दादी की कहानियों के राजकुमार
की तरह एक दिन 'ऊँचमूच खाटली' ले के पड़ी थी, महादुखी।
बापूजी ने देखा। मेरा मक़सद भी शायद वही था कि बापूजी देखें
और जानें कि मैं कितनी दुखी हूँ। उन्हें मेरे दुख की गंभीरता
का अनुमान हो गया था।
'क्या बात है बेटे, आज ऐसे क्यों लेटी हो?'
'कुछ नहीं!'
'कुछ तो है। मुझे नहीं बताओगी?'
बताने की बेताबी के कारण ही
तो 'ऊँचमूच खाटली' लेकर पड़ी थी। लेकिन बिना अभिनय के बता
देती तो मेरी तकलीफ़ के बड़ेपन का अनुमान कैसे होता!
'कुछ नहीं बस यों ही।'
'यों ही तो तुम कभी ऐसे लेटती नहीं हो। बताओ बेटे, हो सकता
है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।'
'. . .'
'क्या बात है, बोलो, घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ।'
'बात तो कोई ऐसी नहीं है।'
'फिर भी।'
'हमारे स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम हो रहा है, मेरी सारी
दोस्त भाग ले रहीं है। कोई नृत्य करेगी, कोई गाएँगी, कोई
नाटक में भाग लेंगी। कितने लोग उन्हें देखेंगे। मुझे तो नाच,
गाना, अभिनय कुछ भी नहीं आता।'
'तो क्या हुआ। बस इतनी-सी बात है। नाच, गाना, नाटक तो लोग
देखते हैं, और थोड़े दिन में भूल जाते हैं। तुम तो कविता
लिखती हो, कहानी लिखती हो, और यही अधिक बड़ी चीज़ है। ये
चीज़ें सदियों तक पढ़ी जाएँगी, हमारे बाद भी पढ़ी जाएँगी।
तुम्हारे स्कूल में कितने लड़के-लड़कियाँ कविता-कहानी लिखते
हैं, बताओ?'
बापूजी की बात के ख़त्म
होने तक तो भीतर की फिजाँ बदल गई थी। स्टेज-ग्रंथी उस दिन
खुली तो फिर कभी पनपने नहीं पाई। |