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गुप्ता जी, पेशे से व्यापारी थे। कस्बे से
दुकान की दूरी महज़ किलोमीटर थी।
एकदम वीराने में थी उनकी दुकान
कस्बे से वहाँ तक पहुँचने का साधन यदा कदा ही मिलता था, तो अक्सर लिफ्ट
माँग कर ही काम चलाना पड़ता था और न मिले तो प्रभु के दिये दो पैर, भला किस
दिन काम आएँगे।
"कैसे उजड्ड वीराने में दुकान खोल धरा है पता नहि किसकी सलाह थी इससे भला
तो चुंगी पर परचून की दुकान खोल लो।"
लिफ्ट माँगते, साधन तलाशते गुप्ता जी रोज यही सोचा करते।
धीरे धीरे कुछ जमापूँजी इकठ्ठा कर, उन्होंने एक स्कूटर ले लिया।
बिलकुल नया चमचमाता स्कूटर।
स्कूटर लेने के साथ ही उन्होंने एक प्रण लिया कि वो कभी किसी को लिफ्ट के
लिए मना न करेंगें।।
आखिर वो जानते थे जब कोई लिफ्ट को मना करे तो कितनी शर्मिंदगी महसूस होती
है।
अब गुप्ता जी रोज अपने चमचमाते स्कूटर से दुकान जाते, और रोज कोई न कोई
उनके साथ जाता। लौटते में भी कोई न कोई मिल ही जाता।
एक रोज लौटते वक्त एक व्यक्ति परेशान सा लिफ्ट के लिये हाथ फैलाये था, अपनी
आदत अनुसार गुप्ता जी ने स्कूटर रोक दिया। वह व्यक्ति पीछे बैठ गया।
थोड़ा आगे चलते ही उस व्यक्ति ने चाकू निकाल गुप्ता जी की पीठ पर लगा दिया।
"जितना रुपया है वो, और ये स्कूटर मेरे हवाले करो।" व्यक्ति बोला।
गुप्ता जी की सिट्टी पिट्टी गुम, डर के मारे स्कूटर रोक दिया। पैसे तो पास
में ज्यादा थे नहीं, पर प्राणों से प्यारा, पाई पाई जोड़ कर खरीदा स्कूटर
तो था।
"एक निवेदन है," स्कूटर की चाभी देते हुए गुप्ता जी बोले ।
"क्या?" वह व्यक्ति बोला।
"यह कि तुम कभी किसी को ये मत बताना कि ये स्कूटर तुमने कहाँ से और कैसे
चोरी किया, विश्वास मानो मैं भी रपट नहीं लिखऊँगा।" गुप्ता जी बोले।
"क्यों?" व्यक्ति हैरानी से बोला।
"यह रास्ता बहुत उजड्ड है, निरा वीरान। सवारी मिलती नहीं, उस पर ऐसे हादसे
सुन आदमी लिफ्ट देना भी छोड़ देगा।" गुप्ता जी बोले।
व्यक्ति का दिल पसीजा, उसे गुप्ता जी भले मानुष प्रतीत हुए, पर धंधा तो
धंधा होता है। 'ठीक है कहकर' वह व्यक्ति स्कूटर ले उड़ा।
अगले दिन गुप्ता जी सुबह सुबह अखबार उठाने दरवाजे पर आए, दरवाजा खोला तो
स्कूटर सामने खड़ा था। गुप्ता जी की खुशी का ठिकाना न रहा, दौड़ कर गए और
अपने स्कूटर को बच्चे जैसा प्यार करने लगे, देखा तो उसमें एक कागज भी लगा
था।
"गुप्ता जी, यह मत समझना कि तुम्हारी बातें सुन मेरा हृदय पिघल गया।
कल मैं तुमसे स्कूटर लूट उसे कस्बे ले गया, सोचा कबाड़ी वाले के पास बेच
दूँ।
"अरे ये तो गुप्ता जी का स्कूटर है।" इससे पहले मैं कुछ कहता कबाड़ी वाला
बोला......
"अरे गुप्ता जी ने मुझे बाजार कुछ काम से भेजा है।" कहकर मैं बाल बाल बचा।
परन्तु शायद उस व्यक्ति को मुझ पर शक सा हो गया था।
फिर मैं एक हलवाई की दुकान गया, जोरदार भूख लगी थी तो कुछ सामान ले लिया।
"अरे ये तो गुप्ता जी का स्कूटर है।" वो हलवाई भी बोल पड़ा।
"हाँ, उन्हीं के लिये तो ये सामान ले रहा हूँ, घर में कुछ मेहमान आये हुए
हैं।" कहकर मैं जैसे तैसे वहाँ से भी बचा।
फिर मैंने सोचा कस्बे से बाहर जाकर कहीं इसे बेचता हूँ। शहर के नाके पर एक
पुलिस वाले ने मुझे पकड़ लिया।
"कहाँ, जा रहे हो और ये गुप्ता जी का स्कूटर तुम्हारे पास कैसे।" वह मुझ पर
गुर्राया। किसी तरह उससे भी बहाना बनाया।
"हे, गुप्ता जी तुम्हारा यह स्कूटर है या आमिताभ बच्चन। सब इसे पहचानते
हैं। आपकी अमानत मैं आपके हवाले कर रहा हूँ, इसे बेचने की न मुझमें शक्ति
बची है न हौसला। आपको जो तकलीफ हुई उस एवज में स्कूटर का टैंक फुल करा दिया
है।"
पत्र पढ़ गुप्ता जी मुस्कुरा दिए, और बोले। "कर भला तो हो भला।"
ऐसे है अपने आर एस एस के मनोज कुमार गुप्ता जी लखनऊ पश्चिम वाले।
१ फरवरी २०२४ |