लोकजीवन में ऋतुगीत
छोटेलाल बहरदार
ऋतुगीत किसी धार्मिक अनुष्ठान या संस्कारादि अवसर पर नहीं गाए
जाते और न इनका संबंध सीधे तौर पर किसी व्यवसाय से रहता है। ये
गीत तो मनुष्य के अंदर उठनेवाली भाव-तरंगों की स्वत:स्फूर्त
अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति वर्ष में कई बार अपना रूप बदलती है और
उसके बदले रूप का प्रभाव मनुष्य के तन और मन पर पड़ता है। कभी
उसे गरमी की उष्ण हवा में झुलसती देह के कारण निर्वेद याद आता
है तो कभी वर्षा की फुहारों के बीच प्रेमिका या प्रेमी की याद
आती है। प्रकृति मनुष्य के मन पर कितना प्रभाव डालती है, इसका
वर्णन करते हुए डॉ. विद्या चौहान ने लिखा है—‘‘सूर्य की हरी
किरणें उसमें भावना के फूल खिलाती हैं। चंद्रमा का सुधा-सिक्त
प्रकाश उसमें कल्पनाओं का माधुर्य बिखेरता है और समीर के चंचल
झकोरे उसमें नवीन कामनाओं की तरंगें उत्पन्न करते हैं। पावस का
मेघाच्छादित आकाश जब नन्हीं-नन्हीं बूँदों से पृथ्वी का अंचल
भर देता है और मधुमास का उमड़ता हुआ सौरभ जब संपूर्ण वायुमंडल
में मादकता बिखेर देता है, तब लोककंठ पर अंतर्गत की भावनाएँ
मधुर गीतों के स्वर बनकर लहरा उठती हैं। ग्रीष्म के प्रचंड ताप
से संतप्त प्राणी समुदाय में जब आकुलता का संचार होता है और
शिशिर की शीतल प्राणों को प्रकंपित कर देनेवाली वायु जब
संपूर्ण वातावरण में जड़ता का विस्तार कर देती है, उस समय भी
लोकगीतों का गायक अपनी स्वर माधुरी में डूबा रहता है।’’
तात्पर्य यह कि हर मौसम, हर ऋतु मानव को अपने ढँग से प्रभावित
करती है, उसके अंदर की भावनाओं को उद्दीप्त करती है, जिससे
उसके कंठ से स्वाभाविक गीत फूट पड़ता है। इसलिए ऐसे गीत किसी
खास अवसर के लिए नहीं रचे जाते। ये तो प्रकृति के साहचर्य में
मानव-मन के अंदर स्वयं प्रस्फुटित होते रहे हैं और स्वर-लहरी
बनकर हवा में तैरते रहे हैं। लोकगीतों का जन्म गाँवों में होता
है। अनपढ़-गँवार समझे जानेवाले आम लोगों के द्वारा होता है।
जैसा कि हम जानते हैं, प्रकृति का सौंदर्य अब भी कहीं सुरक्षित
है तो गाँवों में ही है। वहीं तरह-तरह के वृक्ष, जंगल,
रंग-बिरंगे पशु-पक्षी तथा बहते हुए नदी-झरने मिलते हैं। ऋतुओं
का बदलता रूप भी वहीं स्वाभाविक परिवेश में दिखाई पड़ता है।
इसलिए यदि प्रकृति की क्रीड़ा-स्थली ग्रामों में इससे संबद्ध
लोकगीतों का जन्म हुआ हो और प्रयुक्त होता हो तो इसमें कोई
आश्चर्य नहीं।
ऋतु लोकगीत भारत के प्रत्येक राज्य में किसी-न-किसी रूप में
प्रचलित है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के शब्दों में, ‘‘विभिन्न
ऋतुओं में जन-मन के अनुरंजन के लिए गीतों के गाने की प्रथा
बहुत दिनों से चली आ रही है। भारत के प्रत्येक राज्य में
विभिन्न ऋतुओं में गीत-गायन की परंपरा प्रचलित है।’’ ऋतु के
अनुसार न केवल गीत के कथ्य बदलते हैं, बल्कि उनके शिल्प में भी
परिवर्तन आता है। विविध ऋतुओं में भिन्न-भिन्न तरह के गीत गाए
जाते हैं। इनमें तदनुरूप भाव-परिवर्तन भी पाया जाता है। यथा
