बढ़ती गर्मी और
इसे रोकने के प्रयत्न
संकलित
भारत
मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने
शनिवार ३० अप्रैल को घोषणा की कि
लगातार गर्म हवाओं के कारण, उत्तर
पश्चिम और मध्य भारत में अधिकतम
तापमान पिछले १२२ वर्षों में अप्रैल
महीने में सबसे अधिक रहा। २८ अप्रैल,
२०२२ तक दर्ज किया गया तापमान (अधिकतम
और औसत) पिछले १२२ वर्षों में ३५.०५
डिग्री सेल्सियस के साथ चौथा उच्चतम
है।
ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव
इससे
पहले मार्च २०२२ देश के साथ-साथ उत्तर
पश्चिम भारत के लिये १२२ वर्षों में
सबसे गर्म था। अप्रैल २०२२ के लिये
उत्तर पश्चिम और मध्य भारत के लिये
औसत अधिकतम तापमान ३५.९० डिग्री
सेल्सियस और ३७.७८ डिग्री सेल्सियस
था। विभाग ने कहा कि मई में भी तापमान
सामान्य से ऊपर बना रहेगा। वैश्विक
तापमान का रिकॉर्ड रखने की आधुनिक
व्यवस्था वर्ष १८८० के आसपास शुरू हुई
थी; क्योंकि इसके पहले के सर्वेक्षणों
में पृथ्वी के पर्याप्त भाग का
पर्याप्त सर्वेक्षण संभव नहीं हो पाता
था। इस आधुनिक पद्धति से ही अब दुनिया
समझ पा रही है कि हम किस तरह कितनी
भीषण गरमी की चपेट में आते जा रहे हैं
और यह पृथ्वी धीरे-धीरे कैसे
ग्लोबल-वार्मिंग की गिरफ्त में फँसती
जा रही है?
ग्लोबल
वार्मिंग का भारत पर असर
ग्लोबल-वार्मिंग के कारण भारत का
तापमान भी तेजी से प्रभावित हो रहा
है। देश का वार्षिक औसत तापमान बीसवीं
सदी की तुलना में १.२ डिग्री सेल्सियस
बढ़ चुका है। पर्यावरण से जुड़ी
संस्था 'सेंटर फॉर साइंस ऐंड
एन्वायरमेंट अर्थात् सी.एस.ई.’ ने भी
वर्ष १९०१ से अभी तक के सभी वर्षों के
तापमान-अध्ययन का विश्लेषण करते हुए
पाया है कि हमारे देश में जिस तेजी से
तापमान-वृद्धि देखी जा रही है, उससे
तो यही प्रतीत होता है कि अगले दो दशक
में ही देश का तापमान १.५ डिग्री के
स्तर को पार कर जाएगा। पेरिस जलवायु
समझौते के तहत भी तापमान-वृद्धि का
यही स्तर-लक्ष्य आँका गया है। वैश्विक
तापमान की यह वृद्धि-दर न तो सामान्य
है और न ही अनुकूल। यह स्थिति
पर्यावरण प्रतिकूल तो है ही,
अर्थव्यवस्था और समाज के लिये भी
अनुकूल नहीं है।
जिम्मेदार कौन,
प्रभावित कौन, आशा कहाँ है?
देश,
दुनिया, समाज और प्राणी सभी
पर्यावरण-परिवर्तन की अनर्थकारी
प्रतिकूलताओं के दुष्चक्र का सामना
करने को अभिशप्त हो गए हैं। वास्तव
में इन पर्यावरणीय-प्रतिकूलताओं के
लिये हम, हमारी आधुनिकता और
सुविधाभोगी जीवन-शैली जिम्मेदार हैं।
इसी वजह से दुनिया की तमाम
अर्थव्यवस्थाएँ प्रभावित हो रही हैं
और हमारी सामाजिकता में भी दरारें आती
जा रही हैं। २०१५ में हुए पेरिस
जलवायु समझौते से वर्ष २०१८ में
अमेरिका के अलग हो जाने के बाद
वैश्विक तापमान में आ रहे परिवर्तनों
को नियंत्रित करना एक बड़ी व गंभीर
चुनौती के रूप में देखा जा रहा था। इन
परिस्थितियों में प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी के नार्डिक देशों के
साथ समझौते को आशावादी दृष्टि से देखा
जा रहा है।
नॉर्डिक
राष्ट्रों की प्रतिबद्धता और भारत के
समझौते
जलवायु
परिवर्तन और ऊर्जा संरक्षण को संबोधित
करने हेतु अति महत्वाकांक्षी नीतियों
को लागू करने में नॉर्डिक राष्ट्र
सबसे आगे रहे हैं। ये राष्ट्र अपनी
ऊर्जा आवश्यकताओं का ६३% भाग नवीकरणीय
ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करते हैं।
यूरोप २०२० नीति के तहत, इन राष्ट्रों
का लक्ष्य १९९० के स्तर की तुलना में
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को २०%
तक सीमित करना और अपनी ऊर्जा दक्षता
को २०% तक बढ़ाना है। भारत, ग्रीनहाउस
गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक
है, जिसने २०२२ तक अपनी स्वच्छ ऊर्जा
की हिस्सेदारी को ४०% तक बढ़ाने के
प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है।
भारत-नॉर्डिक शिखर सम्मेलन के दौरान,
प्रधानमंत्रियों ने एजेंडा २०३० को
स्थायी विकास के रूप में लागू करने
