नवगीत और जातीय अस्मिता
-डॉ.
राजेन्द्र गौतम
समकालीन
हिंदी आलोचना के संदर्भ में नवगीत और जातीय अस्मिता
जैसे पद काफी असुविधा पैदा करते हैं क्योंकि अब भी
हिन्दी आलोचना और रचना से जुड़ा एक वर्ग इनके प्रति न
तो सहज रूप से ग्रहणशील है और न ही इनकी प्रासंगकिता
के प्रति आश्वस्त है। नवगीत का एक उभार नवें दशक में
'नवगीतदशक` योजना के साथ आया था। इक्कीसवीं सदी का
आरंभ फिर इसके नए उभार के साथ हुआ है। वर्तमान दशक में
कई अच्छे नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं
नवगीत अब लगभग पाँच दशक की यात्रा पूरी कर चुका है। इन
पाँच दशकों में हिन्दी कविता में अनेक प्रवृत्तिगत
परिवर्तन हुए हैं। इसमें संदेह नहीं है कि आम आदनी तो
आज भी समूची छंदमुक्त कविता को 'नयी कविता` के रूप में
ही जानता है, जबकि यह सन् ६२-६३ तक आते-आते ही
मृतप्राय: हो गई थी। मुक्तिबोध् की मृत्यु के साथ ही
महत्त्व प्राप्त करने वाली नवप्रगतिशील कविता, तदनंतर
आपात्काल के आंतक की प्रतिक्रिया में जन्मी कविता और
फिर अस्सी और नब्बे के दौर में आम आदमी और जनवाद की
कविता अंतत: भूमण्डलीकरण और उत्तराधुनिकता के दौर तक
पहुँचती है। इन पाँच दशकों में अपेक्षाकृत विशिष्ट
अभिव्यक्तिगत क्षमता का परिचय देते हुए नवगीत ने भी
हिन्दी कविता में समकक्ष पूरकता की भूमिका का निर्वाह
किया है और यह धरा किसी भी रूप में जड़ीभूत नहीं हुई
है। इसमें समूची हिन्दी कविता के समानांतर निरंतर
प्रवृत्तिगत परिवर्तन हुए हैं परन्तु यह
प्रवृत्तिसाम्य किसी भी रूप में नवगीत के व्यक्तित्व
का विलय नहीं है अपितु युगबोध् के सजग वहन के साथ-साथ
इसकी कुछ व्यावर्तक विशेषताएँ हैं। लयात्मक अभिव्यक्ति
के साथ-साथ जातीय अस्मिता की अभिव्यक्ति गत पाँच दशकों
की हिन्दी कविता में नवगीत की अपनी पहचान रेखांकित करती
हैं।
आरंभ में ही हमने कहा था कि जातीय अभिव्यक्ति को भी आज
के अनेक विमर्श ग्राह्य मूल्य नहीं मानते। जातीयता का
एक अनुवाद 'नेशनलिटी` भी कर लिया जाता है और
'नेशनलिटी` का पुनरनुवाद राष्ट्रीयता है। आज
राष्ट्रवाद को वर्चस्व की संस्कृति का लक्षण बतलाते
हुए एक ओर जहाँ इसे उस संकीर्णतावादी उभार से जोड़ा
जाता है, जिसकी उपस्थिति उन्नीसवी-बीसवीं शती में
आधुनिक काल की प्रथम दो चरणों की कविता में और आलोचना
में दिखलाई जाती है, दूसरी ओर इसे एक भावनात्मक
'रेजिमेंटशन` के रूप में देखा जाता है। हमारा मानना है
कि नवगीत में जातीय अस्मिता की उपस्थिति इन रूपों में
नहीं है। वास्तव में यहाँ जातीय अस्मिता किसी संकीर्ण
राष्ट्रवाद की स्थापना न हो कर 'देश` से जुड़ने की,
उससे परिचय प्राप्त करने और उसे प्रगाढ़ करने की
मन:स्थिति से सम्बद्ध है।
निश्चित रूप से जातीयता का संबंध संस्कृति से है, पर
यह संस्कृति विविधता - की ही द्योतक है। यदि इस
