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 प्रकृति और पर्यावरण

 

शिरीष का वृक्ष और उसके गुण
- डॉ क्षिप्रा शिल्पी


सुदृढ़, आकर्षक, अनुकूलनीय एवं हरफनमौला गुणों से युक्त शिरीष का वृक्ष, वासंती गुनगुनाहट की पहली पदचाप के साथ ही धरती के आँचल को, अपने कोमल, कमनीय, केसर के सामान भीनी भीनी सुगंध से सिक्त पीले, लाल एवं श्वेत पुष्पों के मोहक सौंदर्य से आच्छादित कर देता है।

शिरीष तीव्र गति से बढ़ने वाला एक पर्णपाती वृक्ष है। इसके तीन प्रकार पाए जाते हैं। शिरीष काला (लाल), शिरीष पीला एवं शिरीष सफ़ेद। शिरीष मध्यम आकार का सघन छायादार पेड़ है, जो सम्पूर्ण भारत के गर्म प्रदेशों में एवं पहाड़ी क्षेत्रों में ८ हज़ार फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इनकी प्रमुख विशेषता सहजता से इनका पुष्पित-पल्लवित होना है।


तना और टहनियाँ-

इसकी टहनियाँ चारों ओर फैली रहती हैं जो इसके आकार को समुचित सघनता प्रदान करती हैं। शिरीष के वृक्ष का तना भूरे रंग का कटा फटा होता है, इसके अंदर की छाल लाल, कड़ी, खुरदरी और मध्य में सफेद होती है जिसमें सैपोनिन, टैनिन एवं रालीय तत्व पाये जाते हैं। इसलिए इसकी छाल से उत्पन्न होने वाले लाल एवं भूरे रंग के चिपचिपे पदार्थ को अरबी गोंद के स्थान पर प्रयुक्त किया जाता है। लाख के कीट के आश्रय के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।

विविध नाम अनेक भाषाओं में-

वनस्पतिजगत के वैज्ञानिकों ने सुप्रसिद्ध इटालियन वैज्ञानिक "अल्बीज़ी" के सम्मान में शिरीष को "अल्बीज़िया लेबेक" का नाम दिया है। हिन्दी में इसे सामान्यतः सिरस, सिरीस एवं शिरीष के नाम से जाना जाता है जबकि क्रमशः संस्कृत में वृतपुष्प, बंगला में सिरीस, उर्दू में दराश, तमिल मे सोनागम, तेलगु में सिरशामु, मराठी में शिरस तथा किनहाई, कोंकण में गारसों, फ़ारसी में दरख्ते जकरिया, पंजाबी में शरीं, लैटिन में एलबिझा लेबक, एलबिझा ओडारेटिस्मा (पीला शिरीष), एलबिझा प्रोसीरा (सफ़ेद शिरीष) आदि नामों से जाना जाता है।

फल और पत्ते

शिरीष के वृक्ष के पत्ते एक से लेकर डेढ़ इंच तक लंबे, इमली के पत्तों के समान, किन्तु कुछ बड़े होते हैं। शिरीष की नाइट्रोजन समृद्ध हरी पत्तियाँ उत्त्कृष्ट हरी खाद के रूप में मूल्यवान है, साथ ही इसकी पत्तियाँ तितलियों के लार्वा के लिए भोजन का काम भी करती है। शिरीष के पुष्प "लेग्युमे" (Legume) परिवार का अंग होने के कारण पतले, नाजुक, रेशमी, तंतुनुमा, कोमल होते हैं।ये छोटी डंडी के अग्रभाग पर खिलते हैं। दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी बुनकर ने लाल, पीले, सफेद धागों से बुने फुंदनों का छाजन सजा दिया हो। इनकी मधुर सुगंध मन को आनंद से आप्लावित कर देती है एवं इसके पुष्प मधुमक्खियों को आकर्षित करने में सक्षम होते हैं। मधुमक्खी पालक इससे हलके रंग का शहद प्राप्त करते हैं।

फूल और बीज

सुदृढ़, आकर्षक, अनुकूलनीय एवं हरफनमौला गुणों से युक्त "शिरीष का वृक्ष", वासंती गुनगुनाहट की पहली पदचाप के साथ ही धरती के आँचल को अपने कोमल, कमनीय, केसर के समान भीनी-भीनी सुगंध से सिक्त पीले, लाल एवं श्वेत पुष्पों के मोहक सौंदर्य से आच्छादित कर देता है। शिरीष के फूल कोमल, गेंद की भाँति गोल और महीन रेशों से भरे हुए होते हैं।
इसके पुष्प जितने कोमल होते हैं, बीज उतने ही कठोर होते हैं। शिरीष के वृक्ष की फलियाँ ४ से १२ इंच तक लंबी, चपटी, पतली एवं भूरे रँग की होती हैं ।जिनमें सामान्यतः ६ से २२ सख्त बीज होते हैं। वर्षा ऋतु में उत्पन्न फूल ही शीत ऋतु में फलियाँ बन जाती हैं। शीत ऋतु में पत्तियों के झड़ने के साथ ये फलियाँ सूख कर करारी हो जाती हैं, हवा से उत्तेजित फलियों के खड़खड़ाने से उत्पन्न हुई आवाज के कारण अंग्रेजी में इसे "सिजलिंग ट्री" या "फ्राई वुड ट्री" भी कहते हैं।

