भारत का प्रमुख पेड़
शीशम
मुकेश
कुमार पारीक
परिचय -
शीशम भारत का एक बहुपयोगी वृक्ष है।
इसकी लकड़ी, पत्तियाँ, जड़ें सभी काम
में आती हैं। इस की लकड़ी फर्नीचर एवं
इमारती लकड़ी के लिये बहुत उपयुक्त
होती है। पत्तियाँ पशुओं के लिए
प्रोटीनयुक्त चारा होती हैं। जड़ें
भूमि को अधिक उपजाऊ बनाती हैं।
पत्तियाँ व शाखाएँ वर्षा-जल की बूँदों
को धीरे-धीरे ज़मीन पर गिराकर भू-जल
भंडार बढ़ाती हैं। सारे भारत में शीशम
के लगाये हुये अथवा स्वयंजात पेड़
मिलते हैं। इस पेड़ की लकड़ी और बीजों
से एक तेल मिलता है जो औषधियों में
इस्तेमाल किया जाताहै। शीशम के तने
में तेल पाया जाता है और फलियों में
टैनिन और बीजों में भी एक स्थिर तेल
पाया जाता है।
शीशम का स्वरूप-
शीशम के पेड़ १०० फुट तक ऊंचे होते
हैं। इसकी छाल मोटी, भूरे रंग की तथा
लम्बाई के रूख में कुछ विदीर्ण होती
है। शीशम की नई टहनियाँ कोमल एवं अवनत
होती है। शीशम के पत्ते एक टहनी पर
एक-एक की संख्या में ३ से ५ तक होते
हैं। ये १ से ३ इंच लम्बे, रूपरेखा
में चौड़े लट्वाकर होते हैं। शीशम के
फूल पीताभ-सफेद, फली लम्बी, चपटी तथा
२ से ४ बीज युक्त होती है। शीशम का
सारकाष्ठ पीताभ भूरे रंग का होता है।
इसकी एक दूसरी प्रजाति का सारकाष्ठ
कृष्णाभ भूरे रंग का होता है। शीशम के
१०-१२ वर्ष के पेड़ के तने की गोलाई
७०-७५ व २५-३० वर्ष के पेड़ के तने की
गोलाई १३५ सेमीतक हो जाती है। इसके एक
घनफीट लकड़ी का वजन २२.५ से २४.५
किलोग्राम तक होता है। आसाम से
प्राप्त लकड़ी कुछ हल्की १९-२०
किलोग्राम प्रति घनफुट वजन की होती
है।
शीशम का कुल एवं पारिस्थितिकी-
बहुमूल्य शीशम पुष्पीय पौधों के
फैबेसी (Fabaceae) कुल का सदस्य है।
शीशम का वैज्ञानिक नाम डेलबर्जिया
शीशू (Dalbergia sissoo) हैं, इसका
देसी नाम शीशम है। यह एक विशाल
पर्णपाती (पतझर के मौसम से प्रभावित
होने वाला) वृक्ष होता है, जिसकी
ऊँचाई ३० मी० तक होती है। इसके तने की
गोलाई २.४ मी० तक की होती है। शीशम
वृक्ष के छाल का रंग भूरा होता है
जिसकी मोटाई १.०-१.५ सेमी० होती है।
पत्तियाँ संयुक्त प्रकार की होती है
और एक पत्ती में ३ से ५ छोटी पत्तियाँ
होती है। नई पत्तियाँ फरवरी में तथा
पुष्प (हल्के पीले श्वेत गुच्छों में)
मार्च एवं मई महीने के बीच प्रकट होते
हैं। फल ठण्डे मौसम में पकते हैं और
बहुत लम्बे समय तक वृक्ष से लगे रहते
हैं। बीज का रंग भूरा होता है।
शीशम का आर्थिक महत्व-
पारम्परिक रुप से शीशम सिन्धु-गंगा के
मैदानी क्षेत्रों में वन विभाग का
पसन्दीदा वृक्ष रहा है। इसलिए उत्तर
भारत के जलोढ़ मैदानों में इसका रोपण
सड़कों, नहरों तथा रेल पटरियों के
किनारे आम बात रही है। शीशम अत्यन्त
ही आर्थिक महत्व का वृक्ष है। इसकी
भीतरी लकड़ी भूरे रंग की, सख्त, मजबूत
तथा टिकाऊ होती है। शीशम के
केन्द्रीयकाष्ठ का वर्गीकरण भारत के
