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रचना प्रसंग

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लघुकथा : प्रकार, प्रविधि
और भाषा आकार से प्रकार की ओर
— गौतम सान्याल


हिन्दी में लघुकथा के 'आकार' पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन मुझे लगता है कि प्रकार तय हो जाए, तो आकार भी निश्चित दिखाई देगा। यहाँ इतना जोड़ देने में कोई हर्ज नहीं हैं कि 'लघु' होना या नन्हा होना गेरिया का दुर्भाग्य नहीं है। गेरिया स्वयं में जीवित और संपूर्ण हैं। ध्यातव्य है कि इस जीवन में या कला जगत में जो कुछ भी महान या महत्वपूर्ण है – वह लघुता या दीर्घता के अनर्थक वितर्क से परे होता है। लघु होना – खंडित होना या संक्षिप्त होना नहीं है। लघुता परजीविता भी नहीं है। एक तारे के विखंडन से (सिफीड सिद्धांत) इस सौर जगत की सृष्टि हुई है तो क्या पृथ्वी, चाँद या अन्य ग्रहों–उपग्रहों का अपना कोई गुरुत्वाकर्षण नहीं, अपना कोई प्रकार नहीं?

सीधी सी बात यह है कि एक कला–मन सदैव स्वयं से बाहर निकलना चाहता है। वह दूसरों से संपर्क साधना चाहता है। कला–निजस्वता का अतिक्रमण है। इस निजस्वता से अतिक्रमण की प्रक्रिया तभी पूरी होती है जब एक कला–मन दूसरों की भी 'स्वयं से निष्क्रमण' में सक्रिय और कलात्मक मदद करता है। लेकिन कला–मन के इस स्वयं से निष्क्रमण का कोई निर्दिष्ट व्याकरण नहीं है। सांस्कृतिक संपर्क एक जैविक और सामाजिक प्रक्रिया है जिसे मनुष्य किसी न किसी स्तर पर गढ़ ही लेता है। कला का प्रारूप या आकार निष्क्रमण की प्रविधि के आधार पर निश्चित नहीं होता। उल्लेखनीय है कि संपर्क एक मानसिक अस्थिरता है जो कि तरल है और जिसका आयतन तो निश्चित है, मगर आकार नहीं। संक्षेप में कला–मन की अंतस अस्थिरता से 'प्रकार' का संबंध 'आकार' की अपेक्षा अधिक हुआ करता है। आकार तो परिणाम है, जबकि प्रकार का रहस्य किसी कृति की नाभिकीय–नाल में निहित होता है।

प्रश्न उठता है कि किसी देश–जाति के इतिहास के किस मोड़ पर अधिकाधिक सृजित होते हैं लघुकथा – प्रकार? वे कैटेलिस्ट उत्प्रेरणाएँ क्या हैं जो लघुता के सृजन की प्रक्रिया को गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से तेज कर देती हैं? अक्सर लोग लघुकथाओं के सृजन का अधिकतर श्रेय उद्योगीकरण या विज्ञान के यांत्रिकीकरण या हमारे उलझे हुए आज के बाजारू जीवन को देते हैं। वे लघुकथा को लघुमानव की प्रतिक्रिया के रूप में चिह्नित करना चाहते हैं।
 
वे भूल जाते हैं कि लघुकथा स्वयं में विज्ञान ही है – अर्थात् विशेष ज्ञान। वे भूल जाते हैं कि जहाँ तक 'प्रकार' का प्रश्न है – पंचतंत्र की कथाएँ हों या जातक–कथाएँ, कथा सरित्सागर हो या अरेबियन नाइट्स की सहस्त्र कथाएँ – ये अपने आप में लघुकथाएँ ही हैं। और तो और, महाभारत भी अपने आप में अजस्त्र लघुकथाओं का अक्षय समाहार ही है। मुझे तो लगता है कि प्रकार की दृष्टि से रामायण अगर महाकाव्य है तो महाभारत 'ग्रेंड चेन पॅटर्न' की अनवरत लघुकथाओं की अनंत शृंखला हैं। लघुकथा के उन्मेष पर हमारा ध्यान टिका हो तो रामायण और महाभारत के देश–समाज, आर्थिक–
सामाजिक अधिरचना का अंतर अवश्य दिखेगा और प्रकार भेद चिह्नीकरण के संदर्भ में बात यहीं से शुरू की जा सकती है।

