समकालीन हिंदी नवगीत
-कुमार
रवीन्द्र
समकालीन हिंदी कविता एक भ्रम , एक द्विधा से ग्रस्त
है। वह भ्रम है गीत को कविता से इतर मानने की
प्रवृत्ति। गीत का कविता से यह बिलगाव आधुनिक हिंदी
काव्य की ही समस्या है। पूर्व-अज्ञेय युग में कविता का
व्यक्तित्व इस प्रकार खंडित नहीं था। अज्ञेय ने ही
सबसे पहले कविता से गीत के इस अलगाव को अपने सप्तकों
की भूमिकाओं के माध्यम से एक काव्य-शास्त्रीय आधार
दिया, हालाँकि उन्होंने कभी भी, कहीं भी खुले तौर पर
गीत को कविता मानने से इंकार भी नहीं किया। उनके
प्रभाव के तहत ही यह अलगाव पनपा और एक स्थिति वह आ गई
कि तथाकथित प्रयोगवादी या नई कविता के खेमे के लोग गीत
लिखने-पढने-समझने तक से परहेज़ करने लगे।
'अर्थ की लय' के नाम पर उन्होंने एक कृत्रिम मन्त्र
रचा, जिसके तहत कविता होने की एकमात्र शर्त उसका
लय-छंदहीन होना ही हो गई। उत्तर-अज्ञेय काल में यह
पूर्वाग्रह दुराग्रह बन गया। लय-छंद को नकार कर कवि
बनना आसान हो गया और पूरे हिंदी प्रदेश की हर गाँव-गली
में तथाकथित कवियों की ऐसी बाढ़ आई कि कविता को
परिभाषित करना ही कठिन हो गया। केवल आधुनिक भावबोध के
नाम पर गीत को कविता से ख़ारिज़ करने का यह व्यापार
कुछ समय तक नई कविता की हठधर्मी के रहते खूब चला।
सत्ता-प्रतिष्ठानों को कब्ज़ा लेने के बाद ज़बरदस्ती
गीत को हाशिये पर रखने की साज़िश कामयाब भी रही कुछ हद
तक। एक हल्ले के तहत गीत को कविता की एक
समाप्तप्राय:विधा घोषित कर दिया गया और आधुनिक जटिल
जीवन-प्रसंगों का हवाला देकर गीत को नकारा एवं
अप्रासंगिक सिद्ध करने की भरपूर कोशिश की गई।
यह सही है कि बदलते रागात्मक संबंधों के बरअक्स कविता
का संस्कार बदल रहा था, पर इसके लिए गीत या छांदिक
किसी भी कविता-विधा को कविता से निष्कासित करना एकदम
अनर्गल था। उसी कालखंड में 'नई कविता' के समानांतर ही
गीत भी अपने स्वरूप को बदल रहा था, इस बात को नकारना
किसी भी समझदार कविता के अध्येता के लिए नामुमकिन है।
यह सही है कि छायावाद के तुरंत बाद का गीत कुछ अपवादों
को छोड़कर मंच के अतिरिक्त मोह के कारण अपने प्रभावी
स्वरूप को खोने लगा था, किन्तु मंच से अतिरिक्त भी गीत
की उपस्थिति थी, जो प्रारंभ में प्रयोगधर्मी 'नई
कविता' का अभिन्न अंग रही। गीत की भी आधुनिक भाव-बोध
से संपृक्ति हो रही थी और उसका भी स्वरूप बदल रहा था।
किन्तु एक ज़ेहाद के तहत उसे कविता की मुख्य धारा से
बाहर कर दिया गया। हिदी कविता का यह गीत-विरोधी स्वर
पिछली सदी के छठे से आठवें दशक तक अपने चरमोत्कर्ष पर
था। कई श्रेष्ठ गीतकारों को भी इस विरोध ने विचलित
किया और वे भी गीत-विरोधी स्वर अपनाने से नहीं बच पाए।
हिंदी कविता की यह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण परिणति
थी। हिंदी कविता का संपूर्ण स्वरूप ही इससे खंडित और
आहत हुआ, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसने दोनों ओर
ग्रन्थियों को जन्म दिया और गीत-विरोधी एवं गीत-समर्थक
खेमेबाजी को प्रश्रय दिया।
