एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने
जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण
न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का
अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी
था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए
आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया,
देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख
दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से
आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ
माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा,
'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम
जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस
बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन
बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह
कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस
भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल
गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े
आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा
विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला,
'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे
बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ
कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम
ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते
हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे
जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।' माँ के उस
पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर। |