उल्लेखनीय है कि लघुकथाओं का जन्म तब अधिक होता है जब किसी जाति के जीवन से महाकाव्य विलुप्त होने लगते हैं। यह तब भी हुआ था और इस शताब्दी के मध्य दशकों में भी हुआ है। ध्यातत्व है कि तीन–चार दशक पहले भारतीय जीवन के परिप्रेक्ष्य में या मनीषा की परिधि के जिस–जिस कक्ष में (मसलन बांग्ला, हिन्दी, मराठी आदि) महाकाव्य विलुप्त होने लगे – वहाँ–वहाँ नई चेतना से सम्पन्न लघुकथाएँ छा सी गई हैं।

ठीक–ठीक कहें तो महाकाव्य विलुप्त नहीं होते बल्कि विखंडित हो जाते हैं और इसका इतिवृत्त उपन्यासों में (प्राचीन युग में नाटकों में), प्रगीत लंबी कथात्मक कविताओं में (राम की शक्ति पूजा, असाध्य वीणा, अंधेरे में आदि) और इसका नीति शास्त्र लघुकथा के रूप में सिमट जाता हैं। इस तरह लघुकथा अपने आप में आदर्श और संक्षिप्त साहित्य ही है जो
सदैव नीति का निर्देश देती हैं। लघुकथा शिवम् का लघुतर आख्यान है जो शुभ–अशुभ की विभाजक रेखा पर जन्म लेती है। वह नैतस का शून्य–बिन्दु है। पक्ष–विपक्ष का वह एकांत है जहाँ कृष्ण, अर्जुन को गीता का उपदेश देने ले गये थे।

लघुकथाएँ किसी अस्थिर समाज में अधिक उपजती हैं जिसमें भौतिक उत्पादान के साधन और मानसिक उत्पादान के साधनों में तीव्र संघर्ष होता दिखाई देता है। जब जाति की मनीषा में वह महाकाव्यिक–आलोचनात्मक विवेक नहीं होता जिसके आधार पर वह नई राह के निर्माण में संलग्न हो सके, जब वह जान जाती है कि ये पुराने रास्ते उसे कहीं भी नहीं ले जाएँगे या जहाँ कहीं भी ले जाएँगे, वह दुनिया उसके लिए बेहद छोटी होगी।

स्पष्ट कहें तो जब पुराने नीतिशास्त्र के समस्त उपयोगी दिशाफलक उत्पाटित होकर हमारे चरणों के नीचे प्रत्यक्ष पड़े होते हैं, जब किसी देश की समस्त राजनैतिक संस्थाएँ अपना भविष्य खो चुकी होती हैं, जब परंपराओं का उपयोग या प्रयोग की दिशाएँ नहीं सूझतीं, जब मूल्यहीनता का बोध प्रतीति से प्रत्यय बन जाता है, जब किसी देश का व्यापारी वर्ग संतुष्ट, लेखन कर्मी उदास और युवा वर्ग बूढ़ा दिखाई देता है, जब गणतंत्र पूँजीपतियों की खाज बन चुका होता है, जब हमारे पारंपरिक आख्यान मिथक हीन प्रतीत होने लगते हैं, जब हमारी पारंपरिक लोककलाओं को बाजरू उपभोग के प्रोडक्ट के रूप में 'उन्नत' किया जाता है, जब हमारे न्युक्लियस–परिवार से (इलेक्ट्रोन पापा, पॉजिट्रोन मम्मी और न्यूट्रा संतान) कथावाचक दादी–नानी–फूफी–मौसी गायब होने लगते हैं तब, लघुकथाओं का अधिकतर सृजन होने लगता है।

प्रविधि

लघुकथा हठात जन्म नहीं लेती, अकस्मात पैदा नहीं होती। दूसरें शब्दों में कहें तो लघुकथा तात्क्षणिक प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं होती। जब कोई कथ्य–निर्देश देर तक मन में थिरता है और श्लोक–संवृत में अँखुआ उठता है तब जाकर जन्म ले पाती है लघुकथा – जैसे सीपी में मोती जन्म लेता है। जब कोई धूलकण या बाह्य पदार्थ सीपी में प्रवेश करती है तो उसे घेरकर सीपी में स्त्राव शुरू हो जाता है। एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के तहत वह धूलिकण एक ट्यूमर के रूप में मोती का रूप ग्रहण कर लेता है। कहना न होगा कि इस सहजात जैविक प्रक्रिया के तहत सीपी को एक गहरी और लम्बी वेदना से गुजरना होता है। अन्तिम दौर में उस मोती को बर्दाश्त कर पाना सीपी के लिए मुश्किल हो जाता है। आदमी विवश होकर ही लिखता है जैसे कोई झरना विवश होकर अंततः फूट निकलता है। यहाँ तक तो एक कविता–कहानी या लघुकथा में कोई सविशेष फर्क नहीं।

