सदाबहार कनेर की
कहानी
-डॉ.
राकेश प्रजापति
कनेर का पेड़
भारत में लगभग हर जगह देखा जा सकता है। यह विशाल सदाहरित झाड़ी
है जो हिमालय में नेपाल से लेकर पश्चिम के कश्मीर तक, गंगा के
ऊपरी मैदान और मध्यप्रदेश में बहुतायत से पाई जाती है। अन्य
प्रदेशों में यह कम पाई जाती है। परंतु संपूर्ण भारत में अपने
सुगंधित और दिखावटी फूलों के लिए यह दिन प्रतिदिन लोकप्रियता
प्राप्त कर रहा है। यह चारदीवारी के किनारे या बाग में उगाया
जाता है। कनेर के फूलों के गुच्छे मई से अक्टूबर तक बहुतायत
में खिलते रहते हैं। इसे रेगिस्तान का गुलाब भी कहते हैं।
विभिन्न भाषाओं में
नाम-
इसका लैटिन नाम 'नीरियम इंडिकम' है। हिन्दी में कनेर, कनैल,
कनहल आदि कई नामों से जाना जाता है। इसे मराठी में तांडवी
गुजराती में कन्हेर, कन्नड़ में कानीगालू, तेलुगु में कनेर
चेट्टु, तमिल में अलारि, कर्वीरम, मलयालम में अरली, कनाबिर,
कन्नड़ में कणलिंगे, बांग्ला में करबी, तथा उडिया में कराबी
कहते हैं। इसका पंजाबी नाम भी कनेर ही है। संस्कृत में इसको
कर्वी, शतकुंभ, अश्वमारक आदि अनेक नामों से जाना जाता है। अरबी
में इसे सुमुल हिमार तथा फारसी में खरजेहरा कहते हैं।
रूपाकार और अंग-
इसके
पेड़ की ऊँचाई लगभग १० से ११ हाथ होती है। पत्ते लम्बाई में ४
से ६ इंच और चौडाई में १ इंच, सिरे से नोकदार, नीचे से खुरदरे,
सफेद घाटीदार और ऊपर से चिकने होते हैं। बीज अत्यंत छोटे हल्के
भूरे होते हैं। फूल खासकर गर्मियों के मौसम में ही खिलते हैं।
फलियाँ चपटी, गोलाकार ५ से ६ इंच लंबी होती हैं जो बहुत ही
जहरीली होती हैं। फूलों और जड़ों में भी जहर होता है। कनेर चार
तरह की प्रजातियों के होते हैं। सफेद, लाल व गुलाबी और पीला।
सफेद कनेर औषधि के उपयोग में बहुत आता है। कनेर के पेड़ को
कुरेदने या तोड़ने से दूध निकलता है। इसकी जड़ की लेई अनेक
प्रकार के चर्म रोगों व घावों के लिये उपयोगी मानी गई है। जड़
की छाल का तैलीय काढ़ा परतदार चर्मरोगों में उपयोग किया जाता
है। पत्तियों का रस आँखों में आँसू लाने के लिए डाला जाता है।
इसके बीजों का उपयोग अनेक रोगों जैसे हृदय, अस्थमा, गंजापन,
कैंसर महावारी के दर्द, सफेद दाग, मलेरिया, दादखाज, खुजली, आदि
हेतु दवाएँ बनाने में किया जाता है।
कनेर की देखभाल-
कनेर के पौधों को पूर्ण सूर्य के प्रकाश, छायादार तथा अच्छे जल
निकासवाली भूमि पर लगाए जाने पर यह बहुत आकर्षक झाड़ के रूप
में विकसित होता है। कनेर को वर्षा या बसन्त ऋतु के बाद भी लगा
सकते हैं। पौधे को ६ से १२ फीट की दूरी पर लगाया जा सकता है
लेकिन अलग-अलग प्रजातियों पर पौधे से पौधे की दूरी निर्भर करती
है। अच्छी
तरह