पिछली सदी के अंतिम दशक में स्थितियों में बदलाव आया
है। नवें दशक के प्रारंभ से ही गीत ने अपनी साहित्यिक
अस्मिता को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है।
अपनी अलग पहचान बड़े सशक्त रूप से प्रस्तुत कर इस छद्म
का पर्दाफाश भी किया है कि गीत के माध्यम से आधुनिक
भावबोध की प्रस्तुति संभव ही नहीं है। इस समय नवगीत
अपने अधुनातन स्वरूप में कविता की मुख्य धारा के रूप
में स्थापित हो चुका है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि कुछ अर्थों में छंदानुशासन के
कारण नवगीत कविता के रूप में अधिक सक्षम सिद्ध हुआ है।
वैचारिकता और भावात्मकता का जैसा संयुत रूप आज के
नवगीत में प्रस्तुत हुआ है, वैसा छंदहीन कविता में
अधिकांशतः नहीं दीखता। मेरी राय में, आज की कविता के
दो रूप माने जा सकते हैं - छान्दसिक कविता और छ्न्देतर
कविता। दोनों ही रूप अपनी-अपनी अस्मिता में
महत्त्वपूर्ण हैं एवं एक-दुसरे के समानांतर हैं न कि
एक-दूसरे के विरोधी, क्योंकि कविता होना दोनों का ही
समान धर्म, लक्षण एवं गुण है।
'तार सप्तक' के दुसरे संस्करण की भूमिका में अज्ञेय ने
ऐलान किया था कि 'कवि का युग-संबंध सदा के लिए बदल गया
था ' जिसके कारण मनुष्य के मूल राग-विरागों के वैसे ही
रहने पर भी,जैसा कि उन्होंने 'दूसरा सप्तक' की भूमिका
में कहा, रागात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदल गई हैं'।
यहीं पर अज्ञेय ने यह भी स्वीकार किया है कि 'कवि का
क्षेत्र रागात्मक संबंधों का क्षेत्र होता है' और यह
भी कि 'सत्य' वह 'तथ्य' है, जिसके साथ हमारा रागात्मक
संबंध है'। जीवन के साथ रागात्मक संबंधों की स्थापना
को यदि कविता का मुख्य सरोकार मान लिया जाये, तो गीत
की छंद-अनिवार्यता, उसकी रागात्मक अर्थवत्ता को
काव्येतर मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। 'रागात्मक
संबंधों' की बदली प्रणालियों के बरअक्स भी छंदानुशासन
की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। शब्दों के चमत्कारिक
व्यंजनात्मक अर्थों के माध्यम से 'युग-संबंध' के बदले
स्वरूप की व्याख्या करने की प्रक्रिया में स्वर-लय-छंद
का महती योगदान हो सकता है। ऐसा हुआ भी है। पारिभाषिक
अर्थों से अलग शब्दों के पारस्परिक स्वर-संघात में और
उच्चारण-ध्वनियों के बीच में स्थित गूँज में जो अर्थ
कई बार निहित होता है, उसका निर्वाह छान्दसिक कविता
में जितने सशक्त रूप में हो पाता है, उतना छंदहीन
कविता में नहीं। ध्वनियों की संगति का भी अपना एक अर्थ
होता है। ध्वनियों की आपसी टकराहट से भी अर्थ-उद्रेक
होता है, इसका अनुभव हम सभी को है। तीसरे सप्तक तक
पहुँचते-पहुँचते अज्ञेय को भी इस बात की पहचान हो गयी
थी कि 'शिल्प इतना नगण्य नहीं है' और 'वस्तु से
रूपाकार को बिल्कुल अलग किया ही नहीं जा सकता '।
वस्तुतः कविता का शिल्प उसके अपने गहरे अर्थ से
स्वाभाविक रूप से और स्वयमेव उपजता है ; इसलिए वह उससे
अभिन्न होता है। छंदाग्रही कविता इसी गिरा-अर्थ के
