यात्रा के दौरान रेल में वर्षों वाद अपने एक
परिचिच तिलककुमार जी से अचानक मुलाकात हो गई। पुरानी बतें चर्चा में आईं
उके गिरते स्वास्थ्य के प्रति मैंने सहानुभूति दिखलाई। पन्द्रह वर्ष पूर्व
उनकी पत्नी के निधन की जानकारी पाकर दुख हुआ। अपने परिवार के बारे में
उन्होंने बताया- सब सुखी और सम्पन्न हैं। दोनो लड़कियों की शादी खाते पीते
घर में हुई है। एक पुत्र रेडीमेड कपड़ों का अच्छा शो-रूम चला रहा है। एक
पुत्र रेल विभाग में अच्छी पोस्ट पर पास के ही शहर में है और एक पुत्र बैंक
मैनेजर है।
मैंने कहा कितनी खुसी की बात है। वे दिन याद
आते हैं, जब आपने अपना स्वाभिमान कायम रखते हुए कष्ट उठाए, दिन रात मेहनत
करके ट्यूशनों से अर्थोपार्जन किया। बच्चों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाने की
आपकी चिन्ता मेरी स्मृति में है। आपने जिस भाँति पितृ-धर्म का निर्वाह किया
है- वह प्रेरक है। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा- प्रभु की माया है।
अगली बार पुनः मुलाकात करने का वादा करते हुए
उनसे पता पूछा तो बताया- हनुमान मंदिर के दक्षिण से तीसरी गली में के
चौराहे पर किनारे वाले भवन में मैं रहता हूँ।
करीब सात-आठ माह बात मैं छुट्टीयों में वापस
शहर लौटा तो तिलककुमारजी से मिलने रवाना हुआ। हनुमानजी के मंदिर के पास
पूछताछ की तो मालूम हुआ, वह भवन वृद्धाश्रम है। मैं स्तब्ध रह गया। कहाँ
पितृ-धर्म के निर्वाह का बलिदानी और कहाँ इस असहाय जीवन की स्थिति। करुणा
भाव से मन इतना विह्वल हुआ कि उनसे मिले बगैर ही मुझे वापस लौटना पड़ा,
क्यों कि जीवन के इस सत्य को मेरा कमजोर मन झेल नहीं पाया।
१६ अप्रैल २०१२ |