फर्क इतना है कि साधारणतः एक लघुकथा का लगभग अंतिम प्रारूप व्यक्त होने के पहले ही अपना रूपाकार ग्रहण कर लेता है। यह तथ्य क्रोचे का गड़बड़झाला नहीं हैं। कहना बस इतना है कि जीवन महज एक तथ्य नहीं है – यह अपने आप में कथ्य भी है। जब जीवन के तथ्य और कथ्य एकमेक होकर गद्य के प्रारूप में अन्वित–संक्षिप्तियों में प्रकट होते हैं तो उसे लघुकथा कहते हैं।

शर्तें


लेकिन 'मोती' का प्रारूप ग्रहण कर लेने से ही लघुकथा की सृजन–प्रक्रिया संपन्न नहीं हो जाती। इसके बाद एक सूक्ष्म कलाजन्य शल्यचिकित्सा अपेक्षित है। इसके बाद अत्यंत सतर्कता बरतते हुए सीपी से मोती को निकालना होता है। जो सीपी से मोती को नोचकर निकालते हैं वे हत्यारे हैं, कसाई है, बनिये हैं, शीघ्रस्त्रावी हड़बड़िये हैं। उन्हें किसी भी दृष्टि से लघुकथाकार नहीं कहा जा सकता।

कहने का आशय यही है कि लघुकथा की सृजन–प्रक्रिया दीर्घकालिक है इसीलिए यह देर तक और दूर तक जीवित रहती है। मेरा तो यह मानना है कि कहानी की तुलना में लघुकथा में निश्चित तौर पर दीर्घकाल तक बने रहने की क्षमता अधिक होती है। काल के चिरंतन प्रवाह में गीता का 'समग्र' विस्मृत हो जाता है, महाकाव्यों का सूत्रात्मक इतिवृत्त विलुप्त हो जाता है, पुराणों के 'आख्यान'  धूमिल पड़ जाते हैं – ये लघुकथाएँ ही हैं जो मानव सभ्यता या संस्कृति में
देर–दूर तक चल पाती हैं, टिक–ठहर जाती हैं।

लघुकथा के प्रस्थान–बिन्दु में विवेक का विस्फोट दूसरी अनिवार्य शर्त है। ऐसा विस्फोट जो बिजली की कौंध की भांति क्षणभर में, क्षणभर के लिए ही सही चेतना के समस्त आकाश को उजागर कर देता है, समस्त कथावृत्त को उद्भासित कर देता है। लघुकथा चूँकि कथा भी है – यह हमें मात्र हतवाक् ही नहीं करती, मोहित भी कर देती है। जिस लघुकथा में विवेक नहीं होता, वह पशुओं का खाद्य है।

शैली को तलाशें तो यह ' विवेक का विस्फोट' अपने आप में तराशा हुआ व्यंग्य ही है। लघुता नहीं, घनत्व – लघुकथा की एक और शर्त है और यह 'घनत्व' भाषा पर उतना आधारित नहीं होता बल्कि व्यंग्य के दर्शन पर होता है। घनत्व की अवस्थिति, दृष्टि में नहीं बल्कि दर्शन में ही होती है। इस दर्शन का सृजन व्यक्तिगत विद्रूप की भंगिमा या कृत्रिम भाषिक कौशल से उपस्तर के अतिक्रमण के बाद ही संभव है।

लघुकथा के सौन्दर्यशास्त्र का पहला सूत्र यह है कि यह विरोध की कला है, प्रतिरोध का रचना कौशल है, विरुद्ध का कथ्य है, विद्रूप का कौशल है। यह असत्य और अशुभ पर कथात्मक प्रहार का संक्षिप्त नाद है। लघुकथाएँ पतनशील और जर्जरित सामाजिक अधिरचना के विरूद्ध नवीन और जीवंत विवेक के संघर्ष की दास्तान को लघु कलेवर में प्रस्तुत करती हैं। जीवन एक संघर्षशील श्रम है और कलागत–सृजन उसके मर्म का उद्घाटन है। लघुकथाएँ उन मार्मिक उद्घाटनों का
संक्षिप्त कथात्मक प्रकार है।

