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प्रकृति और पर्यावरण

 

एक सरोवर की कहानी
स्नेहलता


गुज़रे हुए जमाने की सारी यादें मेरे ज़ेहन में ऐसे ताजा हैं जैसे कल की ही बात हो। इन यादों की एक ऐसी तस्वीर है जिसपर वक्त की धूल पड़ने के बावजूद भी वह धुँधली नहीं पड़ी है। अपना जन्म कैसे हुआ होगा मैं इसकी कल्पना कर सकता हूँ, इसमें सच्चाई कितनी है यह तो राम ही जाने। मेरा अनुमान है कि शायद कुछ ऐसा हुआ होगा कि पास बसे गाँव में लोगों को घर बनाने के लिए मिट्टी की ज़रूरत पड़ी होगी तब उन्होंने मुझसे ही मिट्टी ली होगी क्योंकि मैं ही तो उनका पड़ोसी था। मिट्टी निकल जाने से मैं निश्चित ही खेत से गड्ढा बना होऊँगा और जब बरसात हुई होगी तब मेरा खाली जिस्म पानी से सराबोर हो गया होगा और लोगों ने मुझे सरोवर कहा होगा।
 
जन्म चाहे जैसे भी हुआ होगा पर जब से मैंने होश सँभाला मुझे अपने चारों ओर हरियाली नज़र आई। मेरे कितने ही संगी साथी थे जिनसे मैं रोज मिलता था, बातें करता था, खुश होता था। बचपन की यादें मुझे आज भी खुशी से भर देती हैं। मेरे दाएँ किनारे पर एक बरगद का पेड़ था जिसकी छाँव में अक्सर बटोही बैठते थे। उसकी हरी-भरी शाखाओं में तोते, चिड़ियों, कबूतरों, कौओं, बगुलों, आदि का बसेरा था। सुबह और शाम उनकी चहचहाहट से पूरा वातावरण गूँज उठता था। उसकी उलझी लटों को पकड़कर बच्चे लटककर झूला झूलते, उसके चारों ओर छुपा-छुपी खेलते। थक जाते तो मेरे पास आ जाते थे। कभी-कभी तो मुझमें ड़ुबकी भी लगा लेते थे। छपाक की आवाज के साथ उनकी किलकारी मेरे मन में हलचल मचा देती थी किनारे पर बैठे उनके साथी हमेशा इस बात का ध्यान रखते कि कहीं मेरे कारण उनका कोई अहित न हो। मगर मेरी कोशिश रहती थी कि मुझसे किसी का कोई अहित न हो। मेरी मिट्टी पानी के बहाव के साथ मेरे ऊँचे-
नीचे गड्ढे भरती रहती थी और मेरा तल साफ सुथरा एक जैसा था।

बरगद से कुछ दूर हटकर पाकड़ के दो-तीन पेड़ थे। गर्मी के दिनों में जब फसल पक जाती तो किसान पाकड़ के नीचे ही लाकर उसे इकट्ठा करते थे। वहीं गेहूँ की बालियों पर दाँव चलाई जाती जिससे गेहूँ और भूसा अलग हो सकें। गेहूँ की फसल पर चलते हुए बैलों की घंटियाँ जब बजती थीं वह किसी मधुर संगीत जैसी ही लगती थीं। किनारे पर बैठे हुए किसान और उनकी आँखों में सजते इन्द्रधनुषी सपनों को देखकर मेरा भी मन हर्ष से विभोर हो उठता था। मुझे पता था कि इसी फसल के सहारे सुमेरू को अपनी धनिया का ब्याह करना है और हरखू को अपने पिताजी की आँख का इलाज करा
ना है। मुझे पता था कि जब किसी का ब्याह होगा तो सब औरतें गीत गाते हुए मेरे पास भी तो आएँगीं।