वैविध्य-सम्पन्न जातीयता अथवा सांस्कृतिकता का कोई
प्रतिलोम है तो वह है-- वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण।
विश्वग्राम का नारा लेकर आनेवाले उत्तर आधुनिक संदर्भ
गज़ब की एकरूप संस्कृति रच रहे हैं। ये बोलियों और
लोकभाषाओं को हड़पते हुए आ रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन तमाम
आंचलिक विशेषताओं को निगलता जा रहा है। पेप्सी-कोला की
समरूप समता की आँधी हमारी सांस्कृतिक जड़ों को झकझोर
रही है, आदमी की पहचान वस्तु के रूप में स्थापित हो
रही है और साहित्य और संस्कृति की उत्पाद के रूप में ।
बाज़ारवाद की वर्तमान आँधी में विश्वग्राम के 'हिडन
एजेंडा` के माध्यम से होने वाले आर्थिक शोषण को भी
उसने पहचाना है। गुलाब सिंह, अनूप अशेष और कैलाश गौतम
के गाँव आज शोषण और विकृति से घिर कर कैसे होते जा रहे
हैं, उनकी चिंता के बहुत से पक्ष जातीय अस्मिता से ही
जुड़े हैं। विशेष यह है कि विश्वग्राम के एकरूपता वाले
इस खतरे को हिन्दी साहित्यकारों ने अब आकर पहचाना है
जबकि नवगीत आरंभ से ही इसकी ओर ध्यान दिलाता रहा है।
जातीयता की अभिव्यक्ति की दो दिशाएँ होती हैं --
प्रकृति और संस्कृति। प्रकृति का आगामी विस्तार
लोक-चेतना, आंचलिकता और दृश्यात्मक प्रकृति में होता
है, संस्कृति की व्याप्ति सामाजिक ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में, लोकाचारों में, उत्सवों-पर्वों में
तथा जीवन-मरण के अनेक प्रसंगों में होती है।
सन् `४३ के बाद का 'नयी कविता` का
आंदोलन एक कृत्रिम अंतर्राष्ट्रीयता के दावे के साथ
कविता को परम्परा और संस्कृति से काट देता है और
साहित्य में जातीय अस्मिता लुप्त होती नजर आती है।
इसीलिए डॉ. शंभुनाथ सिंह नवगीत के स्वरूप की व्याख्या
करते हुए सर्वाध्कि बल जातीय अस्मिता पर ही देते हैं।
'नवगीत दशक-दो` की भूमिका में वे लिखते हैं - ''नवगीत
आधुनिकतावादी कविता है, किन्तु वह आधुनिकता को
सार्वभौम और सार्वकालिक नहीं बल्कि देश-काल-सापेक्ष
मानता है। अत: आधुनिकता भारतीय परिप्रेक्ष्य वाली
विशिष्ट आधुनिकता है.... नवगीत भारत की आत्मा को
प्रतिबिम्बित करने वाली कविता है ... यह लोकधर्मी और
लोकाश्रयी कविता है, यह नयी कविता की तरह गिनेचुने
अभिजात जनों एलीट की कविता नहीं है ... नवगीत इस अर्थ
में भी भारतीय कविता है कि वह अपने देश की ज़मीन और
सामान्य जनता से जुड़ा है। उसकी जड़े गहरायी तक भारतीय
जनजीवन में घुसी हैं। वह देश की आँचलिक संस्कृति और
विभिन्न क्षेत्रों की लकधिर्मिता को अपना उपजीव्य बना
कर आदिम बिम्बों की सृष्टि करता है और इस तरह भारतीय
अस्मिता को उजागर करता है। फलत: वह नयी कविता की भाँति
विदेशों से आयातित कविता नहीं बल्कि भारतीय मिट्टी की
बहुविध रसगंध में रची बसी देसी कविता है।``
नयी कविता के बाद धूमिल आदि के माध्यम से हिन्दी कविता
