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प्रेरक-प्रसंग

राजा भर्तृहरि और जलेबी
- स्वामी अड़गड़ानंद जी

प्राचीन काल में उज्जयिनी में भर्तृहरि नाम के एक बहुत प्रतापी राजा थे। अनेक वर्षों तक राज्य करने के पश्चात उन्होंने वैराग्य लिया और गुरु गोरखनाथ की शरण में कठिन तपस्या में अपना जीवन बिताया। जब राजा भर्तृहरि कठिन तप में लगे थे तभी एक दिन उनका मन करने लगा कि जलेबी मिलती तो खाते। अब जलेबी दे कौन? भाविक तो बहुत थे, लेकिन किसी को क्या मालूम कि महाराज जी को जलेबी खाने की इच्छा है। एक दिन भर्तृहरि हलवाई की दुकान पर जाकर खड़े हो गए कि कोई भक्त आ जाय और दिला दे, लेकिन भगवान भी बड़े कौतुकी हैं, लम्बी परीक्षा लेते हैं- किसी के मन में जलेबी का भाव ही न आए। महीना, दो महीना बीत गया। जब भजन में बैठे तो जलेबी, ध्यान में बैठें तो जलेबी, नाम जपें तो जलेबी भर्तृहरि परेशान हो गए।

एक दिन विवश होकर वे किसी निर्माणाधीन मकान में दिनभर मिट्टी ढोते रहे। सायं उनको कुछ पैसे मिले। मिट्टी से लथपथ हाथों से पैसा लिया। दौड़ते हुए हलवाई के पास गए, जलेबी कहते हुए पैसा फेंका। दुकानदार ने टोकरी में जलेबी भरकर दे दी। सस्ती का जमाना था, काफी मिल गई। मन कहता था तुरंत प्रारंभ हो जाओ। भर्तृहरि ने समझाया- रे मन! तेरे कहने पर मैंने दिनभर मिट्टी ढोयी। देख तो, मिट्टी से सने हाथ हैं। इन्हें गंगा के किनारे धो तो लेने दे।

दौड़ते हुए गंगा के किनारे पहुँचे। हाथ-पाँव धोए और बैठकर विचार करने लगे- “ऐसी कौन-सी मिठाई थी जो हमने न खाई हो, केसर-कस्तूरी और मुहरों से छौंककर बननेवाली मिठाई हम खाते थे, किंतु मैदे से बनने वाली साधारण जलेबियों के पीछे दुष्ट मन ने हमें गिरा दिया। ऐसा विचार आते ही भर्तृहरि जलेबियाँ लेकर बैठ गए। जलेबी मुँह तक ले जाते- बड़ी सुंदर है, कैसी लाल लाल कुरकुरी जलेबियाँ हैं, रस से ठसाठस भरी हैं- इस प्रकार मन को ललचाते और एक-एक जलेबी जल में फेंकते जाते। जब अंतिम जलेबी उठाई और पानी में फेंकने चले तो एक छाया सामने आकर खड़ी हो गयी। बोली- “यह हमको दे दीजिये।“
भर्तृहरि ने पूछा- “तुम कौन?”
वह बोली- “आपकी इच्छा शक्ति।”
भर्तृहरि बिगड़े- “घर छोड़ा, द्वार छोड़ा, ऐसा कौन-सा मिष्ठान्न था जिसे तूने न खाया हो? किन्तु इच्छा देवी! तूने मुझे अन्ततोगत्वा फाँसी दे ही दी। तूने मुझसे दिनभर मिट्टी ढुलवायी, भजन छुड़वाया, अभी तुझे जलेबी चाहिये? ”
इच्छा शक्ति ने कहा- “इस एक जलेबी को खा लें। अब आपको किसी वस्तु की इच्छा नहीं होगी।”
भर्तृहरि ने उस जलेबी को खा लिया, पानी पिया और चल दिये। उनकी साधना सुचारु रूप से चलने लगी।”


जीवनादर्श एवं आत्मानुभूति से

१ मई २०२२

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