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 प्रकृति और पर्यावरण
 

 रजनीगंधा के फूल
संकलित


रजनीगंधा रजनीगंधा (पोलोएंथस ट्यूबरोज लिन) एमरिलिडिएसी कुल का पौधा है। इसके फूल मुख्य रूप से सफेद रंग के होते हैं। लेकिन कभी कभी उनमें गुलाबी या बैंगनी रंग की छवि भी देखी जाती है। ये लगभग २ इंच के आकार के मंजरी के पंक्तियों में खिलते हैं। इसकी टहनी लंबी पतली और सीधी होती है। इसी टहनी पर फूल खिलते हैं। फूलों के लंबे लम्बे समय तक सुगंधित तथा ताजा बने रहने के कारण रजनीगंधा के खुले फूलों और कटे हुए फूलों का गुलदस्ते बनाने, माला बनाने, फूलदान में रखने तथा सजाने में बहुतायत में उपयोग होता है। रंजनीगंधा के पौधे ६० से १२० सें.मी. लम्बे होते हैं जिनमें ६ से ९ पत्तियाँ होती हैं। पत्तियों की लम्बाई ३०-४५ सें.मी. और चौड़ाई १.३ सें. मी. होती है। पत्तियाँ चमकीली हरी होती हैं तथा पत्तियों के नीचे लाल बिंदियाँ होती हैं। फूल एकहरे, तथा दोहरे दोनो प्रकार के होते हैं। इसके फूलों से बहुत ही अच्छा और शुद्ध किस्म का ०.०८ से ०.१३५% तेल भी प्राप्त होता है, जिसका उपयोग इत्र या कीमती परफ्यूम बनाने में किया जाता है। जब भी सुगंधित फूलों की बात होती है तो रजनीगंधा को भूला नहीं जा सकता है। इसके फूलों में सुगंध का पारावार है। शाम होते ही इनकी खुशबू बगीचे में फैल जाती है और धीरे धीरे पूरा घर महकने लगता है।

रजनीगंधा का इतिहास

ऐसा माना जाता है कि रजनीगंधा मूल रूप से मैक्सिको देश का फूल है। अनेक देशों की यात्रा करते हुए यह सोलहवी शताब्दी में यूरोप के रास्ते भारत पहुँचा। जब स्पैनिश योद्धाओं ने नई दुनिया पर पैर रखे तब उन्होंने पाया कि एज़्टेक, मायांस और अन्य मैक्सिकन देश पहले से ही इस पौधे को उगा रहे थे। वे इसे अपने साथ यूरोप लाए और इंग्लैंड के विक्टोरियन युग में रजनीगंधा के फूल विशेष रूप से अंत्येष्टि और विवाह उत्सवों की सजावट के अत्यधिक पसंद किये जाने लगे। इसका कारण यह भी हो सकता है कि रजनीगंधा के फूल लगभग १५ दिनों तक ताजे बने रहते हैं।

वनस्पति विज्ञान में पहली बार रजनीगंधा १७७३ में कार्ल लिनिअस द्वारा पोलियन्थेस ट्यूबरोसा के नाम से अंकित किया गया जबकि १७५३ में इसे फ्रेडरिक कासिमिर द्वारा ट्यूबरोसा एमिका के रूप में वर्णित किया गया था। बाद में इन दोनो प्रजातियों को एक ही माना गया। १७वीं शताब्दी में, रजनीगंधा के फूलों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था और इत्र के उपयोग और निर्माण के लिए आसुत किया जाता था। फ्रांसीसी रानी मैरी एंटोनेट ने पहली बार इसकी सुगंध को पहचाना और इसे सिलेज डे ला रेइन और परफम डी ट्रायोन नाम से इस्तेमाल किया। यह इत्र रजनीगंधा, चमेली, चंदन, देवदार, नरगिस, और ऑरेंज ब्लूम नामक एक फूल का संयोजन था। बाद में अंग्रेज इसे भारत में लाए और भारत की सुगंध संस्कृति में इन्हें पनपने का अच्छा अवसर मिला। भारत में भी सैकड़ों वर्षों से, रजनीगंधा का उपयोग करके इत्र बनाया जाता रहा है। आज, भी इनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है।


उपज और प्रजातियाँ

भारत में रजनीगंधा की व्यापक रूप से खेती की जाती है। भारतीय जलवायु में अच्छी वृद्धि के कारण पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, इत्यादि स्थानो में इसे सफलतापूर्वक उगाया जाता है। भारत में इसकी १२ से भी अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से कुछ दोहरी किस्म की होती हैं और कुछ इकहरी। इकहरी किस्म में पंखुड़ियाँ एक ही कतार में होती हैं, जबकि दोहरी किस्म में पंखुड़ियाँ ३ से ५ कतारों में होती हैं। इसकी इकहरी प्रजातियों में कोलकाता सिंगल और प्रज्वल बहुत लोकप्रिय हैं। जबकि दोहरी किस्मों में कोलकाता डबल, रजत रेखा, स्वर्ण रेखा, पर्ल डबल आदि प्रमुख हैं।

कोलकाता सिंगल सफेद फूलों की एक प्रजाति है जिसकी प्रत्येक डंडी ६० से.मी. लम्बी होती है और लगभग ४० फूल देती है| प्रज्वल नामक प्रजाति इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ हॉर्टिकल्चरल रीसर्च, बैंगलोर द्वारा तैयार की गई है। यह किस्म मैक्सिकन सिंगल और शृंगार नामक दो प्रजातियों के मेल से तैयार की गई है। इसके फूल की कलियाँ हल्के गुलाबी रंग की होती हैं जिसमें से सफेद रंग के फूल खिलते हैं। ये दोनो प्रजातियाँ मुख्य तौर पर खुले और गुलदस्ते वाले फूलों के लिए उपयुक्त है।

