भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जो हमारे जीवन
में प्रेरणा–स्त्रोत बन जाते हैं और अनजाने ही हमें एक ऐसा
संदेश भी दे जाते हैं जो हमारे संस्कारों को भी परिष्कृत
करता है। एक ऐसा ही प्रसंग स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में
आज भी हमें भावविह्वल कर जाता है। बात उस समय की है, जब
विवेकानंद जी को शिकागो की धर्मसभा में भारतीय संस्कृति पर
बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। वे भारत के प्रथम संत
थे जिन्हें अंतरराष्ट्रीय सर्वधर्म सभा में प्रवचन देने
हेतु आमंत्रित किया गया था।
स्वामी विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस का देहांत हो
चुका था। इसलिए इस महती यात्रा पर जाने से पूर्व उन्होंने
गुरू मां शारदा ह्यस्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नीहृ
से आशीर्वाद लेना आवश्यक समझा। वे गुरू मां के पास गये,
उनके चरण स्पर्श किये और उन्हें अपना मंतव्य बताते हुए
बोले, "मां, मुझे भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए अमरीका
से आमंत्रण मिला है। मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए ताकि मैं
अपने प्रयोजन में सफल हो सकूं।"
मां शारदा ने अधरों पर मधुर स्मित लाते हुए कहा, "आशीर्वाद
के लिए कल आना। मैं पहले देख लूंगी कि तुम्हारी पात्रता है
भी या नहीं? और बिना सोचे–विचारे मैं आशीर्वाद नहीं दिया
करती हूं।"
विवेकानंदजी सोच में पड़ गये, मगर गुरू मां के आदेश का पालन
करते हुए दूसरे दिन फिर उनके सम्मुख उपस्थित हो गये। मां
शारद रसोईघर में थीं।
विवेकानंदजी ने कहा, "मां मैं आशीर्वाद लेने आया हूं।"
"ठीक है आशीर्वाद तो तुझे मैं सोच–समझकर दूंगी। पहले तू
मुझे वो चाकू उठाकर दे दे मुझे सब्जी काटनी है।" मां शारदा
ने कहा।
विवेकानंदजी ने चाकू उठाया और विनम्रतापूर्वक मां शारदा की
ओर बढ़ाया। चाकू लेते हुए ही मां शारदा ने अपने स्निग्ध
आशीर्वचनों से स्वामी विवेकानंद को नहला–सा दिया। वे
बोलीं, "जाओ नरेन्द्र मेरे समस्त आशीर्वाद तुम्हारे साथ
हैं। तुम अपने उद्देश्य में अवश्य ही सफलता प्राप्त करोगे।
तुम्हारी सफलता में मुझे कोई संदेह नहीं रहा है।"
स्वामीजी हतप्रभ। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि गुरू मां
के आशीर्वाद और मेरे चाकू उठाने के बीच ऐसा क्या घटित हो
गया? शंका निवारण के प्रयोजन से उन्होंने गुरू मां से पूछ
ही लिया, "आपने आशीर्वाद देने से पहले मुझसे चाकू क्यों
उठवाया था?"
"तुम्हारा मन देखने के लिए।" मां शारदा ने कहा, "प्रायः जब
भी किसी व्यक्ति से चाकू मांगा जाता है तो वह चाकू की मूठ
अपनी हथेली में समो लेता है और चाकू की तेज फाल दूसरे के
समक्ष करता है। मगर तुमने ऐसा नहीं किया। तुमने चाकू की
फाल अपनी हथेली में रखी और मूठवाला सिरा मेरी तरफ बढ़ाया।
यही तो साधु का मन होता है, जो सारी आपदा को स्वयं झेलकर
भी दूसरे को सुख ही प्रदान करना चाहता है। वह भूल से भी
किसी को कष्ट नहीं देना चाहता। अगर तुम साधुमन नहीं होते
तो तुम्हारी हथेली में भी चाकू की मूठ होती, फल नहीं।" |