कलकत्ता विश्वविद्यालय के
उपकुलपति का एक पत्र पाकर पं. मदन मोहन मालवीय असमंजस में
पड़ गए। वे बुदबुदाए - "अजीब प्रस्ताव रखा है यह तो
उन्होंने। क्या कहूँ, क्या लिखूँ?"
पास बैठे एक सज्जन ने पूछा,
"ऐसी क्या अजीब बात लिखी है पंडित जी उन्होंने।"
वे मुसकुराकर बोले,
"कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय, मेरी सनातन उपाधि
छीन कर एक नई उपाधि देना चाहते हैं।" वे लिखते हैं - यह कहकर
वे पत्र पढ़ने लगे। उस पत्र में लिखा था - "कलकत्ता
यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट की सम्मानित उपाधि से अलंकृत करके
अपने आपको गौरवान्वित करना चाहती है। हम भी गौरवान्वित हो
सकेंगे। आप अपनी बेशकीमती स्वीकृति से शीघ्र ही सूचित करने
की कृपा कीजिए।"
"प्रस्ताव तो उचित ही है।
आप ना मत कर दीजिएगा मालवीय जी महाराज, यह तो हम वाराणसी
वासियों के लिए विशेष गर्व एवं गौरव की बात होगी।" तभी एक
अन्य सज्जन ने हाथ जोड़ कर कहा उनसे।
"अरे बहुत ही भोले हो
भैय्ये तुम तो। वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी। यह तो
वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है। बनारस के
पंडितों को अपमानित करनेवाली तजवीज़ है यह।" बहुत ही व्यथित
मन से मालवीय जी बोले।
अगले ही क्षण उन्होंने उस
पत्र का उत्तर लिखा - "मान्य महोदय! आपके प्रस्ताव के लिए
धन्यवाद। मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर मत मानिएगा।
मेरा पक्ष सुनकर आप उस पर पुनर्विचार ही कीजिएगा। मुझको आपका
यह उपाधि वितरण प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है। मैं जन्म और
कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूँ। किसी भी ब्राह्मण धर्म की
मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है। 'पंडित' से बढ़कर अन्य
कोई भी उपाधि नहीं हो सकती । मैं 'डाक्टर मदन मोहन मालवीय'
कहलाने की अपेक्षा 'पंडित मदन मोहन मालवीय' कहलवाना अधिक
पसंद करूँगा। आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर
करते हुए इसे 'डाक्टर' बनाने का विचार त्याग कर 'पंडित' ही
बना रहने देंगे।"
वृद्धावस्था में भी मालवीय
जी तत्कालीन वाइसराय की कौंसिल के वरिष्ठ काउंसलर थे। उनकी
गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय उनकी मेधा,
सौजन्य, सहज पांडित्य आदि के क़ायल थे। एक बार एक ख़ास भेंट
के कार्यक्रम के दौरान वाइसराय ने कहा - "पंडित मालवीय, हिज़
मेजेस्टी की सरकार आपको 'सर' की उपाधि से अलंकृत करना चाहती
है। आप इस उपाधि को स्वीकार करके इस उपाधि का गौरव बढ़ाने
में हमारी मदद करें।"
मालवीय जी ने तुरंत
मुसकुराकर उत्तर दिया - "महामहिम वाइसराय जी, आपका बहुत-बहुत
धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं किंतु मैं वंश परंपरा
से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं त्यागना चाहता। एक
ब्राह्मण के लिए 'पंडित' की उपाधि ही सर्वोपरि उपाधि है। यह
मुझे ईश्वर ने प्रदान की है। मैं इसे त्याग कर उसके बंदे की
दी गई उपाधि को क्यों कर स्वीकार करूँ?"
वाइसराय उनके तर्क से खुश
होकर बोले - "आपका निर्णय सुनकर हमें आपको पांडित्य पर जो
गर्व था, वह दुगुना हो गया। आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उसके
गौरव गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं।"
एक बार काशी के पंडितों की
एक सभा ने मालवीय जी महाराज का नागरिक अभिनंदन करके उन्हें
उस समारोह के दौरान ही 'पंडितराज' की उपाधि प्रदान किए जाने
का प्रस्ताव किया। यह सुनकर सभा के कार्यकर्ताओं के सुझाव का
विरोध करते हुए वे बोले - "अरे पंडितों, पांडित्य का मखौल
क्यों बना रहे हो, पंडित की उपाधि तो स्वत: ही विशेषणातीत
है। इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिए।"
फिर वे हँसकर बोले - "जानते
हो 'पंडित' 'महापंडित' बन जाता है तो उसका एक पर्यायवाची
वैशाखनंदन 'गधा' बनकर मुस्कराता है व्याकरणाचार्यों के
पांडित्य पर।"
और पंडित जी के विनोद में
बात आई गई हो गई। वे न तो डाक्टर बने, न 'सर' हुए न ही
'पंडितराज' इस सबसे दूर स्वाभिमान के साथ जीवन भर पांडित्य
का गौरव बढ़ाते रहे। |