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रचना प्रसंग

गीत का आधुनिक स्वरूप नवगीत
राधेश्याम बंधु


नवगीत ने गीत को परंपरावादी घिसे-पिटे रूढ़ वातावरण से निकलकर यथार्थ का एक ठोस धरातल प्रदान करके संरक्षण प्रदान किया है। इसीलिए नई कविता को जनता द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाने के कारण नवगीत की ओर अब सबका ध्यान आकृष्ट हो रहा है। नवगीत ने विशेष रूप से आज़ादी के बाद भारतीयों में आई नैराश्य की भावना को अपनी अंतर्वस्तु के रूप में आत्मसात करने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए मध्यवर्गीय पारिवारिक बिखराव, टूटन, असंतोष और बेमानी रिश्तों की घुटन को अपना विषय बनाया है और भ्रष्ट शासनतंत्र द्वारा पैदा की गई अराजकता और शोषण के युगीन संदर्भों को भी गीतों में व्यक्त करने की सक्षम भूमिका निभाई है। नवगीत में जहाँ गद्य के लालित्य का प्रभाव दिखाई पड़ता है, वहीं गीत की लिजलिजी रोमानियत से मुक्ति भी उसका

एक विशेष आकर्षण है। इस प्रकार के नए शिल्प और अंतर्वस्तु वाले गीतों ने हिंदी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की है और वे साहित्यिक क्षेत्रों में भी लोकप्रिय भी हुए हैं।

इन ऊर्जा वाले गीतों में ही वह क्षमता है कि वे जन-जन का संवेदन बन सकें और वह संवेदन जो दिशाबोध की सही समझदारी से लैस हों। साथ ही यह भी ज़रूरी है कि गीत लोकशिल्प को वहन करे। लोकशिल्प से आशय है लोकभाषा के तेवर की पहचान, मुहावरे, लोकोक्तियों से अंतरंग परिचय। जनता की एकांत और सार्वजनिक बोली की पहचान, दुख-तकलीफ़ को व्यक्त करनेवाली भाषा, संकेत, चिन्ह, प्रतीक, आस्था के प्रतीक, पौराणिक बिंबों की आंचलिक व्याख्याएँ तथा लोकजीवन के संदर्भों का गीतकार को बोध होना बहुत आवश्यक है। इस प्रासंगिक सौंदर्यबोध के बिना लोकरंजन वाले गीत की रचना नहीं हो सकती। अधिकांश नवगीत संग्रहों में प्रयुक्त संकेत, प्रतीक और पौराणिक मिथकों के माध्यम से लोकशिल्प की उसी पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास किया गया है, जिससे कथ्य की व्यंजना और भी धारदार और संप्रेष्य हो सके। शिल्पगत कोई भी प्रयोग या बिंब तभी सफल या सार्थक हो सकता है, जो गीत को काव्यात्मक सौंदर्य प्रदान करने के साथ उसकी अर्थ गरिमा भी बढ़ाए और उसको बोधगम्य भी बनाए। डॉ. इसाक अश्क के इस गीत में 'लाक्षागृह' का प्रयोग कितना सार्थक है? देखें-

लाक्षागृह षड़यंत्रों के सुघड़ बनाए
अपने ही स्वजन हमें शत्रु नज़र आए
हम जब भी हुए/शकुनि दाँव के हुए,
धूप के हुए न, कभी छाँव के हुए। (नवगीत अर्द्धशती, पृ. ५५)

कभी-कभी मिथक गीत की व्यंजना को धारदार और बोधगम्य बनाने में बहुत सहायक होते हैं। इस तरह के प्रयोग नवगीत में प्रायः देखने को मिल जाते हैं। इसीलिए किसी भी कलात्मक रचना के बारे में महान विचारक बेलिंस्की ने ठीक ही कहा है कि ''यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है, जो युग में व्याप्त भावना से निसृत होती है, यदि वह पीड़ित ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं है, यदि कोई सवाल या किसी सवाल का जवाब नहीं है तो वह निर्जीव है, बेमानी है।''

ये विचार हमारे इस विश्वास को और मज़बूत बनाते हैं कि 'कला, कला के लिए नहीं, बल्कि कला जीवन के लिए है।' इसी कारण हिंदी कविता की गीत परंपरा के महान कवि कबीर, तुलसी, सूर मीरा, रहीम, रसखान आज भी प्रासंगिक हैं और जन-जन में लोकप्रिय हैं। ये हिंदी कविता के ही नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना के भी सक्षम वाहक हैं।