गड्ढे़ को खोदकर उसमें गोबर या कम्पोस्ट खास मिलाकर पौधे को
लगा सकते हैं। रोपण के बाद हर वर्ष बसन्त ऋतु में एक बार गोबर
या कम्पोस्ट की खाद प्रति पौधे को देना चाहिये तथा नमी और
खरपतवार को रोकने के लिये २ इंच घासफूस या अन्य किसी पौधों की
पत्तियों की परत बनाकर माल्चिंग करनी चाहिये।
यदि वर्षा कम
होती है तो गर्मी के दिनों में पौधे में प्रति माह एक सिंचाई
अवश्य करें तथा पौधे की शाखाओं की कटाई छटाई करें जिससे पौधा
सुंदर दिखाई दे, फूलों की संख्या अधिक हो और पौधे का आकार छोटा
रहे। कनेर का पौधा सूखी अवस्था में भी अच्छी तरह अपने को जीवित
रखता है वहीं दलदली भूमियों में भी ये अच्छी तरह लगा रहता है।
इसके सुगंधित फूल माला बनाने तथा मंदिरों पर चढ़ाने के काम आते
हैं। कनेर के पेड़ के बारे मे यह भी कहा जाता है कि साँप इसके
पेड़ के आस पास भी नहीं आता है। भारतीय संस्कृति में कनेर के
फूल को अत्यंत पवित्र माना जाता है। इसीलिए यह आज भी विभिन्न
धार्मिक स्थलों पर बहुतायत में पाया जाता है। सफेद एवं लाल फूल
वाली देसी कनेर ही औषध (विशेषकर विष औषध) के रूप में अधिक
उपयोगी होती है। इसके झाड़ को पशु नहीं खाते हैं इसलिये सड़क
मार्ग पर शोभा हेतु बहुतायत से लगाया जाता है।
पीला कनेर –
पीला
कनेर मजबूत मिट्टी में पाया जाता है। यह छोटी ऊँचाई वाला वृक्ष
है। इसमें पीले फूल लगते हैं। इसकी पत्तियाँ लम्बी-पतली होतीं
हैं। पीली कनेर का दूध शरीर की जलन को नष्ट करने वाला, और
विषैला होता है। इसकी छाल कड़वी भेदक व बुखार नाशक होती है।
छाल की क्रिया बहुत ही तेज़ होती है, इसलिए इसे कम मात्रा में
सेवन करते हैं। नहीं तो पानी जैसे पतले दस्त होने लगते हैं।
कनेर का मुख्य विषैला परिणाम हृदय की माँसपेशियों पर होता है।
इसे अधिकतर औषधि के लिये उपयोग में लाया जाता है। कनेर का बीज
विषाक्त होता है। एक बीज का सेवन भी जान लेने के लिये काफी है।
कनेर का जहर डाइगाक्सीन ड्रग की तरह है। डाइगाक्सीन दिल की
धड़कन की रफ्तार कम करता है। कनेर का एक बीज डाइगाक्सीन के सौ
टैबलेट के बराबर होता है. पहले तो यह दिल की धड़कन को धीमा
करता है और आखिरकार एकदम रोक दोता है. पीले वाले कनेर के नीचे
अक्सर साँप रहते हैं।
सफ़ेद कनेर-
सफ़ेद
कनेर अधिकतर रेगिस्तानी क्षेत्रों में मिलता है। इसके पत्ते
लम्बे और पतले होते हैं तथा यह छाया वाली जगह पर भी लगाया जा
सकता है। सफ़ेद कनेर के पास सफ़ेद चीटियाँ अधिक पायी जाती हैं और
उनके काटने पर एलर्जी जैसे रोग हो सकते हैं जो खाँसी जुकाम आदि
का कारण भी इसको माना गया है। आयुर्वेद में सफ़ेद कनेर के कई
आयुर्वेदिक उपयोग बताये गये हैं जैसे जलने पर उसकी हरी
पत्तियों को सरसों के तेल में जलाने के बाद ठंडा करने के बाद
