नर्मदा की कहानी
- सुशील कुमार शर्मा
मैं नर्मदा हूँ
आप सभी की आदि माँ! मेरी उम्र करोड़ों वर्ष है मैंने अनगिनित
सभ्यताओं का उत्थान एवं पतन देखा है। पुराणों में मेरे बारे
में कहा गया है:
त्रिभीः सास्वतं तोयं सप्ताहेन तुयामुनम्
सद्यः पुनीति गांगेयं दर्शनादेव नार्मदम्
अर्थात सरस्वती में तीन दिन, यमुना में सात दिन तथा गंगा में
एक दिन स्नान करने से मनुष्य पावन होता है लेकिन नर्मदा के
दर्शन मात्र से व्यक्ति पवित्र हो जाता है।
पुण्या कनखले गंगा कुरुक्षेत्रे सरस्वती।
ग्रामे वा यदि वारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा॥
गंगा कनखल में एवं सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र है, किन्तु
नर्मदा चाहे ग्राम हो या वन सभी स्थानों पर पवित्र मानी जाती
है। नर्मदा केवल दर्शन-मात्र से पापी को पवित्र कर देती है।
भगवन शंकर की पुत्री होने का मुझे सौभाग्य प्राप्त है,
उन्होंने मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे वरदान दिए कि मेरे
दर्शन मात्र से ही सम्पूर्ण पापों का नाश हो, प्रलय के समय भी
मेरा अस्तित्व बना रहे, मेरा हर पत्थर प्राणप्रतिष्ठित शिवलिंग
होकर पूज्य हो और मेरे किनारों पर समस्त देवताओं का वास हो।
लेकिन आज मैं संकट से गुजर रही हूँ। सभ्यता के विकास के साथ
साथ नैतिक मूल्यों का पतन मैं देख रही हूँ। वर्तमान में लोग
इतने पाप कर रहे हैं कि उनको धोते धोते मेरा दामन दागदार होने
लगा है। शास्त्र एवं पुराण मुझे संस्कृति, संस्कार एवं ममत्व
का प्रवाह मानते हैं लेकिन इस प्रवाह में लोग इतनी गंदगी मिला
रहे हैं कि उसका प्रक्षालन अब मेरे बस में नहीं रहा है।
मध्यप्रदेश की तो मैं जीवन रेखा हूँ लेकिन इस जीवन रेखा को लोग
मिटाने पर तुले हुए हैं। पौराणिक ग्रंथों में नदियों के किनारे
मलमूत्र त्याग धार्मिक अपराध माना जाता रहा है लेकिन अब लोग
शास्त्रों की बातें भी नहीं मानते हैं। मेरे उद्गम से लेकर
सागर से मिलने तक करीब १२० नाले मल मूत्र एवं अपशिष्ट पदार्थों
को मेरे पवित्र जल में घोल रहे हैं इसका जिम्मेदार कौन है?
मेरे उद्गम से ही मुझ पर कहर बरपाना शुरू कर दिया गया है। १५
वीं शताब्दी के पूर्व मेरा उद्गम सूर्यकुंड (जो कि वर्तमान
उद्गम नर्मदा कुण्ड से ऊपर है) था लेकिन धीरे-धीरे मेरा उद्गम
नीचे की ओर खिसकता गया। आज सूर्यकुंड गन्दा एवं उपेक्षित पड़ा
है। मेरे आसपास के जंगलों को नष्ट किया जा रहा है, मेरे भाई
बहिन जल के स्त्रोतों को मिटाया जा रहा है। मेरे पिता मैकल की
छाती को विस्फोटों से भेदा जा रहा है। गाडरवारा के पास एक
औद्योगिक बिजली का कारखाना लग रहा है, मेरा करोड़ों घन मीटर
पानी इसमें लग रहा है। इसका प्रदुषण मेरे वक्ष स्थल को विदीर्ण
करेगा लेकिन मैं चुप हूँ क्योंकि मैंने भगवान शंकर को वचन दिया
था कि मैं हर परिस्थिति को सह कर अपने मानसपुत्रों की सेवा
करूँगी। मनुष्य विकास के नाम पर इतना क्रूर हो सकता है यह मैं
अनुभव कर रही हूँ।
मेरे दोनों तटों पर करीब आठ सौ गाँव बसते हैं जिन्हें मैं बहुत
स्नेह करती हूँ। मैं इनकी माँ जैसी देखभाल करती हूँ, हर
मनोकामना पलक झपकते ही पूरी करती हूँ लेकिन बदले में ये पुत्र
अपना सारा अपशिष्ट मेरे निर्मल जल में मिलाते हैं, सुबह
मलमूत्र का त्याग मेरे तट पर करते हैं, सारे गंदे कपड़े मुझे
में ही धोते हैं, स्वयं से लेकर पशुओं, वाहनों आदि का अपशिष्ट
मेरे निर्मल जल में प्रवाहित कर उसको गन्दा कर रहे हैं। आखिर
माँ हूँ, मुझे सब सहना है लेकिन इस प्रदुषण का सबसे ज्यादा असर
मेरे जल में रहने वाले जीवों पर हो रहा है। पर्यावरण
विज्ञानियों के अनुसार पहले मेरे जल में ८४ प्रकार के जल जीव
पाये जाते थे जो घट कर करीब ४० प्रकार के बचे हैं।
इतना सारा प्रदुषण लेकर क्या कोई नदी अपना अस्तित्व बचा सकती
है? शायद नहीं। हम नदियाँ कभी भी अपने लिए कुछ नहीं माँगती
हैं, इस प्रदुषण से हमारा नुकसान तो हम सह लेंगी लेकिन अपने
पुत्रों का नुकसान देख कर मुझे रोना आ रहा है। कालिदास को
मैंने देखा है, वह उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह बैठा था।
आज वही स्थिति आप सब की है, आप लोग भी मुझे नुकसान पहुँचाकर
अपना अहित कर रहे हो।
शास्त्र कहते हैं कि मैं सर्वशक्तिमान हूँ, सर्वज्ञ हूँ,
सम्पूर्ण हूँ लेकिन मैं अपने पुत्रों को कैसे समझाऊँ कि
कर्तव्यों का निर्वहन एवं रिश्तों की संवेदनशीलता देवत्व से भी
ऊपर है। मैं अनंतकाल से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती चली आ
रही हूँ। मैं चाहती हूँ कि आप लोग भी अपने कर्तव्यों का
निर्वहन कर अपने पर्यावरण को बचाकर आने वाली पीढ़ी का भविष्य
सुरक्षित करें। आपको ज्यादा कुछ नहीं करना, सिर्फ छोटे छोटे
योगदान देकर आप लोग मेरे जल को अमृत बनाने में सहयोग कर सकते
हैं।
१.