आर्थिक स्तर पर भारतीय संदर्भों की ओर मुड़ती जरूर है
परन्तु क्रमश: अपने वक्तव्य-प्रधन स्वरूप में वह अनुभव
और चेतना के स्तर पर जनजीवन से नहीं जुड़ पाती। बाद
में तो संप्रेषण की विकलांगता ने कविता के अस्तित्व को
ही संकटग्रस्त बना दिया है। समकालीन कविता का बहुलांश
ऐसा है, जिसमें ऋतुएँ गायब हैं, गाँव अनुपस्थित हैं,
प्रकृति का दूर-दूर तक अस्तित्व नहीं, लोक-भाषा की
ऊष्मा नहीं, जिसका उत्सव-धर्मिता से कोई नाता नहीं,
जबकि नवगीत या तो इन स्थितियों के माध्यम से जन के मन
से जुड़ा है अथवा उसने इनकी अनुपस्थिति से उत्पन्न
हुएशून्य को रेखांकित किया है। परन्तु इसका अर्थ यह
नहीं है कि नवगीत बारहमासा या कैलेंडर-गाथा है अथवा
प्रगति-विरोधी है। यह सही है कि इसमें जातीय अस्मिता
के चित्राण के संदर्भ में अकसर अतीत उभरा है, अकसर कवि
नोस्टैल्जिक भी हुए हैं, अकसर इसमें पुरा-बिम्बों का
प्रयोग हुआ है, अकसर भारतीय मिथक वर्तमान के चित्रण के
लिए आए है परन्तु ये स्थितियाँ इसी प्रकार
प्रगति-विरोधी नहीं हैं, जिस प्रकार मिथकों के प्रयोग
से त्रिालोचन जन-कविता के लिए अछूत नहीं हो जाते। जब
नवगीतकार यह कहता है - 'ये शहर होते गाँव पहचाने नहीं
जाते` तो इसका अर्थ यह नहीं है कि नवगीत विकास का
विरोध कर रहा है। यहाँ तो संकेतित विकृतियों का ही,
उल्लेख प्रासंगिक है। गुलाबसिंह गाँव की इस सांस्कृतिक
शाश्वता को यदि यों रेखांकित करते हैं :
जलती यहाँ
वहाँ बुझ जाती/आँच अलावों की
गोरी कभी साँवली दिखती/काया गाँवों की
तो वे उसके अंतहीन शोषण का इतिहास भी तो इस रूप में
लिखते हैं :
शब्दों के हाथी पर/ऊँघता महावत है,
गाँव इधर/लाठी और भैंस की कहावत है
शीत-घाम का वैभव, रातों का अंधकार,
पकते गुड़ की सुंगध/धूल धुएँ का गुबार,
पेट-पीठ के
रिश्ते/ढो रहा यथावत है
यह सही है कि नवगीत में 'पिछले दिन` हैं अर्थात 'छूटे
हुए अतीत की कचोट` कुछ ज्यादा ही है। परन्तु क्या यह
स्मृति-उद्वेग कुछ टूट जाने, कुछ छूट जाने के कारण
नहीं हैं यह टूटना और छूटना क्या मनुष्यता का ही नहीं
है? इसीलिए तो कुमार रवीन्द्र की गुहार लगाते हैं:
भाई, जा रहे हैं आप, हमारे शहर/वहीं रहते दिन पिछले
बूढ़ा बरगद वहाँ मिलेगा/खड़ा ऊँघता गली मोड़ पर
उसे पता है हर मकान का/कौन कहाँ पर किसका है घर
ढलता चाँद उसी के पीछे/सूरज रोज वहीं से निकले
वहीं मिलेगा भाई आपको/सपनों का भी पता ठिकाना
वहीं किनारे धूप मिलेगी/दिन भर बुनती ताना बाना
वहीं आरती की
गूँजे हैं/वहीं घाट पर जल हैं छिछले
बात केवल अतीत की नहीं है। आशंकाएँ भविष्य को लेकर भी
हैं। नवगीत जब जीवन में जातीय अस्मिता को अनुपस्थित
पाता है तो चिंतित होकर सत्यनारायण के शब्दों में कह
उठता है :
एका, आने वाला है कल समय कठिन
खेल खिलौने नहीं रहेंगे/रोबट होगा
जल के प्लावन में डूबा/अक्षय वट होगा