चार प्राथमिक काष्ठों में किया गया
है। अन्य प्रमुख काष्ठ हैं सागौन,
साखू, तथा देवदार। मजबूती, लचीलेपन
तथा टिकाऊपन के कारण ही शीशम की लकड़ी
का उपयोग निर्माण कार्यों में वृहद
पैमाने पर होता है। लकड़ी का प्रयोग
साज-सामग्री, इमारत, कृषि उपकरण के
निर्माण आदि में होता है। इसके
अतिरिक्त शीशम की लकड़ी का उपयोग रेलवे
शयन-यान, वाद्य यन्त्रों, चारपाई के
पायों, जूतों की एड़ी, हथौड़े की बेंट
तथा तम्बाकू की नली के निर्माण में भी
होता है।
शीशम
की पत्तियों को भेड़, बकरियाँ तथा ऊँट
हेतु चारे के रुप में इस्तेमाल किया
जाता है। सूखी लकड़ी तथा पत्तियाँ ईंधन
के रूप में भी इस्तेमाल होती हैं।
शीशम की लकड़ी अच्छे ईंधन के रुप में
स्थापित है। शीशम के लकड़ी की बाहरी
परत की उष्मांक मूल्य ४९०० किलो
कैलोरी प्रति किलोग्राम होती है जबकि
केन्द्रीय काष्ठकी उष्मांक मूल्य ५२००
किलो कैलोरी प्रति किलोग्राम होती है।
शीशम की लकड़ी कोयला बनाने के लिये भी
उपयुक्त होती है। शीशम की दातून भी
बहुत अच्छी समझी जाती है। इसका प्रयोग
भारत के साथ साथ पाकिस्तान, अफ्रीका,
मध्यपूर्व के देशों में सदियों से
होता रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप के
गाँवों में आज भी लोग नीम के साथ शीशम
की दातून से अपना दिन शुरू करते हैं।
दाँतों को साफ करने के बाद इसे लंबाई
में बीच से चीर दिया जाता है और तब यह
जीभ साफ करने के काम आती है।
चमत्कारी खोज-
इमारती लकड़ी के लिए मशहूर शीशम अब
टूटी हुई हड्डी को सबसे तेज जोडऩे
वाला पौधा भी बन गया है। केंद्रीय
औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआइ) के
वैज्ञानिकों ने शीशम में हड्डी को
जोडऩे वाले महत्वपूर्ण गुण की तलाश की
है। अमूमन फ्रैक्चर होने पर हड्डी
जुडऩे में तीन सप्ताह का समय लगता है,
लेकिन इस औषधि के इस्तेमाल से आधे समय
में हड्डी जुड़ जाती हैं। संस्थान ने
इसका लाइसेंस गुजरात की एक कंपनी की
सौंप दिया है और उम्मीद जताई जा रही
है कि जल्दी ही यह औषधि बाजार में
उपलब्ध हो जाएगी। इंडोक्राइन विभाग की
डॉ. रितु त्रिवेदी बताती हैं कि खास
बात यह है कि जिस फ्रेक्शन को 'रैपिड
फ्रैक्चर हीलिंग एजेंट' के रूप में
प्रयोग किया गया है उसे शीशम की
पत्तियों से प्राप्त किया गया है।
चूँकि पत्तियाँ ऐसा स्रोत हैं, जो
सीमित नहीं है इसलिए इसके निर्माण के
लिए जरूरी कच्चे माल की कोई कमी नहीं
होगी। इस विषय मे शोध करने वालों में
मेडिसिनल केमिस्ट्री के डॉ.राकेश
मौर्या के साथ विक्रम खेदगीकर,
प्रियंका कुशवाहा, प्रीती दीक्षित व
पदम कुमार भी शामिल थे।
आयुर्वेद के अनुसार-
शीशम, कड़वा, गर्म, तीखा, सूजन, वीर्य
में गर्मी पैदा करने वाला, गर्भपात
कराने वाला, कोढ़ (कुष्ठरोग), सफेद
दाग, उल्टी, पेट के कीड़े को खत्म
करने वाला, बस्ति रोग, हिक्का