इसी समाजोन्मुख दृष्टिकोण को नवगीत ने भी अपनी रचनाप्रक्रिया का आधार बनाया है, जो मानवीय संवेदना का जागरूक चितेरा ही नहीं बल्कि संघर्षशील ज़िंदगी का सच्चा हमसफ़र भी है। नवगीत ने गीत को संरक्षण प्रदान करने के साथ आधुनिक युगबोध और शिल्प के साँचे में ढालकर उसको नवीन और मोहक रूपाकार प्रदान करने का काम भी किया है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो नवगीत पारंपारिक गीत का विकसित और परिष्कृत रूप है, जो आदमी के दुख-दर्द में सिर्फ़ गुनगुनाता ही नहीं, बल्कि ज़िंदगी की लड़ाई में हमदर्द की तरह ऊर्जा भी प्रदान करता है और रास्ता भी बताता है-
जाल है भीतर नदी के,
घाट से हटकर नहाना। (गुलाब सिंह)

सुनती हो तुम रूबी / एक नाव फिर डूबी,
ढूँढ़ लिए नदियों ने / रास्ते बचाव के। (देवेंद्र कुमार)

दाँव पर अंधी सियासत के, हुए गिरवी सभी चौपाल
खून के रिश्ते हुए गुमराह, चलते हैं तुरुप की चाल। (उमाशंकर तिवारी)

एक रात इतनी रातों में दीपावली हुई
कोई चाल स्यात अंधियारे की यह चली हुई! (रामकुमार कृषक)

जब-जब क्रौंच हुआ है घायल, गीत बहुत रोया,
हर बहेलिये की साज़िश में, नीड़ों ने खोया। (राधेश्याम बंधु)

समकालीन कविता में नवगीत ने अपनी सामाजिक चेतना और यथार्थवादी जनसंवादधर्मिता के कारण जो अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है, उससे अब उसकी ओर सबका ध्यान बरबस ही आकृष्ट होने लगा है। अब कुछ तारसप्तकीय कवि-आलोचक भी दबी ज़बान से उसका समर्थन करने लगे हैं। डॉ. केदारनाथ सिंह ने 'पाँच जोड़ बाँसुरी' के अपने लेख में लिखा है, ''नवगीत के नाम पर जो रचनाएँ हमारे सामने आई हैं, उनमें नई ज़मीन की ताज़गी तो है, पर इतना ही काफी नहीं है। आवश्यक यह है कि आज का गीत हमारे आसपास की चिरपरिचित ज़िंदगी की ऊब और निरर्थकता के भीतर छिपी हुई ताज़गी की ओर इशारा करें। यदि वह ताज़गी कहीं है।''

यदि डॉ. केदारनाथ सिंह आज के कुछ नवगीत-संग्रहों को सह्रदयतापूर्वक देखने-पढ़ने की कोशिश करें तो नवगीतों में ज़िंदगी की ऊब के भीतर छिपी हुई ताज़गी को अवश्य महसूस करेंगे। ठाकुर प्रसाद सिंह का नवगीत-संग्रह 'वंशी और मादल' जब १९५९ में प्रकाशित हुआ तो 'तारसप्तक' के संपादक अज्ञेय ने उसके गीतों के बारे में 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक बहुत महत्वपूर्ण सकारात्मक समीक्षा लिखी थी। इस टिप्पणी को लेकर जहाँ गीतप्रेमियों में आल्हादकारी चर्चा हुई, वहीं गीत-विरोधियों के तीर गुंथल हो गए। अज्ञेय ने स्वयं भी गीत लिखे हैं और हर तारसप्तक में उन्होंने कुछ गीत भी प्रकाशित किए हैं, इसलिए उनके मन में गीत के प्रति झुकाव भी रहा और अच्छे गीतों की सराहना भी की।

कुछ नवगीत-संग्रहों ने कविता प्रेमियों को विशेष रूप से प्रभावित किया, जैसे उमाकांत मालवीय का 'मेहंदी और महावर', माहेश्वर तिवारी का 'हरसिंगार कोई तो हो', रमेश रंजक का 'चौकस रहना' आदि। इस प्रकार नवगीत ने मानवीय सरोकारों और सामाजिक परिवर्तन की आहटों को अपनी अभिव्यक्तियों में महसूस करने की बराबर कोशिश की है, जिसे हम आज के प्रकाशित हो रहे नवगीत संग्रहों में देख सकते हैं।

७ सितंबर २००९

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