नहीं दिखेंगे कूल किनारे /नहीं पुलिन
दाँत समय के होंगे/ज्यादा ही पैने
बिखरे होंगे तोते मैनों के डैने
नहीं रहेंगे कथा कहानी वाले दिन
किलकारी पर कलरव पर/पहरे होंगे
मृग छोने सहमे ठिठके/ठहरे होंगे,
होंगे नहीं कुलाँचे भरते हुए हिरन
नवगीत को केवल
अतीत-चर्चा मानने वाले 'सुधी जनों` को उस त्रास्दी को
भी समझना होगा, जिसे आज का सामान्य जन झेल रहा है।
उसकी तो यह भी विडम्बना है कि पीछे लौटने का उसके पास
विकल्प ही नहीं रह गया है। योगेंद्रदत्त इस विडम्बना
को यों चित्रिात करते हैं :
अब पीछे लौटना असंभव है/हम ने हर पिछला पुल तोड़ दिया
माना आगे जलता जंगल है/पीपल की भी ठंडी छाँह नहीं
इन सूनी अँधियारी
रातों में/ थामेगा अब कोई बाँह नहीं
नवगीत में जातीय अस्मिता की चर्चा के साथ कुछ खतरे भी
जुड़े हैं। उनके प्रति हमें सावधान रहना होगा।
उत्सवों, पर्वों, पुरा-संदर्भों, इतिहास-प्रकरणों आदि
के उल्लेख के आधार पर इस जातीय अस्मिता को
साम्प्रदायिक संकीर्णता के साथ रखकर देखने की चूक का
अंदेसा बना रहता है। नवगीत न केवल 'सेक्यूलर` काव्य है
अपितु यह हर तरह की साम्प्रदायिकता का विरोधी भी है।
हमनें पहले ही कहा था कि राजभक्ति की पर्याय
राष्ट्रभक्ति नवगीत में नहीं है। है, तो बस देशप्रेम
और यह उसके अनुभव का अंग है, पचास वर्षों की हिन्दी की
छंदमुक्त कविता में अधिकांशत: देश का 'एरियल सर्वे` ही
मिलता है पर नवगीत ने भारत को पैदल चल कर ही
जाना-पहचाना है। वह बाबा आम्टे का आदर्श प्रस्तुत करता
है। नईम का मालवा उनके गीतों में सप्राण रूप में
उपस्थित है। वंशी और मादल में ठाकुर प्रसाद सिंह ने
संथाल परगना को जीवंत कर दिया है। अनूप अशेष और श्याम
सुंदर दुबे ने यदि अपने अंचल के गाँवों के जीवन की एक
तस्वीर प्रस्तुत की है तो गुलाब सिंह के गीत इन कवियों
की फोटोकॉपी नहीं हैं। बल्कि पूर्वाचंल की अलग तस्वीर
उनमें है।
जनपरक गीतों में भी रमेश रंजक, नचिकेता या शांति सुमन
के गीत भी एक दूसरे का दोहराव नहीं हैं। महेश
अनघ का लोक अपनी तरह की मौलिकता लिए है। सत्यनारायण ने
ग्राम-नगर की जिंदगी के समानांतर संदर्भ प्रस्तुत किये
हैं तो माहेश्वर तिवारी ने वर्तमान की जटिलताओं के
समानांतर जातीय अस्मिता को प्रस्तुत किया है। यहाँ तक
कि इनकी अग्रज पीढ़ी के नवगीतकारों में यदि 'पुरवैया
धीर बहो` जैसे गीतों में लोक का एक विशिष्ट रूप
शंभुनाथ सिंह प्रस्तुत करते हैं तो वीरेन्द्र मिश्र
सागर-संस्कृति का एक दूसरा ही लोक प्रस्तुत करते हैं।
देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र` के गीत पुराबिम्बों का
बेजोड़ वैशिष्ट्य लिए हैं, तो शिव बहादुर सिंह भदौरिया
जन-संवेदना को अपनी तरह से साकार करते हैं। कैलाश गौतम
ने अपसंस्कृति के गाँव को प्रस्तुत किया है तो दिनेश
