं सदी के एलेक्जेंडर पोप ने प्राचीन यूनानी कवि होमर के महाकाव्य `इलियड' का जब अनुवाद किया था, तो अँग्रेज आलोचक सैुअल जॉनसन ने इसे मूल कृति की अनुवाद में एक सृजनात्मक व्याख्या कहा था।

हाँ, यह सच है कि कुछ कवि अनुवाद में अपेक्षाकृत आसान लगते हैं, कुछ बेहद कठिन। मुझे रूसी कवयित्री अन्ना आख़्मातोवा या ओसिप मांडेलस्ताम का अनुवाद करना किसी हद तक आसान लगा, लेकिन उन्हीं की समकालीन मरीना त्वेस्तेएवा की तो कविताएँ ही नहीं, उनके गद्य का अनुवाद करना भी बेहद चुनौतीपूर्ण लगा। जो लोग तुर्गनेव और तॉलस्तॉय का गद्य पढ़ते रहे हैं, उन्हें भी मरीना त्वेस्तेएवा का गद्य कठिन लगता है, क्योंकि वह एक कवि का गद्य है। उसमें अर्थ-व्यंजनाएँ, तहदारियाँ और एक आन्तरिक उथल-पुथल है, जो उसे एक संश्लिष्ट और सान्द्र किस्म का गद्य बनाती है। मरीना २० और ३० के दशक के रूस के उथल-पुथल से भरे समय में लिख रही थीं। उनमें चिंता और व्यग्रता है। जोसेफ ब्रॉडस्की ने मरीना त्वेस्तेएवा के गद्य के बारे में सही लिखा है ``यह एक ऐसे रचनाकार की व्यग्रता से उत्पन्न है, जो अतीत में छिपे हुए किसी सारभूत सच को खोजता रहता है- सिर्फ और सिर्फ सारभूत सत्यों को। शेष सारे सच उसका साथ छोड़ देते हैं।'' कहना न होगा कि इस गद्य में मूलभूत घबराहट, उद्वेग, हर्ष, विस्मय, तनाव, आकस्मिकताएँ, विरोधाभास, विडम्बनाएँ और मानसिक अस्थिरताएँ एक-दूसरे में घुली-मिली हैं। ऐसा लगता है कि जैसे वे लिखते हुए अपना गद्य जोर-जोर से पढ़ती रही हों। वे वाक्यों को अचानक तोड़-फोड़ देती हैं। रुकती हैं, जैसे साँस ले रही हों। संगीत जैसे अचानक सम पर आ गया हो। फिर वे दोबारा शुरू होती हैं और भाषा को खींच कर दोबारा दूर-दूर तक फैला देना चाहती हैं। शब्दों को इतनी तीव्र गति देना जैसे वे एक मौन में पर्यवसित हो जाएँ। खामोशी इस बात का भी परिचायक है, जैसे कोई बात जिसे दूसरे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। पंक्तियों के बीच छूटे हुए अन्तराल और मौन। जैसे कि भागती हुई भाषा का गियर जल्दी-जल्दी बदला जा रहा हो। कविता की तरह के इस सघन और संगीतमय गद्य का क्या कभी भी पूरी तरह अनुवाद किया जा सकता है ?

किसी भी व्यक्ति का दो भाषाओं में समान अधिकार नहीं होता। अनुवादक मूल कवि की भाषा और उसकी अभिव्यक्ति को इस हद तक समझना चाहता है, जहाँ इस रचनाकार की अभिव्यक्ति उसे बाकी सारे रचनाकारों की अभिव्यक्ति से अलग करती हो। जब भाषा के भीतर छिपे हुए आशयों को अनुवादक यहाँ तक पकड़ लेता है, तो फिर उसके बाद उसकी एक दूसरी बड़ी चुनौती शुरू होती है कि वह इस अभिव्यक्ति को उतनी ही अद्वितीयता के साथ अपनी भाषा में कैसे निभाये ? हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है। जरूरी नहीं कि जो अभिव्यक्ति एक भाषा में, उसकी स्थानिकता में, उसके विशिष्ट काल-खण्ड में सुन्दर लग रही हो, वह दूसरी भाषा में, दूसरी स्थानिकता में, दूसरे काल-खण्ड में भी उतनी ही आकर्षक लगे। कविता के अनुवाद में शाब्दिक अनुकरण और पुनराविष्कार दो अतिवादी छोर हैं।

