मूँवा पक्षी
यानि उल्लू
-डॉ.
नरेन्द्र प्रताप सिंह
बड़ी आँखें
बुद्धिमान व्यक्ति की निशानी होती है और इसलिए उल्लू को
बुद्धिमान माना जाता है। हालाँकि ऐसा जरूरी नहीं है पर ऐसा
विश्वास है। यह विश्वास इस कारण है, क्योंकि कुछ देशों में
प्रचलित पौराणिक कहानियों में उल्लू को बुद्धिमान माना गया है।
ग्रीक में बुद्धि की देवी, एथेन के बारे में कहा जाता है कि वे
उल्लू का रूप धरकर पृथ्वी पर आई हैं। डरावनी सूरत के कारण कुछ
लोग उल्लू से डरते भी हैं। उल्लू रात्रिचारी पक्षी है जो अपनी
आँख और गोल चेहरे के कारण बहुत प्रसिद्ध है। उल्लू के पर बहुत
मुलायम होते हैं जिससे रात में उड़ते समय आवाज़ नहीं होती है।
ये बहुत कम रोशनी में भी देख लेते हैं। इन्हें रात में उड़कर
शिकार करने में परेशानी नहीं होती है। कुछ लोगों का विश्वास है
कि आदमी की मृत्यु के समय का इन उल्लुओं को पहले से ही पता चल
जाता है और तब ये आसपास के पेड़ पर अक्सर बोलने लगते हैं।
उल्लू की प्रजातियाँ-
उल्लू छोटे और बड़े दोनों तरह के होते हैं और इनकी कई जातियाँ
भारत वर्ष में पाई जाती हैं। बड़े उल्लुओं को दो मुख्य जातियाँ
मुआ और घुग्घू है। मुआ पानी के पास और घुग्घू पुराने खंडहरों
और पेड़ों पर रहते हैं।
मुवाँ या
मुआँ उल्लू की ऊँचाई लगभग 22 इंच होती है। ये नर और मादा एक ही
रंगरूप के, ऊपर के पर कत्थई, डैने भूरे जिनपर सफ़ेद और काले
निशान, दुम गहरी भूरी जिसके सिरे पर सफेदीपन लिए भूरे रंग की
धारी और गला सफेद होता है। इसकी चोंच मुड़ी हुई और गहरी गंदली
हरी तथा पैर धूमिल पीले रंग के होते हैं। यह भारत का बारहमासी
पक्षी है जो नदी के किनारों के ऊँचे कगार, पानी का ओर झुकी हुई
पेड़ की किसी डाल या किसी वीरान खंडहर में अक्सर दिखाई पड़ता
है। इसका मुख्य भोजन चिड़िया, चूहे, मेढक और मछलियाँ हैं।
घुग्घू भी
लगभग 22 इंच का पक्षी है जिसके नर मादा एक ही रंग रूप के होते
हैं। इनका एक नाम मरचिरैया भी है। घूग्घु के सारे शरीर का रंग
भूरा रहता है। इसकी आँख की पुतली पीली, चोंच सींग के रंग की,
और पैर रोएँदार तथा काले होते हैं। यह चूहे, मेंढक और
ज़्यादातर कौओं के अंडों पर हमला कर के खाता है। यह घने जंगल,
बस्ती या वीरान के किसी बड़े पेड़ पर छिपा सोता है लेकिन रात
में घुग्घूऊ ऊऊ की आवाज़ से इसकी उपस्थिति का पता चल जाता है।
उल्लू के नाम पर
गालियाँ
मुआँ
और घुघ्घू के अतिरिक्त उल्लू का एक और प्रजाति पाई जाती है
जिसे खूसट कहते हैं। कहना न होगा कि उल्लू सहित इन तीनों नामों
का प्रयोग गाली के रूप में होता है। इस सबके बावजूद उल्लू की
महत्ता कम नहीं होती।
भारतीय
पौराणिक कहानियों में यह उल्लेख मिलता है कि उल्लू धन की देवी
लक्ष्मी का वाहन और इसलिए वह मूर्ख नहीं हो सकता है। हिन्दू
संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है।
दरअसल उल्लू तो लक्ष्मी का वाहन इसलिए होना चाहिए कि किसानी के
काम के अंतर्गत इसका सबसे बड़ा काम चूहों और कृषि को नुकसान
पहुँचाने वाले कीड़ों का खात्मा करना है। इस तरह उल्लू फसल को
बचाता है और धन-धान्य में वृद्धि करता है। अतः उल्लू तो इंसान
के आदर का पात्र है और इसे अभिरक्षा चाहिये। उल्लू के चेहरे को
अनेक संस्कृतियों में आकर्षक माना गया है और आभूषणों पर इसके
सुंदर चित्र मिलते हैं।
डरने का कारण
पूर्वी उत्तर
प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग मूँवा चिरई की आवाज