सिंह के रिश्तों की छीजन को व्यक्त करते गीतों की अपनी
दुनिया है।
यश
का छोटी-छोटी घटनाओं वाले दैनिक जीवन से जुड़ा अपना
सांस्कृतिक बोध है और भारतेन्दु वर्तमान को अलग तरह से
जन-साक्षेप बिम्बों में प्रस्तुत करते हैं। समग्रत:
नवगीत संस्कार का काव्य है और इसके लिए वह शर्मिंदा
नहीं है। स्वर्गीय उमाकांत मालवीय ने लिखा था ''अपने
एकांत क्षणों में मैं बहुधा बड़े खेद से अनुभव करता
हूँ कि मेरी पीढ़ी संस्कारों से अपेक्षाकृत बहुत ही
विपन्न है ....`` मालवीय जी की यह खिन्नता तत्कालीन
नयी कविता के संदर्भ में सही है पर उन्होंने जिस
परम्परा से अपने को जोड़ा था उस नवगीत-धरा में
संस्कार-जन्य जातीय अस्मिता के काव्य को ही
प्रमुखता मिली है।
दूसरी भ्रांति इस संदर्भ में यह हो सकती है कि जातीय
अस्मिता का चित्रण करने वाला नवगीत काव्य पलायन का
काव्य है। परम्परा और संस्कारों से जुड़े होने का अर्थ
अतीतजीवी होना नहीं है। गत दो दशकों में राष्ट्र
साम्प्रादायिकता और आतंकवाद के तीखे दंशों को झेलता
रहा है। नवगीत काव्य में इन संदर्भों को जिस शिद्दत के
साथ चित्रित किया है, वह उसकी युगबोध की सजगता का
प्रमाण है। बाजारवाद हो या भूमंडलीकरण, स्त्री-विमर्श
हो या दलित विमर्श, उत्तर उपनिवेशवाद हो या उत्तर
आधुनिकता, नवगीत में न तो खोल में छिपने की स्थिति है,
न दृष्टिभ्रम की। हाँ, क्रांति विरोधियों के षडयंत्र
जब सफल हो जाते हैं तब नवगीतकार आहत तो होता ही है।
उमाकांत मालवीय ने इस विडम्बना को यों रेखांकित किया
था:
कंधें पर सैंकड़ों/सलीब लिये प्रश्न के
सूर्योदय होते हैं/हारे थके
सोख गयी स्वाति मेघ/कुछ कृतघ्न सीपियाँ,
वांझिन हो गई,/किस नियोजन से क्रांतियाँ
कुहरों की शिकने है/मस्तक पर घाम के
उत्तर की तलबगार
द्वार पर दस्तकें
नवगीत की पलायन-विरोधी संघर्षशील प्रवृत्ति के दर्शन
इसकी सहवर्ती धरा जनगीत में होते हैं जो खेल-खलिहान
में किसान के संघर्ष के माध्यम से जातीय अस्थिरता को
चित्रिात करती है। मैं जनगीत को नवगीत के अंतर्गत ही
मानता हूँ।
कविता में जातीय अस्मिता की अभिव्यक्ति को लेकर एक
तीसरा सवाल यह उठाया जा सकता है कि आज के उत्तर आधुनिक
युग में जब 'इतिहास` और 'परम्परा` ही अप्रासंगिक हो गए
यहाँ तक कि विचारधराओं के स्थगन के साथ विचार का भी
अंत हो गया है, तब स्मृति-आश्रित जातीय अस्मिता की
क्या प्रासंगिकता है? एक स्मृतिभ्रष्ट राष्ट्र की
दानवीयता और नृशंसता हम इराकऱ्युद्ध में देख चुके हैं।
जब-जब हम सह अस्तित्व के इतिहास की उपेक्षा करते हैं,
तभी ऐसी
स्थितियाँ पैदा होती हैं, जिसे समय के संदर्भ में
गवाही देते हुए गहरे दु:ख के साथ नईम ने रेखांकित किया
है:
प्यार से मिलते हुए दिन/ईद से उत्सव कभी
आज बल्लम
बर्छियों स/भेंटते मुझको सभी
नवगीत ने अंतराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय संदर्भों में