अँग्रेज कवि, आलोचक और अनुवादक मैथ्यु आर्नाल्ड ने कविता के अनुवाद पर तीन बड़े महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिए थे, जो उनकी पुस्तक `ऑन ट्नन्सलेटिंग होर' में संकलित हैं। अर्नाल्ड कहते हैं कि यह एक विवाद का विषय है कि अनुवाद करते समय अनुवादक किस उद्देश्य को अपने सामने रखे। एक पक्ष कहता है कि सबसे सुन्दर अनुवाद तो वही है जिसे पढ़ते हुए पाठक को यह लगे ही नहीं कि वह अनुवाद पढ़ रहा है। उसे लगे कि वह मूल रचना पढ़ रहा है। दूसरा पक्ष कहता है कि अच्छा अनुवाद वही है जो, मूल कृति के तमाम गुणों के प्रति निष्ठावान रहे। अनुवादक को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह केवल मूल कृति का अनुकरण कर रहा है। इस दूसरे पक्ष के अनुसार अनुवाद का सबसे बड़ा कर्त्तव्य यही है कि वह मूल कृति की ऐतिहासिकता का निर्वाह करे। मैथ्यु अर्नाल्ड यहाँ यह दिलचस्प बात कहते हैं कि होमर के महाकाव्य `इलियड' का प्राचीन यूनानवासियों पर क्या प्रभाव पड़ा था यह हम कभी नहीं जान पाएँगे। प्राचीन यूनानवासी मर-खप चुके हैं। हम सिर्फ उसकी एक कल्पना कर सकते हैं। हाँ, इस बात को कहने वाले अनेक लोग मिल जाएँगे कि आज भी जब वे `इलियड' पढ़ते हैं, तो वह उन्हें किस कदर प्रभावित करता है। अर्नाल्ड कहते हैं कि प्राचीन ग्रन्थ `इलियड' के अँग्रेजी अनुवाद की प्रभावोत्पादकता तो इसमें होगी कि हम अँग्रेजी के पाठक को उसी तरह प्रभावित कर सकें, जैसे कि होर ने यूनानवासियों को किया था, लेकिन अन्तिम रूप से इस बारे में फैसला देना सम्भव नहीं है, क्योंकि इसे जानने का हमारे पास कोई आधार नहीं है।'' इस तरह अनुवादक द्वारा मूल कविता को अनूदित करने की हर राह आंशिक है। सारे साहित्यिक फैसलों में किसी अनुवाद की गुणवत्ता के बारे में किया गया फैसला शायद सबसे जटिल होता है, क्योंकि कोई भी अनुवाद अन्तिम अनुवाद नहीं है।

पाब्लो नेरूदा, अन्ना आख़्मातोवा, रिल्के, मायकोवस्की, मोन्ताले, लोर्का, शिम्बोर्स्का और रुज़ेविच जैसे २०वीं सदी के सबसे बड़े कवियों के कई-कई अनुवाद हुए हैं। कई बार तो एक-एक कविता के दर्जनों अनुवाद हुए हैं। अन्ना आख़्मातोवा की प्रसिद्ध कविता `रिपीम' के कम से कम एक दर्जन अलग-अलग अँग्रेजी अनुवाद मेरे पास हैं। आप किसी अनुवाद को श्रेष्ठ मानेंगे ? यह शायद इस बात पर निर्भर करेगा कि आप कवि की व्याख्या किस प्रकार से कर रहे हैं, लेकिन फिर भी किसी अनूदित कविता के बारे में अन्तिम फैसला तो शायद यही होता है कि क्या वह कुछ बोल पा रही है, क्या उसमें प्राणवत्ता है, क्या वह गा पा रही है। अनुवादक ने जिस कविता का अनुवाद किया है, रूपान्तरण में वह अब उसकी अपनी कविता है। उसके अपने औज़ार, अपनी शैली और अपना शब्द-चयन, अपने पद-विन्यास। इसी आधार पर वह स्वयं को एक हद तक मुक्त भी अनुभव करता है।

अन्त में कविता के अनुवाद को लेकर जैक्सन मैथ्यूस का यह कथन उद्धृत करना मुझे बहुत जरूरी लग रहा है ``यदि अनुवादक ने मूल पाठ को अपने भीतर आत्मसात् कर लिया है, तो मूल पाठ एक लसदार चिपचिपे पदार्थ की तरह उसके दिमाग में एक तरल अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। ऐसा तरल पदार्थ जिसमें मूल के सारे पद-विन्यास और संरचनाएँ विलयित हो गई हैं, बस उसकी गतिशीलता और उसकी आन्तरिक अनुगूँजें बची रह गई हैं। और सिर्फ इनका सहारा लेकर अनुवादक एक नई कविता को जन्म देता है। वह अनूदित कविता जिसका अपना स्वर है, अपना गायन, पर फिर भी वह कहीं न कहीं मूल के प्रति कृतज्ञ है।''

 

१६ अप्रैल २०१२

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