(हिचकी), शोथ (सूजन), विसर्प,
फोड़े-फुन्सियों, ख़ून की गंदगी को
दूर करने वाला तथा कफ (बलगम) को नष्ट
करने वाला है। शीशम सार स्नेहन,
कषैला, दुष्ट व्रणों का शोधन करने
वाला को खत्म करने वाला होता है।
शीशम, अर्जुन, ताड़ चंदन सारादिगण,
कुष्ठ रोग को नष्ट करता है, बवासीर,
प्रमेह और पीलिया रोग को खत्म करता है
और मेद के शोधक है। शीशम, पलाश,
त्रिफला, चित्रक यह सब मेदा नाशक तथा
शुक्र दोष को नष्ट करने वाला है एवं
शर्करा को दूर करने वाला है।
त्वचा
रोगों में शीशम का तेल उपयोगी माना
गया है। कुष्ठ रोग में शीशम कि लकड़ी
के सत्व से स्नान करने से प्रयाप्त
लाभ की प्राप्ति होती है। सर्दी जुकाम
की स्थिति में शीशम के ८-१० पत्तों को
एक गिलास जल में उबालकर जल में उबालकर
पीने से लाभ होता है। प्रमेह रोगों
में शीशम की छाल का काढ़ा पीने से लाभ
होता है। मासिक धर्म और धातु से
संबंधित समस्याओं में भी शीशम की
पत्तियों का प्रयोग होता है। उल्टी
में शीशम की छाल का जल में बनाया हुआ
काढ़ा लाभ करता है। शीशम के बीजों का
तेल और घासलेट मिलाकर उससे मालिश करने
से जोड़ों के दर्द में बहुत लाभ होता
है।
कहाँ और
कैसे रोपे जाते हैं-
शीशम के बीज दिसंबर-जनवरी माह में
पेड़ों से प्राप्त होते हैं। एक पेड़
से एक से दो किलो बीज मिल जाते हैं।
बीजों से नर्सरी में पौधे तैयार होते
हैं। बीजों को दो तीन दिन पानी में
भिगोने के बाद बोने से अंकुरण जल्दी
होता है। इसलिए इन्हें १० सेमी की
दूरी पर कतार में १-३ सेमी के अंतर से
व १ सेमी की गहराई में बोया जाता है।
नर्सरी में बीज लगाने का उपयुक्त समय
फरवरी-मार्च है। पौधों की लंबाई १०-१५
सेमी होने पर इन्हें सिंचित क्षेत्र
में अप्रैल-मई व असिंचित क्षेत्र में
जून-जुलाई में रोपा जाता है। रोपों को
प्रारंभिक दौर में पर्याप्त नमी मिलना
जरूरी है।
शीशम
के पेड़ सड़क-रेल मार्ग के दोनों ओर,
खेतों की मेड़, स्कूल व पंचायत भवन
परिसर, कारखानों के मैदान तथा कॉलोनी
के उद्यान में लगा सकते हैं। शीशम के
पौधे रोपने के लिए पहले से ही १ फीट
गोलाई व १ फुट गहरा गड्ढा खोदकर
उसमें पौध मिश्रण भर दिया जाता है।
पेड़ों के बीच कितनी दूरी रखी जाए, यह
इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ की
मिट्टी कैसी है व इन्हें किस स्थान पर
लगाना है। हल्की मिट्टी में बढ़वार कम
होती है। इसी प्रकार जहाँ सिर्फ शीशम
की खेती करना हो, वहाँ ढाई से तीन
मीटर की गहराई में लगाया जाता है।
भारी मिट्टी वाले उपजाऊ खेतों की मेड़
पर इन्हें कम से कम पाँच मीटर की दूरी
पर लगाया जाता है। शीशम के बाह्य
काष्ठ का रंग हल्का बादामी या भूरा
सफेद होता है। लकड़ी के इस भाग में
कीड़े लगने की आशंका रहती है। इसलिए
इसे नीला थोथा, जिंक क्लोराइड या अन्य
कीट रक्षक रसायनों से उपचारित करना
जरूरी है।
१ मई २०१९ |