घटना है वर्ष १९६० की। स्थान
था यूरोप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम।
सारे विश्व की निगाहें २५ अगस्त से ११ सितंबर तक होने वाले
ओलंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलंपिक खेलों में एक
बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी। वह इतनी तेज़
दौड़ी, इतनी तेज़ दौड़ी कि १९६० के ओलंपिक मुक़ाबलों में तीन
स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गई।
रोम ओलंपिक में लोग ८३ देशों
के ५३४६ खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण
पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा
रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी
जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने
से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी
पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी
नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया
की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में
परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया
वे लोग और खेल-प्रेमी।
डॉक्टर के मना करने के
बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी
और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई। अपने
सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही।
उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात
पूरी कर दिखलाई। एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच
यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता
भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती। |