भाषा

लघुकथा न तो कहानी की भूमिका है और न ही परिशिष्ट। कहानी उपस्थित समाज का आख्यानपरक ब्लूप्रिंट है जबकि लघुकथा संभावित समाज का कथकली–निर्देश। कहानी अगर नृत्य है तो लघुकथा एक सार्थक भावमुद्रा। लघुकथा कथ्य की कोख में अँखुआया हुआ मानवता का वह कथात्मक क्षण है जो हमें युग–युग तक नई प्रेरणा और उत्तेजना प्रदान करता है। ध्यातत्व है कि इस विधा–प्रकार की सारी ऊर्जा कालातीत बनने के प्रयत्न में खप जाती है। एक ही कथ्य परिधि से केन्द्र की ओर चले तो लघुकथा, और केन्द्र से परिधि की ओर चले तो कहानी का जन्म हो सकता है बशर्ते हम व्यक्त करने और व्यंजित होने के फर्क को ध्यान में रखें। लघुकथा कहानी की तरह 'कथा' को व्यक्त नहीं करती, व्यंजित कर दे
ती है। दोनों में एक भाषागत अंतर, विश्लेषण और संश्लेषण का भी दिखाई देता है।

लघुकथा की भाषा के रूपकल्प का निर्धारण सबसे पेचीदा समस्या है – अतः हमें अत्यंत सतर्कता बरतते हुए इस संदर्भ में समग्रता से विचार करना चाहिए। साहित्य भाषा की परिघटना है और भाषा शब्दों का अभिकृत्य है। संक्षेप में कहें तो हमारा सम्पूर्ण वाङमय शाब्दिक अवबोध पर ही टिका हुआ है। अतएव हमें शब्द–प्रयुक्ति ह्यप्रोजेक्शनहृ पर ध्यान देना चाहिए और वे विभाजक रेखाएँ खोज निकालनी चाहिए जो कविता–कहानी की भाषा को लघुकथा की भाषा से अलगाती है। लघुकथा की भाषा अपरिसीम भाषा है। इसमें पंचतंत्र का टेक्सचर , बौद्ध जातक कथाओं का स्ट्रक्चर, कविता का तिर्या, संस्कृत श्लोकों की अन्वित अभिव्यक्ति, महाकाव्य का विवेक, लोकगीतों की लय, स्थापत्य कला का रेफरेंशियल मूड, पेंटिग्स का पिक्टोरियल – सब चाहिए। मैं तो लघुकथा के लिए उसे ही उचित शब्द कहूँगा जिसे गद्य के विवेक के लिए
कविता की कल्पना सहर्ष संस्मरण की जाती है।

जहाँ तक अर्थ की अभिव्यंजना का प्रश्न है, लघुकथा की शब्द–अन्विति कुछ– कहा और कुछ–अनकहा की घटित चतुराई पर आधारित नहीं, बल्कि क्रिस्टल–भाषा होती है जिस पर तनिक प्रकाश पड़ते ही एक साथ कई–कई अर्थान्वितियाँ झिलमिला उठती हैं। उसकी यह बात कविता से मिलती–जुलती है। अंतर यह है कि कविता के लिए 'भगीरथी' शब्द है जबकि लघुकथा के लिए 'गंगा' एक आदर्श शब्द है जो एक लौकिक नदी, एक पवित्र तरल प्रवाह, एक दिव्य देवी और असंख्य मिथकों को एक साथ अभिव्यंजित करने में समर्थ है। 'भगीरथी' मिथक को 'व्यक्त' करता है जबकि 'गंगा' शब्द उसी मिथक को अभिव्यंजित करता है। अंतर इस कोण से भी दिखता है कि कविता की ये अर्थान्वित झिलमिलाहट के दिशा–फलक प्रतीकार्थों और बिंबों को अधिसूचित करते हैं जबकि लघुकथा के शब्द एक विशिष्ट कथ्य–निर्देश को।

लघुकथा का शब्द अकेला 'शब्द' होता है। उसका कोई पर्यायवाची नहीं होता – पहाड़ी पर अकेले मंदिर की भाँति जो दूर पर दि
खता है, जो दृश्य भी है और दृष्टांत भी। ध्यान से देखें तो 'शीर्षस्थ' नहीं, बल्कि 'शीर्षक शब्द' लघुकथा के लिए आदर्श होता है।

लघुकथा की भाषा में कथ्य की अंगीकृत अनुरूपता होती है, कविता की तरह अस्वीकृत प्रतिरूपता नहीं। लघुकथा कविता की तरह अगाध का अवगाहन नहीं है, वह नैतिक अवबोध का स्पष्ट प्रस्तुतीकरण है। इसकी भाषा में निहित अन्र्तध्वनित–अनुगूँज एक स्पष्ट कथात्मक परिघटना का संकेत देती है।

