एक शिक्षण संस्थान की यह
परंपरा थी - अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों में जो योग्यतम
आठ-दस होते थे, उन्हें देश की औद्योगिक संस्थाएँ नियुक्त कर
लेती थीं। उस साल भी वही हुआ। ऊपर के नौ लड़के ऊँची
पद-प्रतिष्ठा वाली नौकरियाँ पाकर खुशी-खुशी चले गए। लेकिन
उनके बीच का एक लड़का जो चुने गए साथियों से कम नहीं था, रह
गया।
चूँकि वह बहुत परिश्रमी था
और अपने संस्थान को उसकी सेवा से लाभ ही होता इसलिए उसे
अस्थायी तौर पर कुछ भत्ता दे कर काम पर लगा लिया गया। फिर भी
अपने साथियों की तुलना में उसकी यह नियुक्ति आर्थिक दृष्टि
से बड़ी मामूली थी। वह उदास रहने लगा। लोग भी उसके भाग्य को
दोष देने लगे थे।
लेकिन यह स्थिति अधिक दिन
नहीं रही। एक बहुत नामी औद्योगिक संस्था ने अचानक उस शिक्षण
संस्थान से संपर्क कर जैसे व्यक्ति की माँग की, यह युवक पूरी
तरह उसके अनुकूल सिद्ध हुआ।
उसे अपनी योग्यता के अनुरूप
काम और वेतन मिला, बात इतनी ही नहीं थी, उसकी यह नियुक्ति
अपने साथियों की तुलना में बहुत ऊँची भी थी। अर्थ और
सामाजिक प्रतिष्ठा - दोनों ही दृष्टि से वह उन सबसे श्रेष्ठ
हो गया था।
इसी तरह कभी-कभी अनुकूल समय
के लिए प्रतीक्षा की घड़ियाँ आया करती हैं। अक्सर ही जिसे
लोग भाग्य का दोष मान बैठते हैं, वह होता है एक बेहतर भविष्य
का संकरा मुहाना। |