अन्योन्याश्रित गहरे संबंध को दर्शाती है। इस नाते छंद
को विशेष काव्य-तत्त्व और कविता का एक विशिष्ट गुण
माना जाना चाहिए, न कि उसकी कमी अथवा दोष।
लय मनुष्य की सारी जैविक - दैहिक-मानसिक दोनों ही -
क्रियाओं-प्रक्रियाओं का एक स्वाभाविक लक्षण
है। एक अबूझी लय से हमारी सारी चेष्टाएँ बँधी हुई हैं।
यह लय लगातार एक छांदिक गति से हमारे हर क्रिया-कलाप
में चलती रहती है। अलग-अलग भाव-स्थितियों में इस लय की
अलग-अलग संगतियाँ हो जाती हैं। ये संगतियाँ पद्य के
ज्यादा निकट पड़ती हैं। इसीलिए पद्य भाव-संवेग को
समुचित रूप में साधकर उसे व्यक्त करने का सबसे सहज और
स्वाभाविक साधन रहा है, आज भी है। कविता में सोच या
विचार की अभिव्यक्ति भाव-बिम्बों में ही हो पाती है,
यह भी सच है। भाव-बिम्ब वे संक्षिप्त प्रतीक-चिह्न
हैं, जिनके माध्यम से सोच की लंबी जटिल प्रक्रिया को
अकस्मात अनुभूतिपरक आकार मिल जाता है। इसी से इनमें
विचार का स्वरूप, उसकी तर्क-आधारित आकृति बदल जाती है।
विचारों के इंगित भर बने रह जाते हैं; उनका सतही
संज्ञान विलुप्त हो जाता है। कविता में 'अचरज' एक भाव
भी है और एक दृष्टि भी। इस 'अचरज' भाव-दृष्टि से ही
कविता एक नाटकीय भावानुभूति बनकर उपस्थित होती है और
इस अचरज भाव-दृष्टि की संरचना अधिक सहज रूप में पद्य
में हो पाती है।
गीत, मेरी राय में, कविता होने की सहज सायास प्रक्रिया
है। सायासता मनुष्य होने की एक विशिष्ट पहचान है।
भावाभिव्यक्ति कविता का प्राण है, किन्तु उसे भी
गिरा-अर्थ के संयोजन की एक अबूझी सायास प्रक्रिया से
गुज़रना पड़ता है। यह सायासता इतनी सहज होती है कि उसे
हम जान नहीं पाते| वस्तुतः कविता का तात्पर्य मनुष्य
के अंदर छिपे अर्थों की खोज करना है, उन्हें उजागर
करना भी है। वे अर्थ केवल मात्र तात्कालिक
भाव-संज्ञानों से नहीं उपजते। उन्हें समझने में,बनाने
में मनुष्य की तमाम चेष्टाएँ. जिनमें उसकी बौद्धिक
चेष्टाएँ भी शामिल हैं, सक्रिय होती हैं। नवगीत इन्हीं
समूची मानुषी चेष्टाओं, उनके अर्थों को उनकी समग्र
गूँजों-अनुगूँजों के साथ व्यक्त करने का काव्य है।
समकालीन कविता के परिदृश्य में नवगीत का अत्यंत
महत्त्वपूर्ण स्थान है। समकालीन कविता - चाहे वह
छान्दसिक हो या छ्न्देतर - एक ही मनोभूमि से उपजी हैं
और वह मनोभूमि है पदार्थ जगत की मानवेतर उपलब्धियों के
दबाव, राजनैतिक-आर्थिक सत्ता के अमानवीयकरण से आहत
व्यक्ति-मनुष्य की इयत्ता, उसकी रागात्मक संचेतना ;
पूँजी-केन्द्रित औद्योगीकरण के तन्त्र के तहत मानवीय
मूल्यों के क्षरण से आपाधापीभरी जो अपसंस्कृति उपजी
है, उसके विरुद्ध आज की कविता, विशेष रूप से गीतिकविता
खड़ी है। नग्न पूंजीवादी आसुरी संपदा के बरअक्स एक
मानवतावादी मूल्य-दृष्टि का विकास न हो पाने से जो
सामजिक बिखराव आया, उसकी चेतना भी समकालीन कविता में
शिद्दत से उभरी है। आज के अति-विकसित संचार- तंत्र के
माध्यम से जिस पॉप संस्कृति और भ्रष्ट एवं ह्रासोन्मुख
सामजिक परिवेश की संरचना की गई है, उसके तहत व्यक्ति