कैसे भी करके मेरी रेत के उत्खनन को रोकना है। जो सक्षम पुत्र
हैं जनप्रतिनिधि हैं उन्हें उस ओर ध्यान देना चाहिए।
२.
पूजा के निर्माल्य को जमीन में गड्ढा बना कर खाद बनायें पूजन
का खाद आपके खेतों को कई गुनी फसलों में बदल देगा।
३.
मेरे तटों पर पालीथीन न लेकर जाएँ अगर कोई पालीथीन, नारियल के
खोल, बूँच रस्सियाँ या अन्य अपशिष्ट पदार्थ तट पर देखे तो उसे
वहाँ से अलग ले जा कर नष्ट कर दें।
४.
तट के गाँवों पर शिविर लगा कर लोगों को जागरूक करें कि वो मेरे
पानी में अपशिष्ट पदार्थ, कपड़े एवं वाहनों का धोना, पशुओं का
नहाना, साबुन लगा कर नहाना इत्यादि प्रदुषण बढ़ाने वाले कार्यों
का त्याग करें।
५.
पंचकोशी यात्राएँ एवं मेले लोगों की आस्थाओं से जुड़े हैं अतः
इनका निषेध शास्त्र सम्मत नहीं है लेकिन इनके आयोजकों को इस
बात पर ध्यान देना होगा एवं सुनिश्चित करना होगा कि मेरे तट पर
या घाटों पर इनसे कोई प्रदुषण न फैले। विशेष कर साधु समाज को
आगे आना होगा।
६.
मेरे तट पर लाखों टन शवों की भस्म मेरे जल में प्रवाहित की
जाती है जिससे बड़ी मात्रा में प्रदुषण जल में फैलता है। मेरे
सभी पुत्रों को शपथ लेनी होगी कि इस बारे में जागरूकता अभियान
चलाएँ कि शवों की भस्म मेरी धारा में प्रवाहित न करके बाहर
मेरे जल में घोल कर खेतों में खाद्य के रूप में सिंचित की
जावे। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि शव की भस्म में जमीन के उर्वरा
हेतु सभी तत्व मौजूद हैं अगर एक शव की भस्म एक एकड़ में डाली
जाती है तो दस साल तक उस जमीन में खाद डालने की आवश्यकता नहीं
होती है।
७.
मेरी धारा में धार्मिक मूर्तियों जिनमें रासायनिक लेपों का
इस्तेमाल हुआ हो का विसर्जन वर्जित किया जावे।
मुझे अपने से ज्यादा अपनी पुत्रियों की चिंता रहती है। मेरी
करीब उन्नीस मानस पुत्रियाँ हैं जो सहायक नदियों के रूप में
मुझे प्राप्त हैं, जिनमें (दक्षिण तटीय सहायक नदियाँ) हिरदन,
तिन्दोनी, बारना, कोलार, मान, उरी, हथनी, ओरसांग (वाम तटीय
सहायक नदियाँ) बरनर, बन्जर, शेर, शक्कर, दुधी, तवा, गंजाल,
छोटा तवा, कुन्दी, गोई, करजन। मेरी प्रिय पुत्री शक्कर दुधी
मरणासन्न स्थिति में है। मेरी अधिकांश पुत्रियों के जल का
अतिरिक्त दोहन किया जा रहा है, उन्हें प्रदूषित किया जा रहा है
लेकिन मैं मौन हूँ। किसे दंड दूँ, अपने प्यारे पुत्रों को या
स्वयं को। मुझे भी गुस्सा करना आता है, दंड देना आता है किन्तु
मैं माँ हूँ, मैं तो तुम्हें माफ कर दूँगी किन्तु मेरी माँ
प्रकृति के कोप से मैं भी तुम्हें नहीं बचा पाऊँगी। जिस दिन
उनके सब्र का बाँध टूटेगा तो चारों ओर प्रलय होगा।
१५ अप्रैल २०१६ |