प्रकृति का
उपहार बहूपयोगी लक्ष्मी तरु
- संकलित
लक्ष्मी तरु,
कल्प तरु या सीमारुबा (वैज्ञानिक नाम- Simarouba Glauca) एक
बहूपयोगी वृक्ष है जिसके सभी अंग उपयोग में आते हैं। इसके
आस-पास साँप, मच्छर प्रायः नहीं आते। इसकी पत्तियाँ कैंसर,
उच्च रक्तचाप, मधुमेह सहित अनेक रोगों में उपयोगी पाई गई हैं।
इसके फल से रस और मदिरा बनाई जाती है। इसके बीज से लाभकारी
खाद्य तेल निकाला जाता है। इससे बायोडीजल बनता है और इससे तेल
निकालने के बाद बचे अवशेष को खाद के रुप में उपयोग किया जाता
है। यह वृक्ष पर्यावरण को शुद्ध करता है और अनुपजाऊ धरती पर भी
इसे उगाया जा सकता है।
लक्ष्मी तरु आकार में बहुत बड़े नहीं होते। एक वृक्ष को बड़ा
होने में ६ से ८ वर्ष का समय लगता है और वयस्क होने के बाद यह
वृक्ष ४-५ वर्षों तक उत्पादन सक्षम होता है। दिसंबर के महीने
में इनमें फूल आने शुरू होते है और फरवरी मार्च-अप्रैल तक ये
फूल वयस्क हो जाते हैं। इस वृक्ष के प्रत्येक बीज का ६० से ७५
प्रतिशत हिस्सा तेल होता है, जिसे शोधन विधियों से निकाला जाता
है। प्रत्येक वृक्ष में १५ से ३० किलोग्राम तक बीज होते हैं,
जिनसे ३ से ५ किलो तक तेल प्राप्त किया जा सकता है। यह तेल
स्वादिष्ट और स्वास्थ्य के लिहाज से भी पौष्टिक एवं उपयोगी
होता है।
भारत के लिये बायोडीजल और खाद्य तेल की आत्मनिर्भरता के लिये
इस पेड़ की खेती बहुत उपयोगी है। वर्ष २००५ में भारत ने कुल
१,२५,००० करो़ड़ रुपए बायोडीजल पदार्थों के आयात पर खर्च किए,
जिसमें से १,१०,००० करो़ड़ रुपए पेट्रोलियम और १५,००० करो़ड़
रुपए खाद्य तेलों पर खर्च किए गए थे। यह राशि वर्ष २००६-२००७
की कुल ५६३९९१ करो़ड़ की व्यय राशि का २.१२% है। इन सबके बावजूद
हमारा देश खाद्य तेलों के गहरे संकट से जूझ रहा है। ऐसे समय इस
पेड़ की खेती को प्रोत्साहित करना एक बड़ा कदम है। भारत में
अभी आँध्र प्रदेश में २०० हैक्टेयर, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और
कर्नाटक में केवल १०० हैक्टेयर जमीन पर ही लक्ष्मी तरु की खेती
की जा रही है। सुनियोजित तरीके से बड़े पैमाने पर सिमरोबा की
खेती हमें न सिर्फ खाद्य तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाए
सकती है, अपितु इससे जैव ईंधन से लेकर पर्यावरण की शुद्धता तक
के तमाम उद्देश्य पूरे हो सकते हैं।
श्री श्री रविशंकर जी ने इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाकर
लक्ष्मी तरु की खेती को प्रोत्साहित किया है। उनके संस्थान
श्री श्री कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान बैंगलोर
द्वारा भारत में कृषि और किसानों की दशा में सुधार के लिये
सस्ती और लाभदायक कृषि विधियों की खोज करते हुए इस पेड़ की
खेती का सुझाव दिया गया था, जिसे अब कार्यान्वित किया जा रहा