और उसकी इयत्ता में स्वाभाविक रूप से निहित दैवी संपदा
- दोनों का हनन हुआ है।
व्यक्तिगत अस्मिता और सामाजिक अस्मिता में कोई
अन्तर्विरोध नहीं है, किन्तु बहुमत की राजनीति के खेल
में जिस भीड़-तंत्र का विकास हुआ है, उसमें ये दोनों
विरोधी होकर उपस्थित हुए लगते हैं। इस षड्यंत्र के
विरुद्ध भी आज की कविता का संघर्ष है। वस्तुतः समकालीन
छ्न्दाश्रयी कविता में आज के इन सरोकारों को जिस
प्रखरता से प्रस्तुति मिली है, उतनी छ्न्देतर कविता के
माध्यम से नहीं। गीत और गीतेतर अन्य छंद-विधाएँ इस
दृष्टि से आज की प्रमुख काव्य-धाराएँ बन गयी हैं।
प्रगतिकामी चेतना का जितना सहज प्रवाह नये गीत के
माध्यम से हुआ है, उतना तथाकथित नई कविता के माध्यम से
नहीं। वास्तव में पिछली चौथाई सदी में गीत नवगीत के
रूप में अधिक वस्तु-निष्ठ और बहिर्मुखी एवं समाजपरक
हुआ है, जबकि छ्न्देतर कविता अधिकांशतः अन्तर्मुखी और
मनोविश्लेषणात्मक होती गई है। नवगीत का स्वर आज की
व्यवस्था के विरुद्ध खुले रूप से जुझारू रहा है, जबकि
छ्न्देतर कविता अपने ही द्वारा रची कुहेलिकाओं में
उलझकर रह गई है। नई कविता का यह नव-रहस्यवाद कुछ हद तक
छायावादी रहस्यानुभूति का ही विस्तार है; उसी
वस्तुस्थिति से पलायन से उपजा है। दूसरी ओर गीतिकविता
के प्रयोजन निरंतर विकासमान रहे हैं।
समकालीन गीतिकविता जीवन के लगभग सभी सरोकारों, सोचों
से गहराई से जुड़ी है। अनुभूति के धरातल पर वह सभी
अमानवीय प्रसंगों से जूझी है ; उन्हें उसने बेनक़ाब
किया है। नये समय-सन्दर्भ में उसने नये रागात्मक
संबंधों की खोज की है; अछूते शिल्पगत प्रयोगों, अनूठी
बिम्ब-संयोजनाओं से उसने भाषा और कहन को अनंत विस्तार
दिया है। आज का नया गीत यानी ' नवगीत ' पूरी सक्षमता
से मनुष्यता के अधुनातन प्रश्नों से रू-ब-रू है। असहज
होते अर्थों को भी उसने अर्थ-विभ्रम से बचाते हुए
उन्हें सहज भाव-बिम्बों में व्यक्त करने की कला विकसित
की है। प्रतीक और बिम्बों की जटिलता से वह मुक्त होकर
अधिक आमफहम कहन की ओर उन्मुख हुआ है। आज का नवगीत
रोजमर्रा की बातचीत का गीत है। अस्तु उसमें वार्तालाप
और संवाद का स्वर स्वतः ही मुखर हुआ है।
आज से लगभग ढाई दशक पूर्व वाराणसी में आयोजित 'नवगीत
अर्द्धशती ' समारोह में इन पंक्तियों के लेखक की
उपस्थिति में जिन लक्षणों तथा आयामों को खोजा गया था,
वे सभी समकालीन नवगीत में पूरी तरह विद्यमान हैं। वे
लक्षण तथा आयाम हैं -
(१) छांदसिकता और लयात्मकता
(२) संवेदनधर्मिता
(३) सम्प्रेषणीयता तथा ऋजुता
(४) बिम्बधर्मिता
(५) अनलंकृति अथवा सादगी
(६) लोकसंपृक्ति
( ७) भारतीय सांस्कृतिक चेतना और जातीय बोध
( ८) यथार्थ प्रसंगों की अभिव्यक्ति और आम आदमी के
सरोकारों से जुड़ाव
(९) जीवन के केंद्र में मानव की प्रतिष्ठा और मानवीय
भाव-स्थितियों की जीवनी-शक्ति के रूप में स्वीकृति
(१०) भारतीय रंग का आधुनिकता बोध और परंपरा से जुड़ी
नवता।
ध्यान देने की बात है कि ये सभी विशिष्टताएँ ऐसी हैं,