यूँ तो बच्चों, बूढ़ों, आदमी और औरतों की टोलियाँ अक्सर मेरे पास आती थीं, मेरे किनारे बैठ कर बतियाती थीं पर उनमें से कुछ चेहरे मुझे हमेशा याद रहते थे। वह साँवला सा दुबला पतला वीरू किसी से कुछ नहीं कहता था बस चुपचाप मुझे निहारता रहता था। नन्हीं छुटकी पायल पहने छुन-छुन भागती फिरती थी और हर समय कुछ गुनगुनाती रहती थी। जगन की बाँसुरी की धुन पर श्यामल और गुंजा गाना गाने थे-‘बंसी वाले ने घेर लई अकेली पनिया गई' और 'छोटी-छोटी गैयाँ, छोटे-छोटे ग्वाल छोटो सो मेरो मदन गोपाल' मुझे लगता था कि ऐसा ही कोई घाट रहा होगा जिसके किनारे कृष्ण जी बाँसुरी बजाते होंगे। मैंने नदी नहीं देखी बस सुनता था और कल्पना ही करता था कि यमुना के किनारे कदम्ब की छाँव में कृष्ण अपनी गायों के साथ बाँसुरी बजाते थे। वैसे मुझे गुंजा और श्यामल की जोड़ी राधा-कृष्ण की जैसी ही लगती थी। मेरे किनारे लगे ऊँचे खजूर पर बया ने घोंसला बनाया था। उसे देखकर बच्चे तो क्या बड़े भी हैरान हो जाते थे। बया मेरी सहेली थी। उसने मेरे सामने ही घोंसला बनाया था। मुझसे थोड़ी दूर पर ही पटेर लगी थी। बया ने पटेर की पत्तियों को अपनी चोंच से चीर कर नन्हें-नन्हें तिनकों से किसी कलाकर के जैसी अनुपम कला कृति की रचना की थी। बया का घोंसला भूरे रंग के तिनकों से बना दूर से शिव के कमंडल जैसा पेड़ पर टंगा दिखता था। उसने अपने घोंसले में दोनो बच्चों के लिए दो अलग-अलग हिस्से बनाये थे। अपने घुसने और निकलने के लिए भी दो सुन्दर दरवाजे बनाये थे। मुझे बया बहुत अच्छी लगती थी। मैं जब भी उसकी तारीफ़ करता बस वह यही कहती, अरे! घोंसला बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। हाँ लगन होनी चाहिए। मैंने भी तो तुमसे बहुत कुछ सीखा है। तुम कितने शांन्त, सौम्य
और प्रफुल्लित रहते हो। ज़िन्दगी से भरपूर।

किनारे लगे खजूर से पत्ते तोड़कर गर्मी के दिनों में चमेली, गुलनार, शकीला, सलौनी पंखे बनाती थीं। खजूर के पत्तों से पंखे बनाना तब आम बात थी। सब लड़कियाँ पंखे और डलिया बनाना सीखती थीं। खजूर के पत्तों को रंग-बिरंगा रंग कर एक दूसरे में फंसाकर सुन्दर पंखे तैयार करती थीं। उनकी बातों में दोपहर कब बीत जाती थी पता ही नहीं चलता था। गाँव भर के लोग हर शाम मेरे किनारे इकट्ठा होते थे। उन्होंने किनारे पर मेरी मिट्टी से एक ऊँचा सा गमला जैसा बनाकर उसमें तुलसी का पौधा लगाया था। वे उसे तुलसी चौरा कहते थे। सब मिलकर शाम को तुलसी चौरे पर दिया जलाते, आरती करते, भजन-कीर्तन करते थे। लोग खुश थे, मैं भी खुश था। बड़े-बूढ़े हमेशा मेरी तारीफ करते थे। बच्चों से कहते- सरोवर, ताल, पोखर जिस गाँव में हरे-भरे रहते हैं वह गाँव भी हरा-भरा रहता है और उस पर लक्ष्मी की कृपा रहती है। सरोवर में वरुण देवता का वास होता है। जल ही जीवन है। जल के अन्दर अनेक जीवों का बसेरा होता है। मेरे अन्दर भी मेरे कई साथी मेंढक, मछली, कछुए, घोंघे, सीप और अनेक कई वनस्पतियाँ और जल जीव घर बनाए हुए थे। मेरा छोटा परिवार एक छोटा कुटुम्ब ही तो था।

मुझसे कुछ ही दूर पर एक बड़ा आम का बगीचा था। उसमें अक्सर बच्चों की रेल-पेल मची रहती थी। एक जोड़ा अक्सर मेरे पास आता था। लड़की साँवली सी दुबली-पतली थी। उसका नाम नैना था। लड़का गोरा चिट्टा लम्बा चौड़ा था। उसका नाम कमल था। लड़का न जाने क्या कहता था कि लड़की शरमा जाती थी और उसके गाल लाल हो जाते थे। लड़का
कहता था अगर हम तुम मिल जाएँ तो कमलनैन बन जाएगा। उन दिनों सारस के जोड़े भी अक्सर मेरे पास आ जाते थे। बगल के खेत में जब मोर पंख फैलाकर नाचते थे तब सारी दुनिया झूमने लगती थी। मुझे लगता जैसे मैं यहाँ का बेताज बादशाह हूँ, सारी गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु। मैं सबकी मदद भी कर दिया करता था। रम्मू की भिंडियों को जब पानी की जरूरत होती थी तब वह एक नन्हीं सी नाली बनाकर अपने पड़ोस के खेत को मुझसे जोड़ देता था और एक बड़े से पल्ले के दोनों सिरों पर रस्सी बाँधकर अपने भाई की मदद से मुझसे पानी उड़ेल लेता था। बेचारा मुझे हमेशा जलदेवता कहता था। मेरी थोड़ी सी मदद के कारण वह हमेशा मेरा एहसान मानता था।

