नवगीतकारों ने इस विषय
में कुछ महत्त्वपूर्ण समीक्षाएँ-आलोचनाएँ प्रस्तुत की
है-
इस शती के आरंभ में दो
प्रमुख नवगीतकारों की आलोचना-पुस्तकें हमारे सामने आईं।
एक डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी की कृति 'नवगीत :
स्वरूप-विश्लेषण' है और दूसरी पुस्तक रमेश रंजक द्वारा
रचित 'नए गीत का उद्भव और विकास' है। संयोगात इन दोनों
पुस्तकों में कुछ समानताएँ हैं। दोनों ही नवगीत के
आरंभिक दौर के परीक्षण से जुड़ी हैं और दोनों का
परीक्षण-विश्लेषण आठवें दशक तक आते-आते समाप्त हो जाता
है। स्वभावत: इनमें नवगीत का समग्र मूल्यांकन नहीं हुआ
है पर इनमें नवगीत की क्रमश: विकसित होती व्यावर्तकता का
सूक्ष्म विश्लेषण हुआ अवश्य देखने को मिलता है, विशेषकर
रमेश रंजक का विश्लेषण तार्किक और तीखा है। उन्होंने
नवगीत की संरचना और दृष्टि पर गंभीरता से विचार किया है।
डॉ० रघुवंशी ने पारंपरिक गीत के समानान्तर विकसित होने
वाले नवगीत का तथ्यात्मक निरूपण किया है। वास्तव में डॉ०
रघुवंशी का विश्लेषण एक अध्यापक का विश्लेषण है और रंजक
का एक कवि का। डॉ. रघुवंशी की पुस्तक का तो दूसरा खंड भी
प्रतीक्षित है। आशा है, वह नवगीत की समीक्षा में नया
अध्याय जोड़ सकेगा।
नवगीत पर शोधकार्य तो
कई वर्षों से अनेक विश्वविद्यालयों में हो रहा है पर
लंबे अंतराल के बाद इक्कीसवीं सदी में दिल्ली
विश्वविद्यालय के द्वार नवगीत के लिए खुले हैं और
प्रस्तुत लेखक के निर्देशन में डॉ. अलका शर्मा ने 'नवगीत
में युगबोध के विविध आयाम' शीर्षक से एक समग्रतापरक एवं
महत्वपूर्ण शोधप्रबंध प्रस्तुत कर पी.एच०डी० की उपाधि
प्राप्त की है। दिल्ली विश्वविद्यालय से ही डॉ. राजेश
कुमार ने वीरेंद्र मिश्र पर शोधकार्य किया है और कु.
सरिता शर्मा रमेश रंजक पर कार्य कर रही हैं। गोवा
विश्वविद्यालय से डॉ. हरमिल प्रकाश ने 'नवगीत : परम्परा
और प्रयोग' विषय पर शोधप्रबंध प्रस्तुत कर उपाधि प्राप्त
की है। मेरठ विश्वविद्यालय से यदि देवेंद्र शर्मा इंद्र
पर शोधकार्य किया गया तो बरेली विश्वविद्यालय से
वीरेंद्र मिश्र पर शोधप्रबंध प्रस्तुत किया गया।
नवगीत पर विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग द्वारा प्रायोजित संगोष्टियाँ भी हुईं। ऐसी
ही एक संगोष्ठि की सामग्री का संचयन डॉ. विनयकुमार पाठक
और डॉ. जयश्री शुक्ल द्वारा संपादित 'हिंदी गीतयात्रा और
समकालीन संदर्भ' नामक विशाल ग्रंथ के रूप में सामने आया
है। वह बात दूसरी है कि इस पुस्तक की सारी सामग्री
स्तरीय नहीं बन पाई है।
नवगीत के मूल्यांकन और
प्रस्तुति की प्रक्रिया में इस दशक में दो और
महत्त्वपूर्ण प्रयास कहे जा सकते हैं। राधे याम बंधु ने