है। इस महत्वपूर्ण कदम से हमारा देश खाद्य तेलों के उत्पादन की
दिशा में आत्मनिर्भर हो सकेगा।
यह पेड़ १०-४० डिग्री सेल्सियस के तापमान में आसानी से फलता
फूलता है अतः भारत के लगभग सभी प्रांतों के अनुकूल है। इसे
गाय, भेड़, बकरी नहीं खाते, इसकी घनी पत्तियाँ बडी मात्रा में
झर कर मिट्टी को उपजाऊ बनाती हैं। इसलिये इसे इसे बंजर एवं
बेकार भूमि में भी विकसित किया जा सकता है। इसका जीवन ७० वर्ष
का होता है। इसकी लकड़ी दीमक प्रतिरोधी है तथा इसमें कीट व कीड़े
नहीं लगते। अतः इसकी देखभाल की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती। इसकी
लम्बी जड़ें मिट्टी के कटाव को रोकती हैं अतः कटाव रोकने के
लिये इसका अच्छा प्रयोग किया जा सकता है।
लक्ष्मीतरु की खेती करने पर इसकी पैदावार ८ टन प्रति हेक्टर
प्रतिवर्ष है। एक हेक्टर से ४ टन बीज तथा २ से ६ टन तेल और १.४
टन खली (केक) निकलती है। इसमें ६० से ७५ प्रतिशत तक तेल (१०००
से २००० कि.ग्रा.) होता है, जिसे परम्परागत तरीके से निकाला जा
सकता है। यह तेल वनस्पति घी व खाद्य तेल बनाने में काम आता है।
तेल कोलेस्ट्रोल से मुक्त होता है। इससे जैविक ईंधन, साबुन,
डिटर्जेन्ट, वार्निश, कॉस्मेटिक तथा दवाईयाँ बनाई जाती हैं।
इसके अतिरिक्त एक पेड़ से १५ से ३० किलो बीज तथा ढाई से पाँच
किलोग्राम तक तेल व २.५ से ५ कि.ग्रा. खली प्राप्त होती है।
बीज की खली (ओईल केक) में ८ प्रतिशत नाईट्रोजन, १.१ प्रतिशत
फास्फोरस तथा १.२ प्रतिशत पोटाश
पाया जाता है जो एक अच्छा
कार्बनिक खाद्य है। यह तेल बेकरी उत्पादों के लिये उपयोगी है।
लक्ष्मी तरु के बीज का खोल लकड़ी के बोर्ड बनाने, ईधन की तरह
जलाने तथा कोयला बनाने में काम आता है। फल के रस में ११
प्रतिशत शक्कर होती है इसलिये इससे स्वादिष्ट पेय बनाया जा
सकता है। इसके फल-फूल तथा पत्तियों से सस्ता वर्मी कम्पोस्ट
बनता है। इस पौधे की लकड़ी फर्नीचर, खिलौने, माचिस आदि वस्तुएँ
बनाने तथा लकड़ी की लुगदी बनाने के काम में आती है।
यह पौधा एक प्राकृतिक औषधि भी है। स्वदेशी भारतीय जनजातियाँ
इसकी छाल से मलेरिया व पेचिश का इलाज करती हैं। दक्षिणी
अमेरिका में लक्ष्मीतरु की छाल का बुखार, मलेरिया, पेचिस को
रोकने व रक्तचाप को रोकने में टॉनिक के रूप प्रयोग किया जाता
है। इसकी पत्तियों और कोमल टहनियों को उबाल कर बनाए गए काढ़े से
कैंसर, और अल्सर सहित कई प्रकार की बीमारियों का उपचार होता
है।
लक्ष्मी तरु की बहुआयामी विशेषताओं के कारण इस पौधे की अधिक से
अधिक खेती पर बल दिया जाना चाहिए। इससे भारतीय ग्राम्य सामाज
को आर्थिक रूप से सबल बनाने में मदद मिलेगी। साथ ही देश भी
खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो सकेगा।
१६ मार्च २०१५ |