महेन्द्र बड़ा होशियार लड़का था। एक बार उसने मुझसे मिट्टी निकालकर अपने घर की दीवार बनाई थी। वह हमेशा पढ़ता रहता था। एक बार वह बहुत दिनों तक दिखाई नहीं दिया। जब वह लौटकर गाँव आया तब मुझसे मिलने आया। उसने मेरे किनारे खड़े होकर अपने साथियों से कहा-'जब मैं पहली बार हवाई जहाज में बैठा मुझे याद आया कैसे मैंने इस तालाब से मिट्टी निकालकर अपनी दीवार बनाई थी।' समय गुज़र रहा था, मैं खुश था।

एक दिन मैंने देखा कि मुझसे कुछ कदम के फासले पर जो सड़क गाँव के अन्दर जाती थी उस पर ऊँचे-ऊँचे खम्भे लगाए गए। कुछ दिनों बाद मेरे आश्चर्य की सीमा न रही मैंने देखा उन खम्भों से रात में भी ऐसा उजाला हुआ कि दिन और रात का फ़र्क मिट गया। पहले-पहल तो मैं बहुत खुश हुआ पर जल्द ही मैं इससे परेशान हो गया क्योंकि मुझे और मेरे साथियों
मछली, कछुओं, सीप, घोंघों को रात के शान्त वातावरण में सोने की आदत थी पर अब वह चकाचौंध करने वाली रोशनी हमें सोने नहीं देती थी। मेरे साथी दुःखी थे और मैं परेशान। अब मझे यह इन्सानों की बढ़ती दखलंदाज़ी बेज़ार करने लगी थी।

उस दिन मेरे दुःख की सीमा न रही जब मैने सुबह आँख खोली और देखा कि कमल का शरीर एक रस्सी से बाँधकर बरगद पर टाँग दिया गया था और नैना को मारकर मेरे पानी में फेंक दिया गया। मैं उन दोनों का दोस्त था। मैंने शाम को अपने पास आए कुछ अँधेरे सायों को देखा था। मगर मैं कुछ कर नहीं पाया। सुबह जब लोग इक्ट्ठे हुए, हैरान! मगर किसी में हिम्मत नहीं थी कि सच्चाई बता सके। पहली बार मैंने ऊँच-नीच, जाति-पाति जैसे शब्द सुने थे।

कुछ लोगों ने मेरे साथियों का शिकार करना शुरू कर दिया था। एक दो लोगों ने मुझमें सिंघाड़े की बेल फैला दी। मैंने सोचा चलो ठीक है। लोगों को हमेशा एक दूसरे की मदद करना चाहिए पर मैंने देखा वही लोग सिंघाड़ों को लेकर आपस में लड़ने लगे थे, एक दूसरे को जान से मारने की धमकी देने लगे थे। मेरी उपस्थिति सुख का कारण थी पर अब वह दुःख का कारण बनती जा रही थी।

मय बीत चला। मैंने परिवर्तन की बयार को महसूस किया था। अब लोग पहले की तरह मेरे पास नहीं आते थे। लोगों ने घरों में ही हैन्डपम्प लगवा लिए थे, वे उसी का पानी इस्तेमाल करते थे। उन्हें अब मेरा पानी पीने लायक नहीं लगता था। कुछ दिनों से मैंने महसूस किया था कि गाँव की नालियों का गन्दा पानी भी बहकर मुझसे मिलने लगा था। मेरे संगी साथी मुझसे इसकी शिकायत करने लगे थे। बेचारी मछलियों को साँस लेना मुश्किल होने लगा था। गन्दे पानी की वजह से मेरे शरीर पर काई जमने लगी थी। कभी मुझे अपनी सुन्दर काया पर गर्व था पर अब मुझे वही काया दुःख देने लगी थी। अपने शरीर पर फैली काई मुझे खुजली की बीमारी का सा एहसास कराती थी।

कई लोगों ने मुझमें मलबा डालना शुरू कर दिया था। मेरी जो तली कभी साफ-सुथरी रहती थी अब कीचड़ से पटने लगी थी। मेरा शरीर सिमटने लगा था। अब वह घटकर कुछ ही कदमों तक बचा है। मैंने तो यहाँ तक सुना कि कुछ लोग कह रहे थे कि अब इस तालाब में बचा ही क्या है? क्यों न हम इसे कुछ मिट्टी डालकर पाट दें और उस पर कब्जा कर लें।

मेरी फ़रियाद सुनने वाला कोई नहीं। मैंने कुछ नहीं चाहा। मैंने कुछ नहीं माँगा। मैंने सिर्फ दिया! एक खुशनुमा वातावरण। मैं ईश्वर की सत्ता का मात्र रक्षक था पर मनुष्य ने अपने बढ़ते कदमों से मुझे मिटाने का फै़सला कर लिया। अब मैं सिर्फ फ़रियादी हूँ। हो सके तो आप लोग भी मेरे अस्तित्व को बचाने की प्रार्थना को जनता तक पहुँचाने में मेरा सहयोग कीजिए। मैं आपका सदैव आभारी रहूँगा

१९ मई २०१४

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