साथ ही पेरिस समझौते के महत्वाकांक्षी
कार्यान्वयन के लिये अपनी पूर्ण
प्रतिबद्धता दर्शायी।
जीवाश्म ईंधन
पर निर्भरता में कमी
जीवाश्म
ईंधन पर निर्भरता को कम करने व
नवीकरणीय ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित
करने हेतु मोदी सरकार द्वारा २०१५ में
२०२२ तक १७५ गीगा वाट के लक्ष्य की
घोषणा की गई थी। इसमें सोलर से १००
जी.डब्ल्यू., पवन से ६० गीगा वाट.,
बायोएनेर्जी से १० गीगा वाट और छोटे
हाइड्रो से ५ गीगा वाट बिजली प्राप्ति
का लक्ष्य रखा गया था। यह सतत विकास
लक्ष्यों (एस.डी.जी.) के साथ पूरा
होगा। इसके अतिरिक्त सस्ती एवं स्वच्छ
ऊर्जा, उम्दा कार्य एवं आर्थिक विकास,
उद्योग, नवाचार एवं बुनियादी ढाँचा के
साथ-साथ जलवायु परिवर्तन और अन्य
लक्ष्यों के लिये साझेदारी के लिये भी
समझौते हुए हैं।
क्लीमएडाप्ट
प्रोजेक्ट
यद्यपि
इन नये समझौतों के पहले से ही कुछ काम
आरंभ किया जा चुका था। उदाहरण के
लिये, जलवायु से संबंधित चुनौतियों का
समाधान खोजने हेतु क्लीमएडाप्ट
प्रोजेक्ट को वर्ष २०१२ में तीन
भारतीय प्रांतों - आंध्र प्रदेश,
तेलंगाना और तमिलनाडु में शुरू किया
गया था। एकीकृत परियोजना, जो
नॉर्वेजियन इंस्टीट्यूट ऑफ
बायो-इकोनॉमी रिसर्च (एन.आई.बी.आई.ओ.)
और भारतीय अनुसंधान संस्थान के बीच एक
सहयोगात्मक प्रयास है, का उद्देश्य
भारत में स्थानीय किसानों की अनुकूलन
क्षमता में सुधार करने हेतु
जलवायु-स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों
को विकसित करना है।
ऊर्जा पर
सक्रिय सहयोग
२००९ के
बाद से स्वीडन और भारत के बीच
पर्यावरण से संबंधित एक समझौता किया
गया है। समझौते के तहत, लुगदी एवं
कागज उद्योग, अपशिष्ट नीति, ई-कचरा
नीति, जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन
और अपशिष्ट से ऊर्जा, जलवायु एवं वायु
गुणवत्ता नियंत्रण, वायु एवं जल
गुणवत्ता निगरानी, आदि क्षेत्रों में
भविष्य के सहयोग पर चर्चा की जाती है।
जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा की
सुरक्षित, सस्ती और टिकाऊ आपूर्ति को
बढ़ावा देना भारत और स्वीडन की
रणनीतिक प्राथमिकताएं हैं। ऊर्जा पर
जारी सक्रिय सहयोग स्वीडन-भारत अक्षय
ऊर्जा सहयोग पर हुए समझौता ज्ञापन के
तहत है, जिसे २०१० में हस्ताक्षरित
किया गया था। सहयोग को बढ़ाने के लिये
नवीन प्रोत्साहन २०१६ में
प्रधानमंत्री स्टीफन लोफवेन की भारत
यात्रा के दौरान हुआ था, जब स्वीडन के
ऊर्जा मंत्री ने घोषणा की थी कि
स्वीडन २०१६-२०१८ से भारत में
अनुसंधान एवं पायलट परियोजनाओं के
वित्तपोषण हेतु ५ मिलियन डॉलर का
योगदान देगा।
आर्कटिक और
हिमालय
इस नीति
का एक अन्य आयाम आर्कटिक को लेकर भारत
की चिंताएँ भी हैं। क्योंकि, जलवायु
परिवर्तन के कारण आर्कटिक के बर्फ के
टुकड़े पिघल जाते हैं, यह क्षेत्र
अपने प्राकृतिक संसाधनों और प्रशांत
एवं अटलांटिक महासागरों के बीच नए
शिपिंग मार्गों के खुलने की वजह से
वैश्विक महत्व प्राप्त कर रहा है। इस
क्षेत्र में भारत का हित आर्कटिक और
हिमालय दोनों में बर्फ के आवरण एवं
ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन के
प्रतिकूल प्रभाव के कारण टिका हुआ है।
भारत आर्कटिक मुद्दों पर वैज्ञानिक
सहयोग हेतु सक्रिय रूप से नॉर्वे और
आइसलैंड के साथ द्विपक्षीय वार्ता में
शामिल रहा है।
नॉर्डिक राष्ट्रों ने भी आर्कटिक के
मामलों में भारत की बढ़ती भागीदारी को
चिह्नित किया है और वर्ष २०१३ में
आर्कटिक परिषद में स्थायी
पर्यवेक्षकों के रूप में इसकी
उम्मीदवारी का समर्थन किया है। भारत
के सभी नॉर्डिक देशों के साथ अपने
वैज्ञानिक एवं भू-राजनीतिक हितों को
देखते हुए इस क्षेत्र में अपना प्रभाव
बढ़ाने की पहल के लिये पर्याप्त
संभावनाएँ हैं। यह सभी प्रयत्न सफल
हों और प्रकृति एवं
पर्यावरण की शुद्धता बनी रहे।
इस ओर हमें व्यक्तिगत स्तर पर भी
प्रयत्न करने चाहिये तभी इसका व्यापक
लाभ सामूहिक रूप से प्राप्त होगा।
१ मई २०२२ |