यह तथ्य निर्विवाद है कि कविता ही नए शब्दों को जन्म देती है, गद्य तो बस उनकी परवरिश करता है, उन्हें निभाता है। लघुकथा उस नए प्रजन्म की नवीन अर्थ–छायाओं को कथा की हथेली की सुरक्षा प्रदान करती है – जीवन बीमा के विज्ञापन के एंब्लेम की तरह।

कहानी की भाषा – समकालीन सोशल–ग्रामर के द्वारा निर्धारित होती है, क्योंकि कहानियाँ सदैव समकालीन श्रोताओं–पाठकों के लिए रची जाती हैं। इस दृष्टि से देखें तो कविता कालतीत संवाद है। लघुकथा की भाषिक स्थिति इन दोनों के मध्य है। आख्यान के स्तर पर यह समकालीन होती है जबकि संवाद के स्तर पर कालातीत। लघुकथा की भाषा पूरे दायित्व के
साथ समकालीन भाषिक अवबोध को नकारती है और इसी प्रयत्न में वह कविता के करीब पहुँचती प्रतीत होती है।

'एक था राजा, एक थी रानी, दोनें मर गये – खत्म कहानी' – यह कहानी की भाषा नहीं बल्कि कविता की भाषा है। कहानी की भाषा यह है कि, राजा रानी से बेहद प्यार करता था, रानी बीमार थी और एक दिन राजा शिकार से लौटा तो उसने पाया कि रानी मर चुकी है – और राजा उसके शोक में मर गया। कहानीपन 'जाड़े की उदास शाम' के चित्रण में है, जब राजा आखेट से लौट रहा था और रह–रहकर उसे आज के आखेट का वह दृश्य याद आ रहा था कि किस तरह वह मासूम सिंह शावक अपनी माँ के निष्प्राण शव को चाट रहा था। राजा शिकार से महल में लौटा तो देर तक अपनी प्रियतमा के निर्जीव देह के सिरहाने बैठा रहा। फिर अचानक उठकर उसने आदेश जारी किया कि आज से राज्य में निरीह वन्य प्राणियों का शिकार, दंडयोग्य अपराध है। दूसरी सुबह उसे मृत पाया गया।

स कथ्य–निर्देश से दृश्यपरकता को निकाल दें, इससे नैरेटिव डिस्कोर्स को पृथक कर दें और इसी को एक परिदृश्यात्मक चित्रात्मकता में प्रस्तुत करें तो यही एक लघुकथा बन सकती है। मैंने अवधी का एक लोकगीत सुना है जिसमें ऊँची अटारी पर बैठी हुई कौशल्या माता से एक हरिणी रो–रोकर शिकायत करती है कि किस तरह उसके पुत्रों ने एक अदद मृगछाला के लिए उसके परम प्रिय हरिण का वध कर दिया है। कौशल्या जवाब नहीं दे पाती, अटारी से हट जाती है और अशांत मन को शांत करने के लिए ध्यान के निमित्त जिस पर बैठती है वह मृगछाला ही होती है। यह लघुकथा है।
अतः कहना चाहूँगा कि लघुकथाएँ अवबोध की त्वरित प्रतिक्रिया नहीं होती, यह हठात् अनुभव का आकस्मिक उद्गार नहीं है – लघुकथाएँ सुनियोजित घटित के ऊपर नैतिक शब्दों की टेराकोटा निर्मिति है। लघुकथाएँ उदारतम कथात्मक शब्दों की कृपणतम प्रस्तुति हैं।

लघुकथा की भाषिक–संकल्पना में एक अतिरिक्त कलापरक संयोजन सर्वथा अपेक्षित है और यह संकल्पना दिक या काल को ही नहीं, शब्दों के पारंपारिक अवबोध और मिथकीय संदर्भ को भी चिन्हित करती है। हम गंगा के लिए 'जल' और तुलसी के लिए 'दल' शब्द का प्रयोग करते हैं – पानी, नीर या पत्ती नहीं, 'आकाश' केन्द्रित शब्दों को ही लें 'गगन' है उच्चता (गगनस्पर्शी अट्टालिका – नभचुंबी या आकाशचुंबी क्यों नहीं?) नभ है वायु (नभचर), अंबर है पृथ्वी का परिघन, अंतरिक्ष इंटर प्लेनेटरी स्पेस, आसमान है विस्तृत और रंग, आकाश है गहराई, शून्यता और व्यापकता। ऐसा क्यों? इसी प्रश्न के उत्तर में लघुकथा की कालातीत और विशेष व्यंजित भाषा का रहस्य छिपा हुआ है।

१६ अप्रैल २००२

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