'नवगीत और उसका युगबोध' नामक ग्रंथ का संपादन किया है।
इसके पहले खंड में एक ओर नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय
जैसे उन आलोचकों की टिप्पणियाँ संकलित हैं, जो नवगीत के
संबंध में प्राय: मौन रहे हैं, साथ ही कई नवगीतकारों के
वक्तव्य भी इसमें प्रकाशित हुए हैं। दूसरे खंड में
प्रतिनिधि नवगीत प्रकाशित हुए हैं। इस पुस्तक का लक्ष्य
निस्संदेह बड़ा है पर नवगीत की गंभीर समीक्षा की अपेक्षा
को यह उस रूप में पूरा नहीं कर पाती, जिसकी पदचाप बीसवीं
सदी के अंत में दिनेश सिंह की पत्रिका 'नए-पुराने` में
सुनी गई थी। 'नवगीत और उसका युगबोध' की ही तर्ज़ पर
निर्मल शुक्ल ने 'शब्दपदी' नामक ग्रंथ का संपादन किया
है। यह भी एक उल्लेखनीय ग्रंथ है। ऐसे प्रयासों की
निरंतरता नवगीत के मूल्यांकन में महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाएगी, इसमें संदेह नहीं।
नई सदी का आगाज़ कुछ
ऐसे संकलनों से भी हुआ है, जिनमें नवगीत के रचनात्मक
पक्ष को व्यापक प्रतिनिधित्व मिला है। साहित्य अकादमी
द्वारा प्रकाशित एवं कन्हैयालाल नंदन द्वारा संपादित
ग्रंथ 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' इसका उदाहरण है। यद्यपि
यह पूरी बीसवीं सदी के गीतों का संचयन है परंतु इसमें
नवगीत को भी विशेष स्थान मिला है। इसे बहुत सजग संचयन तो
नहीं कहा जा सकता, हाँ गीत के पक्ष में कन्हैयालाल नंदन
ने ग्रंथ की जो भूमिका लिखी है, वह विचारोत्तेजक है। इस
दौरान 'अविरल मंथन' गीत अंक अतिथि सं. डॉ. रामस्वरूप
सिंदूर, बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत सं. मधुकर गौड़द्ध
आकार सं. अशोक बिश्नोई में भी नवगीत-संचय हुआ है तथा
'सार्थक' सं. मधुकर गौड़ ने देवेंद्र शर्मा इंद्र पर और
'अक्षत' सं. श्रीराम परिहारद्ध ने अनूप अशेष पर विशेषांक
प्रकाशित किए है।
यदि नई सदी की हिंदी
कविता के समग्र मूल्यांकन का विवकेसम्मत प्रयास किया
जाएगा तो नवगीत के समृद्ध प्रदेय की उपेक्षा नहीं की जा
सकेगी। पिछले छह-सात वर्षों में दो दर्जन से अधिक
नवगीत-संकलनों का प्रकाशन यही सिद्ध करता है। यहाँ हम
कुछ उल्लेखनीय संकलनों की सूची दे रहे हैं:
घाटी में उतरेगा कौन,
इस शहर में लापता हम, गंधमादन के अहेरी, एक दीपक देहरी
पर (देवेंद्र शर्मा इंद्र), लिख सकूँ तो, पहला दिन मेरे
आषाढ़ का (नईम), सच की कोई शर्त नहीं, नदी का अकेलापन
(माहेश्वर तिवारी), सुनो तथागत, और हमने संधियाँ की
(कुमार रवींद्र), पानी के बीज (मुकुट बिहारी सरोज),
सभासद हँस रहा है (सत्यनारायण), रंग मैले नहीं होंग, कोई
क्षमा नहीं (नचिकेता), नदी का बहना मुझ में हो (शिवकुमार