वसंत में होली और चैती गीत गाए जाते हैं और वर्षा में बरसाती
और ‘कजरी’। भारत में छह ऋतुओं का आगमन होता है—ग्रीष्म, वर्षा,
शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत। इनमें से अधिक प्रभाव ग्रीष्म,
वर्षा और वसंत का होता है। इसलिए अधिकांश लोकगीत इन्हीं तीन
ऋतुओं से संबद्ध हैं, यद्यपि शेष तीन ऋतुओं का वर्णन भी
कहीं-कहीं मिलता है। इन गीतों में स्त्री-पुरुषों की विभिन्न
बाह्य एवं आंतरिक स्थितियों का निरूपण होता है। उनमें एक ओर मन
की अनेक रागानुरागयुक्त भावनाएँ मुखरित होती हैं तो दूसरी ओर
जीवन की सामान्य क्रियाओं का समावेश भी लक्षित होता है।
ऋतु गीतों में मुख्यतया व्यक्ति-मन की संवेदना एवं भावना को
अभिव्यक्ति मिली है, लेकिन इस अभिव्यक्ति में परिवार और समाज
का भी सहारा लिया गया है। ननद, देवर आदि पारिवारिक इकाई हैं,
जिनको संबोधित या जिनकी चर्चा कर नारी अपने मन की गाँठ खोलती
रही है। पति तो मुख्य आलंबन है, जिनके साहचर्य या वियोग के
सुख-दु:ख को विस्तार से वर्णन मिला है। जहाँ तक समाज की बात
है, यहाँ समाज का प्रतिनिधित्व सखियाँ करती हैं। कभी-कभी तो
अनेक सखियाँ मिलबैठकर अपने-अपने मन के भावों को प्रकट भी करती
हैं। ऋतु गीतों में मुख्यतया नारी-मन में उठनेवाली भाव-लहरियों
का ही विस्तृत वर्णन है, पुरुष-मन का बहुत कम। बदलती ऋतुओं के
साथ नारी का मन भी उद्वेलित होता है और वह अपने पिया से मिलने
के लिए आकुल-व्याकुल हो जाती है, परंतु पिया हैं, जो परदेश में
बैठे हैं, पत्नी की सुधि भी नहीं लेते। यहाँ तक कि पत्र या कोई
संदेश भी नहीं भेजते।
ऐसे में घर में अकेली बैठी नारी विरह की ज्वाला में जलती है और
उपेक्षा के आँसू के घूँट पीती है— आहे सावन सुखद हेरी सखी री
वर्षा की बहार का संग खेली कजरी, पिय बिन आए हमार। इसी भाव को
नारी दूसरे गीत में भी अभिव्यक्त करती है— कासे न कहा जात,
निंदिया न आवे रात, विरहा सतावै गात, श्याम न घरबा आज। ऐसे में
सिवाय प्रियतम की प्रतीक्षा के उपाय क्या है— विरहिनी वाट जोहत
प्रियतम के, जैसे चंद्र चकोर। वर्षा की ऋतु, गरजते बादल, चमकती
बिजली, गाते पपीहा, सब पिया के बिना फीके लगते हैं, बल्कि ये
सारे मन को जलाते हैं— कामिनी काम विरह व्याकुल वश, गिरे पछोड़
खाय। इस वर्षा में कहीं-कहीं नायक-नायिका की छेड़छाड़ का भी
वर्णन हुआ है, लेकिन कृष्ण-राधा को प्रतीक मानकर— जल भरने को
जब-जब जाए, रोकत बीच डगरिया हो। और कहीं दोनों के बीच चल रही
प्रेम-क्रीड़ा का भी अच्छा वर्णन हुआ है— झूले कृष्ण प्रेमिका
संग मृदु मुसकाय, शशि शरमाय, बहत प्रेम के गंग, कदम छाँह, धरत
बांह, उठत मृदुल उमंग।
सावन के महीने में जब रिमझिम वर्षा होती है तो नारियाँ झूला
झूलती हैं। इसी प्रसंग में एक बड़ा अच्छा मनभावन पारिवारिक
चित्र वर्णित हुआ है— झूला लगले कदम की डरिया, भौजी चलहूँ झूले
ना। पिया बसे परदेश ननदो, झूला भावे ना। ननद भाभी से कहती है
कि हे भाभी, कदम के पेड़ में झूला लग गया है, चलो झूला जाए!