जिनके माध्यम से ही हम भारतीय अस्मिता को क़ायम रख सकते
हैं। नये गीत में इनकी स्थापना से यह स्पष्ट है कि वही
अधुनातन भारतीय अस्मिता का संवाहक काव्य है। आज के
वैश्वीकरण के हल्ले के बीच नये गीत की प्रयोजनीयता इस
दृष्टि से स्वयंसिद्ध है।
हिंदी गीत के वर्तमान संस्करण यानी नवगीत के उद्भव को
अर्द्धशती से ऊपर हो चुके हैं। उसकी तीन पीढ़ियों की
इस महायात्रा में जिन गीतकवियों ने अपने प्रदेय से
कविता के इस छान्दसिक स्वरूप को बदलते 'युग संबंध' के
तहत नई गीत-प्रणालियों से समृद्ध किया है और उसे
समकालीन कविता की मुख्य विधा के रूप में स्थापित करने
में महती योगदान दिया है, उनमें प्रमुख हैं - सर्वश्री
शंभुनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय,
रवीन्द्र 'भ्रमर', वीरेन्द्र मिश्र, देवेन्द्र कुमार,
रमेश रंजक, भगवान स्वरूप 'सरस', शिवबहादुर सिंह
भदौरिया, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', श्रीकृष्ण तिवारी,
श्रीकृष्ण शर्मा, नईम, ओम प्रभाकर, रामचन्द्र
चंद्रभूषण, किशोर काबरा, मुकुट सक्सेना, अवधबिहारी
श्रीवास्तव, अमरनाथ श्रीवास्तव, विद्यानंदन राजीव,
सत्यनारायण, नचिकेता, शांति सुमन, उमाशंकर तिवारी,
माहेश्वर तिवारी, गुलाब सिंह, राम सेंगर, कुमार
रवीन्द्र, कुँअर बेचैन, विष्णु विराट, नीलम
श्रीवास्तव, राजेन्द्र गौतम, श्याम निर्मम, बुद्धिनाथ
मिश्र, अश्वघोष, राधेश्याम शुक्ल, महेश अनघ, योगेन्द्र
दत्त शर्मा, विनोद निगम, दिनेश सिंह, इसाक अश्क, विजय
किशोर मानव, उद्भ्रांत, शतदल, ब्रजनाथ श्रीवास्तव,
विनोद श्रीवास्तव, हरीश निगम, ज़हीर कुरेशी, भारतेंदु
मिश्र, धनंजय सिंह, कुमार शिव, श्याम नारायण मिश्र, यश
मालवीय, शीलेन्द्र कुमार सिंह, राधेश्याम बन्धु, मयंक
श्रीवास्तव, वसु मालवीय आदि-आदि।
इनमें से कुछ को छोड़कर, जो या तो काल-कवलित हो गये या
किन्हीं कारणों से कविता की अन्य विधाओं की ओर मुड़
गये, सभी आज भी नवगीत के नये-नये आयामों को खोजने एवं
प्राप्त करने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इनके
अतिरिक्त शताधिक ऐसे गीतकार हैं, जो नवगीत के मुहावरे
से परिचित रहे हैं और कहीं-न-कहीं अपने गीतों में नये
गीत की भंगिमाओं को आंशिक रूप से प्रस्तुत करते रहे
हैं। आज नये गीतकारों की एक पूरी पीढ़ी इन भंगिमाओं को
अपनाकर गीत के क्षितिजों का विस्तार करने को उपस्थित
हैं। अस्तु, हिदी नवगीत आज की ही नहीं, भविष्य की भी
मुख्य काव्यधारा रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।
समग्रतः हिदी नवगीत समकालीन कविता का वह रूप है, जिसने
कबीर और निराला की परंपरा में नये क्षितिज, नये आयाम
जोड़े हैं; उनका निरंतर खोजी भी है। 'शब्द' के
चमत्कारिक 'अर्थ' की उसने पुनर्स्थापना की है और कविता
में 'अचरज' के भाव को पुनः प्राप्त किया है। निश्चित
ही नवगीत ने कविता के रागोत्तेजक स्वरूप को नई
भंगिमाएँ, नई दिशाएँ दी हैं, नये प्रतिमान दिए हैं।
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