स्मृतिभ्रष्टता से उत्पन्न ऐसी स्थितियों की ओर यदि
ध्यान आकर्षित किया है तो इसे हिन्दी कविता की उपलिब्ध
ही माना जाना चाहिए। इतिहास और परम्परा की हत्या के
क्रम में हमारी भाषाओं और बोलियों को दफ्रऩ करने का
जो अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र है, नवगीत ने उसका भी
प्रतिरोध किया है। ओसारा, डीह, मसुरी, माँडने कढ़ा,
शिकनी, जोतदार, सूप, निबौरी, उज्जर-वाजर, दिया देवी,
बंसवारी, उजरौटी, पाग, छानी-छप्पर, टेंट, खपरैल,
मड़ैया, टूसे, जोन्हा, पोथी, कजरी, चैता, बिरहा,
क्वार, बासन जैसे हजारों ऐसे शब्द हैं जिनमें लोक की
संवेदनाएँ धड़कती हैं, जिनके मरने से कविता की
जन-संवेदनाओं को व्यक्त करने की शक्ति ही खत्म हो
जाएगी। नवगीत कविता ने ऐसे असंख्य शब्दों को जिंदा रखा
है। इसी प्रकार मिथक कविता को अर्थगत बहुस्तरीयता
प्रदान करते हैं। नवगीत में भाषा के
संदर्भ में मिथकीय
तत्त्वों का प्रयोग जातीय अस्मिता का एक और रूप
प्रस्तुत करता है।
नवगीत की जातीय अस्मिता के संदर्भ में एक उल्लेखनीय
तथ्य यह है कि शायद ही गत पाँच दशकों की हिन्दी कविता
की किसी अन्य काव्य-सरणी में नदी के रूपक का इतना
प्रयेाग हुआ है, जितना नवगीत में। भदौरिया जी चाहते
हैं कि नदी का बहना मुझमें हो, वीरेन्द्र मिश्र सावधन
करते हैं- 'नदी के अंग कटेंगे तो नदी रोएगी।` इन्द्र
जी अनुभव करते हैं- 'नदी की देह में छाले पड़े`,
माहेश्वर तिवारी नदी के अकेलेपन को महसूसते हैं,
योगेन्द्रदत्त शर्मा ने गाया था यमुना को रेत रही घेर
साँवरे, प्रस्तुत लेखक की चिंता है कि कर कत्ल नदी का
ध्येय सरी का फैलना बस रेगिस्तान, यश कहते हैं सब
नदियां अपनी गहराई में रोती हैं, निराला ने कहा था नद
के उद्गार घटे, कैलाश महसूसते हैं ओझल नदी के कूल से
हम छू गए, श्रीकृष्ण को दूध की नदी के जहर होने का
मलाल है, कुँवर बेचैन कुहरे भरी नदी में मां की काया
को देखते हैं, शंभुनाथ जी ने अनुभव किया था जहाँ बह
रहा है नदियों में फौलाद, सत्यनारायण नदी-सा बहता हुआ
दिन तलाश रहे हैं, विद्यानंदन राजीव बहती गर्म नदी की
दहकते सूरज की
बीच की विडम्बना को प्रस्तुत करते हैं। विनोद
श्रीवास्तव कहते हैं-'आज नदी में पाँव डुबोते याद हमें
किरणों की आई। वास्तव में एक शाश्वती परम्परा ही यह
नदी है। जातीय अस्मिता में उसी का अस्तित्व है और
नवगीतकार तमाम सवालों से टकराता हुआ, वर्तमान के सारे
संकटों से भेंटता हुआ, अपने वक्त के रूबरू खड़ा होकर
जो लड़ाई लड़ रहा है, उसमें इस परम्परा की प्रेरद नदी
का होना जरूरी है। कृष्ण बक्षी के शब्दों में कहें:
'गढ़ सके तो गढ़/ बुन सके तो बुन/ एक भाषा है नदी की।`
यों तो समकालीन हिंदी कविता में नवगीत की उपलिब्ध के
अनेक पक्ष हैं, जातीय अस्मिता का प्रभावपूर्ण चित्रण
भी इसकी उपेक्षा को असंभव बनाता है। |