भाभी कहती है कि हे ननद! मेरे पिया तो परदेश में बसे हुए हैं,
ऐसे में मुझे झूला जरा भी नहीं सुहाता। इन पंक्तियों में
ननद-भाभी के बीच का प्रेम एवं सौहार्द तो है ही, पति के प्रति
अटूट लगाव भी वर्णित है। कहना व्यर्थ है कि यही पारिवारिक
प्रेम एवं सौहार्द किसी परिवार को परिवार बनाता है। होली के
गीतों में व्यक्ति, परिवार एवं समाज, तीनों का अच्छा चित्रण
हुआ है। श्रीकृष्ण यमुना-तट पर होली खेल रहे हैं। उसी समय— सब
सखियन मिलि यमुना नहाए, चीर चुराय लियो हमरी। इसके बाद सभी
सखियाँ उनसे चीर वापस देने की प्रार्थना करती हैं। नर-नारी के
बीच का प्रेम होली में पूरी तरह व्यक्त हो जाता है। यह ऐसा
अवसर है, जब एक-दूसरे पर रंग-अबीर डालकर वे अपने प्रेम को
अभिव्यक्त करते हैं— कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी, राधा के हाथ
अबीर की झोरी और इसके बाद—
भर पिचकारी बदन पे मारे, चोली हो गए रंग। कभी-कभी प्रेम में यह
शिकायत भी कितनी मनोरम लगती है— अँखिया में डाले अबीर, बेदरदा
दरदो न जाने। रंग गुलाल के मारत हैं, थर-थर काँपे शरीर। कित
बरजौं, बरजौं नहिं मानत, आखिर जात अहीर। और कभी पानी भरने जाती
है तो मोहन छेड़छाड़ करता है, इसकी भी वह शिकायत करती है— कैसे
पनियाँ भरन हम जाएँ, मोहन मारे रोरी। होली-गीतों में
व्यक्ति-व्यक्ति का प्रेम, परिवार के सदस्यों के बीच सौहार्द
तथा समाज के हर व्यक्ति के प्रति कल्याण का भाव वर्णित हुआ है।
होली खेलना शुभ है और इससे सबका कल्याण होता है— सदा आनंद रहे
यही द्वारे, मोहन खेले होरी हो। जिस द्वार पर मोहन ने होली
खेली, वहाँ सदा आनंद का वास हो। सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे
सन्तु निरामया’ जैसा उदार भाव इन गीतों में वर्णित है।
एक लोकगीत में पिया के न आने से नारी दु:खी तो है ही, देवर के
नहीं रहने से भी दु:खी है। होली जैसा उत्सव और दोनों नदारद—
पियवा नहिं आवै देवरवो नहि आवै, करू हम कौन उपाय। ऐसे में उसे
स्वाभाविक चिंता है— के यौ देती चोलिया मोर रंगाय। चैती गीतों
में वसंतागमन के कारण नारी के अंदर पिया-मिलन की आकांक्षा जग
जाती है— जाइबे में पिया के नगरिया हो रामा चैत जे मासे।
क्योंकि वन-उपवन बाग आयल बहार, अंग-अंग उठल हिलोर हो रामा।
इसलिए इन गीतों में पिया-मिलन का सुख भी वर्णित है—आधी रात में
कूककर कोयल ने सोए पिया को जगा दिया है— अंग-अंग अँगड़ाई लेके,
पिया मोर उठल, लागि गेल चान के गहनवाँ हो रामा। पारिवारिक
संदर्भ में इन गीतों में कहीं-कहीं देवर का वर्णन हुआ है— देवर
हाथ हम डरिया लिबेबै, अपनहिं हाथे तोड़बै टिकोलवा हो रामा।
कहीं पिया के न रहने का दु:ख और उनके आने की संभावना की खुशी,
दोनों की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है— चैत मास जोवना फुलायल हो
रामा कि पिया नहिं आयल। बाईं आँख मोरा फरके हे ननदी, पिया आजु
अयताह। मन की खुशी किसके साथ बाँटे? घर में ननद ही ऐसी है,
जिसे वह मन की बात कह सकती है।
वस्तुत: अधिकांश चैती गीतों में नारी के पिया-मिलन की इच्छा के
कारण और पिया के परदेश में होने के कारण उत्पन्न छटपटाहट का
दिसंबर ही विशद, स्पष्ट और मर्मस्पर्शी चित्रण है— आयल चैत
उतपतिया हो रामा, नइ भेजे पतिया। कल न पडय़ अब रतिया हो रामा,
नइ भेजे पतिया। बारहमासा गीतों में भी नारी-मन में उठनेवाले
भावों का ही वर्णन हुआ है। इसमें सामाजिकता अधिक है, क्योंकि
कई सहेलियाँ एक साथ मिल-बैठकर मन के भावों को अभिव्यक्त करती
हैं। इन गीतों में कहींकहीं सामाजिक कुरीतियों का भी बड़ा
अच्छा चित्रण हुआ है, जिनमें बाल-विवाह तथा बेमेल विवाह मुख्य
हैं। एक सखी अपनी स्थिति बताती है— हाल ही दश में बरिसवा भईले
विवहवा सोरेह जवान हमार हो। हाल ही में उसका विवाह हुआ है,
जबकि वह दस वर्ष की और पति सोलह का है। एक दूसरी सखी अपनी छोटी
उम्र की चर्चा करते हुए पति से आग्रह करती है— अबहि उमरिया
मोरी बड़ी छोटवा, नाहीं लगे भेदिया अनार है। एक अन्य सखी अपना
दुखड़ा रोती हुई कहती है कि मेरा विवाह भी छोटी उम्र में ही
हुआ था। जब मैं कच्ची उम्र की थी, तब तो उन्होंने झटपट गवना
करवा लिया और जब मैं युवती हुई हूँ तो उन्होंने मुझे भुला दिया
है— जब हम रहली रामा काँचे उमरिया के, गँवना करावे तत्काल हे!
भूलि जब मीरा भईल रामा नवरस जवनियाँ, मुईल सुधिया हमार हे! इस
तरह के अधिकांश गीतों में विवाह के बाद पिया के परदेश में रह
जाने, चिट्ठी या संदेश न भेजने के दु:ख का विशद वर्णन हुआ है।
१ अप्रैल २०१८ |