सुनकर दहशत से भर उठते हैं। इस आवाज का निश्चित अर्थ वे यही
लगाते हैं कि आसपास कहीं मौत खड़ी है और किसी न किसी की गरदन पर
उसका शिकंजा कसने ही वाला है। मृत्यु जहाँ होने वाली है, उसी
स्थान के निकट आकर यह बोलता है और मृत्यु होने के तुरंत बाद उस
स्थान से गायब हो जाता है। इसी से लोगों में यह विश्वास है कि
मूँवा चिरई यमराज के आदेश से अचानक प्रकट होने वाला उनका दूत
है। आज से कोई तीस वर्ष पूर्व मेरे बाबाजी अच्छे-खासे स्वस्थ
थे। तभी एक दिन मूँवा चिरई सामने पलाश के पेड़ों पर बैठकर बोली
और फिर उड़ गयी। उसके बाद दूसरे दिन भी वह कुछ देर बोली। सभी
लोग आपस में बात करने लगे कि जरूर कुछ घटना घटने वाली है।
तीसरे दिन अचानक बाबाजी की तबीयत खराब हो गयी। दो-तीन दिन
तबीयत काफी खराब रही। इस बीच बराबर यह चिड़िया आसपास शाम को,
रात को बोलती रही। चौथे दिन रात्रि में करीब ग्यारह बजे उनकी
तबीयत और अधिक बिगड़ गयी। उधर उनकी उल्टी साँस चल रही थी, उधर
‘मूँवा’-‘मूँवा’ की आवाज लगातार आ रही थी। जैसे ही उन्होंने
आखिरी साँस ली, ‘मूँवा’-‘मूँवा’ की आवाज भी एकदम बंद हो गयी।
उसके बाद फिर हमने वह आवाज नहीं सुनी।
एक दूसरी घटना है। मेरे गाँव से थोड़ी दूर पर स्थित एक गाँव
है-पदारथपुर। कुछ वर्ष पूर्व वहाँ एक बार ठाकुर साहब के दरवाजे
पर स्थित बरगद के पेड़ पर बैठकर मूँवा चिरई बोलने लगी। एक-दो
दिन तो लोगों ने उसे उड़ाया, पर वह फिर आ बैठती। आखिर, एक दिन
जैसे ही चिड़िया ने बोलना शुरू किया, ठाकुर साहब ने अपनी एक
नाली बंदूक निकाल ली। बरगद के पेड़ पर वह दिखायी दे रही थी।
उन्होंने निशाना साधा और घोड़ा दबा दिया। पर फायर मिस कर गया।
उन्होंने बंदूक तोड़कर और गोली निकालकर दूसरी गोली भरने के लिए
बंदूक तोड़ी वैसे ही बैक फायर हो गया। बैक फायर से तत्काल ही
वहीं उनके प्राण-पखेरू उड़ गये। तब लोग कहने लगे, मूँवा चिरई
ठाकुर साहब के लिए ही बोल रही थी। ऐसी अनगिनत देखी-सुनी घटनाएँ
हैं, जहाँ इस चिड़िया ने मृत्यु का निश्चित पूर्वाभास दिया है।
और वह कभी गलत नहीं हुआ। हाँ, बाग में जहाँ इनका बसेरा हो,
वहाँ इनका बोलना अशुभ नहीं माना जाता। पर बसेरा छोड़कर जब भी यह
चिड़िया आबादी के किसी घर पर आकर बोलना शुरू करती है, तब
निश्चित रूप से यह किसी आगामी मृत्यु का संकेत देती है।
वैज्ञानिक आधार
यह शोध का विषय है कि इस चिड़िया को इतना सटीक मृत्यु का आभास
कैसे हो जाता है ? वैज्ञानिक आधार पर भी
यह
बात प्रमाणित हो चुकी है कि मनुष्य के शरीर के चारों ओर एक
प्रति-शरीर या आवेश स्थित रहता है। सिर के चारों ओर रहने वाले
आभा-मंडल यानी प्रकाशपुंज-जैसी संरचना पर काफी विस्तार से शोध
हो रहा है। यह भी देखा गया है कि मृत्यु होने से ठीक पहले यह
प्रकाशपुंज और आवेश धीरे-धीरे नष्ट होने लगता है। शायद, इन्हीं
आवेशों (तरंगों) को यह पक्षी पकड़ने की क्षमता रखता है। रात्रि
में शांत वातावरण होने के कारण इस पक्षी के लिए इन आवेशों या
तरंगों को पकड़ना अधिक आसान होता होगा, तभी यह रात्रि के समय ही
प्रायः बोलता है। मृत्यु होने के साथ ही शरीर से निकलने वाले
आवेश शून्य की दशा में आ जाते होंगे, जिससे यह पक्षी अनुमान
लगा लेता होगा कि अब जीवन शेष नहीं है। इसलिए निश्चय ही
व्यक्ति के शरीर से निकलने वाले आवेशों या तरंगों से इस पक्षी
की विशेष ग्राह्यता होती होगी। जो भी हो, यह अत्यंत आश्चर्यजनक
है कि किस प्रकार यह पक्षी मृत्यु का सटीक पूर्वाभास कर लेता
है।
१७ फरवरी २०१४ |