शिरीष की छाया

शिरीष के वृक्ष की जड़ धरती की ऊपरी सतह पर फैलती है जिसके कारण अन्य पेड़ पौधे नहीं पनप पाते, किन्तु कॉफी और चाय के पौधों के लिए इसकी घनी छाया अत्यंत लाभकारी है। इसकी जडें भूमि की उत्तम बाध्यकारी क्षमता के कारण मृदा संरक्षण के लिए बहुत उपयोगी है। शुष्क एवं अर्धशुष्क स्थानों पर जल की कमी के कारण वनस्पतिशास्त्रियों का मानना है ये वृक्ष वायुमंडल से अपना रस खींचता है। इसे सूखा सहिष्णु वृक्ष भी कहा जाता है। मलेशिया थाईलैंड आदि देशों में बहुतायत से पाई जाने वाली अलबिजिया सामान या रेन ट्री की छतरी खूब बड़ी और घनी होती है। इस कारण छायादार पेड़ के रूप में इसका व्यापक प्रयोग होता है। शिरीष का वृक्ष अपनी संरचना के इन्हीं अनूठे गुणों के कारण भारत ही नहीं विदेशों में भी अत्याधिक लोकप्रिय है।

औषधीय गुण

शिरीष के औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेदिक सिद्धांत में इसे "विषघ्न" अर्थात विष को हरने वाला कहा गया है। इस वृक्ष का प्रत्येक भाग "रोग निरोधक क्षमता" से परिपूर्ण है। इसलिए यह वृक्ष उत्कृष्ट एंटी एलर्जिक (एलर्जी प्रतिरोधक), एंटी ऑक्सीडेंट (आक्सीकरण प्रतिरोधक, एंटी इंफ्लेमेटरी (शोथ प्रतिरोधक), एंटी कॉनवुलसेंट (माँसपेशियों में तनाव प्रतिरोधक), एंटी माईक्रोबॉइल (जीवाणु प्रतिरोधक), एंटी अल्सर (अल्सर प्रतिरोधक) के रूप में वर्तमान आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्वति में प्रयोग किया जा रहा है। शिरीष के वृक्ष की छाल, फूल, पत्ते, जड़, तेल, बीज व् फलियाँ अत्यंत कड़ुवे होते हैं। ये श्रेष्ठ कृमि नाशक तथा खुजली, कुष्ठरोग, त्वचा दोष, दमा, नेत्र विकार, रुधिर विकार, खाँसी, कीट-दंश, सूजन, दन्त-विकार, कब्ज, सिरदर्द, काम-रोग आदि अनेकानेक बीमारियों का अचूक उपचार हैं।

शिरीष के पुष्पों में रक्त शोधन के अद्भुत गुण के कारण यह सौंदर्य प्रसाधन के रूप मे भी प्रयुक्त किया जाता है। इसके फूलों को पीसकर रस को लगाने से कील-मुँहासे, दाग-धब्बे नहीं होते तथा चेहरे की कांति भी बढ़ती है।

अन्य उपयोग

शिरीष के वृक्ष की लकड़ी व्यापक रूप से बहु प्रयोजन एवं बहुउपयोगी होने के कारण कृषि वानिकी के उपकरणों, फर्नीचरों, सजावटी वस्तुओं, खिलौनों आदि को बनाने में प्रयुक्त की जाती है। अपने तीव्र सूखने की क्षमता के कारण इसे लकड़ी के काम के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। इससे बहुत अच्छा लकड़ी का कोयला भी बनता है। इन्हीं गुणों के कारण इसे "ईस्ट इंडियन वॉलनट वुड" भी कहा गया है।

शिरीष का वृक्ष आज के ग्लोबल वार्मिंग के युग में सर्वाधिक उपयोगी वृक्षों की श्रेणी में आता है। जहाँ एक ओर ये नाइट्रोजन प्रतिष्ठापन में सक्षम है वहीं मिटटी के अम्लता एवं क्षारीयता के प्रति सहिष्णु तथा मिटटी की उत्पादकता और गुणवत्ता को बढ़ाता भी है। शुष्क तथा अर्ध शुष्क क्षेत्रों में ये सर्वोकृष्ट पशु आहार के रूप में पाया जाता है।

साहित्य में-

शिरीष का वृक्ष भारतीय साहित्यकारों के लिये सदा ही प्रेरक रहा है। महाकाव्यकाल के पूर्व से ही शिरीष का वृक्ष अपने पुष्पों की कोमलता एवं नाजुकता का पर्याय बनकर सम्पूर्ण साहित्य जगत में छाया हुआ है। रामायण हो या कालिदास की अभिज्ञान शाकुन्तलम्, माता सीता हो या शकुंतला, शिरीष के फूल नारी के श्रृंगार का अभिन्न अंग रहे। वेताल पचीसी में वेताल जिस पेड़ पर लटकता है वह पेड़ भी शिरीष का ही है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का शिरीष के फूल लेख भला किसने नहीं पढ़ा होगा। भारतीय रीतिकालीन कवियों ने इसकी फलियों की खड़खड़ाहट को वसंत रूपी तुरंग के पैरों की झाँझर कहा है। वात्स्यायन के कामसूत्र में शिरीष की टहनियों को झूला डालने के लिए अधिक उपयुक्त नहीं माना गया अर्थात उन्हें कमजोर माना गया है। कोमलता के साथ साथ शिरीष के वृक्ष की, इसकी जीवटता, विपरीत परिस्थितियों में भी अपने गुणों के साथ अटल रहने की प्रवृत्ति को देखकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे "कालजयी अवधूत" कहा है।

१५ जून २०१६

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