सिंह भदौरिया), सतपुड़ा के शिखरों से (प्रेम शंकर
रघुवंशी), है बहुत मुमकिन (अमरनाथ श्रीवास्तव),
हरियलपंखी धान (विद्यानंदन राजीव), सिर पर आग (कैलाश
गौतम), समय की ज़रूरत है यह, पुल कभी खाली नहीं मिलते
(सुधांशु उपाध्याय), उड़ान से पहले (यश मालवीय), बाढ़
में डूबी नदी, बिंब उभरते है (उर्मिलेश), अब तक रही
कुँवारी धूप (निर्मल शुक्ल), दीप जलने दो, नदी एक गीत है
(ओमप्रकाश सिंह), दिन हुए धृतराष्ट्र (हरिशंकर सक्सेना),
परछाइयों के पुल (योगेंद्रदत्त शर्मा), संवेदना के मृग
शावक (बाबूराम शुक्ल), डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत पंख-पंख
आसमान (शांति सुमन), बस्ते में भूगोल, मुँडेर पर सूरज
(हृदयेश्वर), शिखर संभावना के (माधव कौशिक), हलफ़नामे
सुबह के (सतीश कौशिक), गीत जिए जाते हैं (अरुणा दुबे),
फैसला दो टूक (गणेश गंभीर), नाव में नदी (ब्रजेश भट्ट),
हिरण सुगंधों के (आचार्य भागवत दुबे), जिरह फिर होगी
(राम सेंगर), फागुन के हस्ताक्षर ( श्रीकृष्ण शर्मा),
दस्तखत पलाश के (बृजनाथ श्रीवास्तव)।
यहाँ यह उल्लेख करना
प्रासंगिक ही है कि नवगीत के उपर्युक्त परिमाणपरक प्रदेय
के साथ-साथ उसका प्रवृत्तिपरक प्रदेय भी रेखांकनीय है।
जब हम समकालीन कविता के संदर्भ में नवगीत के समग्र आकलन
की बात करते हैं तो हमारा मानना यह भी है कि नवगीत
मूल्य-संस्थापक कविता है। वर्तमान पीढ़ी को एक मूल्यमूढ़
समाज मिला है। सत्ता के लिए संघर्षरत सभी राजनैतिक दलों
के सुनिश्चित आदर्श हैं किन्तु सभी दलों का एक
सुनिश्चिचत संयुक्त समझौता भी है। वे इन आदर्शों का,
नैतिकताओं का, मूल्यों के क्रियान्वयन का कार्यक्रम तब
तक स्थगित रखेंगे, जब तक सत्तासीन न हो जाएँ। इसीलिए
मूल्य-संस्थापना किसी भी दल की चिंता नहीं है। इससे बड़ा
संकट इन अलम्बरदारों के लिए यह है कि सत्ता की सुरक्षा
इन मूल्यों के संरक्षण से सम्भव नहीं। इसीलिए सत्ताधारी
वर्ग के लिए ये मूल्य और भी अप्रासंगिक हो जाते हैं।
अपराधियों से साँठ-गाँठ ही जब राजनीति का मूल चरित्र बन
जाए, तब कविता का काम और भी मुश्किल हो जाता है। हमने इस
लेख के आरंभ में कविता की भटकन का भी उल्लेख किया है
किन्तु समकालीन कविता एक बड़ा अंश वह भी जिसमें तमाम
मूल्य-विरोधी अनैतिकताओं को और तमाम विसंगतियों को उभारा
गया है। इसमें संदेह नहीं है कि नवगीत मूल्यहीनता के
विरुध किए जा रहे इस संघर्ष में तो अग्रपंक्ति में खड़ा
हो कर लड़ ही रहा है, उत्तर-आधुनिक संदर्भों में उभरी उस
प्रवृत्ति का भी इसमें विशेष स्थान है, जिसका संबंध
हासिए पर डाल दिए गए वर्गों की अस्मिता की लड़ाई से है।
२७ जुलाई
२००९ |