फूलों की दोहरी पंखुड़ियों वाली प्रजाति में रजत रेखा, पर्ल डबल और वैभव काफी लोकप्रिय हैं। रजत रेखा को नेशनल बोटैनिकल रीसर्च इंस्टिट्यूट लखनऊ द्वारा तैयार किया गया है। इसके फूलों पर चाँदी जैसी और सफेद रंग की धारियाँ होती है और इसकी पत्तियाँ सुरमई रंग की होती हैं। पर्ल डबल का यह नाम इसके गुलाबी रंग के फूलों के कारण पड़ा, जो मोतियों की तरह होते हैं। इसका प्रयोग मुख्य रूप से गुलदस्ते के फूलों, खुले फूलों और तेल की प्राप्ति के लिये किया जाता है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ हॉर्टिकल्चरल रीसर्च, बैंगलोर द्वारा तैयार की गई वैभव नामक प्रजाति को मैक्सिकन सिंगल और आईएचआर२ के मेल से तैयार किया गया है। इसमें कलियाँ हल्के हरे रंग की होती हैं जबकि फूल सफेद रंग के होते हैं| इसका प्रयोग कट फ्लावर के उदेश्य के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त भी रजनीगंधा की बहुत सी सुंदर और लोकप्रिय प्रजातियाँ हैं जिनकी खेती भारत में की जाती है।

रजनीगंधा की बागबानी

भारत में रजनीगंधा को मैदानी भागों में फरवरी-मार्च तथा पहाड़ी क्षेत्रों में अप्रैल-मई में लगाया जता है। मार्च-जून में लगाए गए पौधे में लम्बे और अच्छे फूल खिलते हैं। रजनीगंधा २० डिग्री सेल्सियस से नीचे तथा ३० डिग्री सेल्सियस से ऊपर का तापमान नहीं सह सकता इसलिए इसे अधिक सर्दी या अधिक गर्मी में न उगाएँ। अगर बहुत ज्यादा बारिश वाली जगह पर रहते हैं तो इसे लगाने का सबसे अच्छा समय मार्च-अप्रैल होगा अगर आपके इलाके में ज्यादा बारिश नहीं होती तो जून-जुलाई तक भी ये लगाया जा सकता है, पर सबसे अच्छे परिणाम मार्च-अप्रैल में ही पाए जाते हैं। भारत में कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ रजनीगंधा बारहों महीने खिलता है- बैंगलोर, मैसूर और देहरादून इनमें प्रमुख हैं।

इस पौधे को लगाने के लिए पानी के अच्छे निकास वाली पौष्टिक मिट्टी चाहिए। सामान्य बगीचे की ६०% मिट्टी है में कोकोपीट, कम्पोस्ट और रेत मिलाकर मिट्टी को इनके लिये पौष्टिक बनाया जा सकता है। रजनीगंधा की गाँठें इस प्रकार तैयार मिट्टी में लगभग ३-४ सेंटीमीटर का गड्ढा करके लगाएँ और एक साथ आप दो-तीन गाँठें भी लगा सकते हैं। इन्हें ६ इंट की दूरी पर लगाएँ बढ़ने के लिए स्थान की कमी न हो और पौष्टिकता की कमी भी न हो। इसे लगाने के बाद आप क्यारी में पानी डालें और मिट्टी को बैठ जाने दें। एक बार ठीक से पानी डालने के बाद इसमें एक दो दिन तक पानी नहीं डालना चाहिये ताकि गाँठें ठीक से स्थिर हो जाएँ।

रजनीगंधा में एक दिन छोड़कर एक दिन पानी देना ठीक रहता है। लेकिन यह सब उस जलवायु पर निर्भर करता है जहाँ इसे उगाया जा रहा है। हर फूलों वाले पौधे की तरह ज्यादा पोटेशियम वाली कोई भी खाद इसे स्वस्थ रखेगी और खूब फूल देगी। रजनीगंधा को गमले में भी उगाया जा सकता है लेकिन इस का पौधा ऐसी जगह पर रखें जहाँ कम से कम ४-५ घंटे की धूप पड़ती हो।

रजनीगंधा के उपयोग

  • रजनीगंधा के पुष्पों का उपयोग सुंदर मालायें, गुलदस्ते बनाने में किया जाता है। इसकी लम्बी पुष्प डंडियों को सजावट के रूप में काफी प्रयोग किया जाता है।
  • रजनीगंधा के फूलों से सुगन्धित तेल भी तैयार किया जाता है जिसे उच्च स्तर के सुगन्धित इत्र एवं प्रसाधन सामग्री में उपयोग किया जाता है।
  • रजनीगंधा के सुगंधित फूलों को चॉकलेट से निर्मित पेय पदार्थों में शक्तिवर्धक अथवा शान्तिवर्धक औषधियों के साथ मिलाकर गर्म अथवा ठण्डा पीया जाता है।
  • इसके कन्दों में लाइकोरिन नामक एल्कलायड होता है जिसको प्रयोग कराने से उल्टी हो जाती है।
  • कन्दों को हल्दी तथा मक्खन के साथ पीसकर पेस्ट तैयार कर कील-मुहासों को दूर करने में इसका उपयोग किया जाता है।
  • कन्दों को सुखाकर पाउडर बनाकर इसका प्रयोग गोनोरिया को दूर करने में किया जाता है।
  • जावा में इसके फूलों को सब्जियों के जूस में मिलाकर खाया जाता है।
  • भारत में रजनीगंधा का प्रयोग तम्बाकू और पानमसाले में भी किया जाता है।

१ सितंबर २०२१

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