जले हुये स्थान पर लगाने से एक तो छाले जल्दी ठीक हो जाते हैं
और जलने के बाद पड़े हुये सफ़ेद दाग भी ठीक हो जाते हैं। इसी
प्रकार का उपयोग सूखे छुहारे के साथ, हरे पत्ते छाल फ़ूल फ़ल
कुचल कर जलाने के बाद ठंडा करने के बाद लगाने से सफ़ेद दाग भी
ठीक होते देखे गये हैं। पालतू जानवरों में कीड़े लग जाने के
कारण और त्वचा वाली बीमारियाँ हो जाने के बाद अरंडी के तेल में
हरे पत्तों को जलाकर उनकी राख मिलाकर लगाने से ठीक हो जाते
हैं।
लाल कनेर-
लाल
कनेर पठारी भूमि में मिलता है लाल कनेर के पास जहरीले जानवर
जैसे छिपकली बिच्छू आदि पाये जाते हैं सफ़ेद और लाल दोनों
कनेरों की जड़ में नेरिओडोरीना नामक ऐसे दो तरह के पदार्थ होते
हैं, जो हृदय के लिए अस्वास्थ्यकर माने जाते हैं। वे हृदय की
गति को रोक देते हैं या कम कर देते हैं। इसके अलावा इसमें
ग्लुकोसाइड रोजोगिनिन एक सुगन्धित उड़नशील तेल और डिजिटैलिस के
समान एक नेरिन नामक रवेदार पदार्थ टैनिक एसिड और मोम होता है।
इसमें नेरिन हृदयोत्तेजक होता है। अगर कनेर में यह तत्व न होता
तो वह सद्यमारक उग्र विष हो जाता है। हृदय रोगों में जब कोई और
उपाय नहीं होता है तो इसका प्रयोग किया जाता है, इसकी मात्रा
१२५ मि. ग्रा से ज़्यादा नहीं होनी चाहिये
ऐतिहासिक उल्लेख-
सभी प्रकार की परिस्थितियों में सफलता पूर्वक उगाये जाने के
कारण यह एशिया, उत्तरी अफ्रीका तथा पूर्वी अफ्रीका में फैल
गया। यह समुद्र तल से १०० से २५०० मीटर तक की ऊँचाई तक पाया
जाता है। ऐसा कहा जाता है कि १८४१ में कनेर का पौधा भारत से
अमेरिका पहुँचा। लेकिन कई सौ साल पहले नील नदी के किनारे इसकी
खेती के प्रमाण मिले है। बाईबिल में भी कनेर के पेड़ का उल्लेख
है।
कनेर
को भगवान शिव की पूजा तथा मृत्यु के प्रतीक के रूप में विश्वास
और धार्मिक रीति रिवाजों में अपनाया गया। रवीन्द्रनाथ ने लाल
कनेर को साहस का प्रतीक बताया। ब्रिटिश शासक ने १७९० में सभी
आईसलैण्ड बस्तियों के सुन्दरीकरण के लिये कनेर लगाने के लिये
गर्वनरों को आदेशित किया तथा इसको दक्षिण समुद्री गुलाब के नाम
से जाना जाता था।
पुरातत्व के स्रोत से पता चलता है कि १५ वीं शताब्दी में ई.पू.
में मेसोपोटामिया में लोग कनेर का उपयोग हर्बल दवाओं के रूप
में करते थे। बेवियोलोन वासी कनेर के साथ अन्य पौधों के घोल को
मृत्युदंड देने में प्रयोग करते थे। ग्रीकवासी कनेर के गुणों
से भली भाँति परिचित थे। अरब में ८वीं, शताब्दी ई॰ बाद कनेर का
उपयोग कैंसर के उपचार के लिये किया जाता था। इसी प्रकार १९६०
में तुर्की में एक डाक्टर ने कनेर से बनी दवा को सर्वप्रथम
पेटेन्ट करवाया जो लुकीमा के उपचार में प्रभावी थी।
१६ जून २०१४ |