जलदपाड़ा अभयवन में गैंडे
-रमेश
बेदी
जलदापाड़ा अभयवन
पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी जिले में पूर्वी हिमालय की पादगिरी
में २१६.५ वर्ग किलोमीटर मे फैला है। ‘टूरिस्टों’ के लिए यहाँ
अनेक आकर्षण हैं। जीव-जंतुओं के प्रेमियों को यहाँ गेंडे, गौर,
जंगली हाथी, साँभर, काकड़, शेर, तेंदुए, जंगली सूअर, चींटीखोर
आदि ३३ जातियों के स्तनी, २३० जातियों के पक्षी, १६ जातियों के
सरीसृप, ८ जातियों के कछुए, ३० जातियों की मछलियों के अध्ययन
करने का मौका मिलता है। अभयवन में १११ कुलों के ४२९ गणों
(जीनस) की ५८५ जातियों के पुष्पी-पादप हैं।
मुख्य आकर्षण: गेंडा
जलदापाड़ा अभयवन का मुख्य आकर्षण एक सींगवाले भारतीय गेंडे हैं।
इसमें लगभग ४० गेंडे रहते हैं इस संख्या में बहुत उतार-चढ़ाव
होता रहता है। १९२० १९२० के दशक में जलदापाड़ा (पातालखोवा को
मिलाकर) में लगभग २०० गेंडे थे। सन् १९३२ में यह संख्या गिरकर
४०-५० रह गयी। सन् १९६० के दशक में इसमें वृद्धि हुई और ७० से
अधिक गेंडे हो गये। सन् १९६६-६७ में इनकी संख्या ७६ हो गयी थी।
पोचिंग के कारण यह संख्या तेजी से गिरती गयी और सन् १९८० में
१७ तक आ गयी। १९७० के दशक और १९८० के दशक के दौरान जलदापाड़ा
में १९ और २७ के बीच गेंडे थे। वन कर्मचारियों के सतत
प्रयत्नों से और अभयवन के समुचित वैज्ञानिक प्रबंधन के कारण यह
संख्या क्रमशः बढ़ती हुई ४२ तक पहुँच गयी, लेकिन, अब भी पोचरों
का मुख्य लक्ष्य गेंडे को मारना बना हुआ है।
लगभग सन् १९९३ तक जलदापाड़ा में पोचर, गेंडों को मारने के लिए
अधिकतर बंदूक का इस्तेमाल करते थे, यद्यपि असम के काजीरंगा
नेशनल पार्क में अन्य तरीके जैसे बिजली की उच्च शक्ति के करेंट
से मारना तथा गड्ढे में गिराकर मारना भी काफी प्रचलित है।
जलदापाड़ा अभयवन की अजीब सी रूपरेखा के कारण तथा वहाँ अलग किस्म
के जंगलों के कारण बंदूकों द्वारा चोर-शिकार होता था।
१९९० के दशक में गैंडों को जहर खिलाकर मारने की कुछ घटनाएँ
प्रकाश में आई थीं। नेपाल के ‘रॉयल चितवन नेशनल पार्क’ में
गेंडों और शेरों को जहर खिलाकर मारने का विवरण ई. बी. मार्टिन
(सन् १९९२) ने दिया है (‘दि पॉयजनिंग ऑव राइनोज एंड टाइगर्स इन
नेपाल’ ओरिक्स २६ (२), ८२-८६)। जलदापाड़ा अभयवन में जहर खिलाकर
मारने की दो घटनाएँ प्रकाश में आयीं। एस. मुखर्जी और सुभंकर
सेनगुप्त, सहायक ‘वाईल्डलाइफ वार्डन’ ने इनका विवरण दिया है
(टाइगर पेपर, जनवरी-४ मार्च सन् १९९८, पृष्ठ २०-२१)।
जलदापाड़ा अभयवन की जलदापाड़ा ‘वेस्ट रेंज’ में मोइराडागा बीट के
तोर्सा दो कपार्टमेंट में ६ नवम्बर १९९२ को एक अर्द्ध वयस्क नर
गेंडा मरा हुआ पाया गया। इसका सींग नदारद था लाश सड़ गल चुकी
थी, इसलिए उसका सूक्ष्म तथा विस्तृत अध्ययन करना संभव नहीं था।
प्रकट रूप में गोली लगने के घाव या किसी शस्त्र से बनाये जख्म
नहीं दिखाई पड़े। उसके आमाशय में चने के कुछ दाने मिले थे।
अभयवन के जंगलों में चना तो निसर्ग में मिलता नहीं, इसलिए
संदेह होता है कि पोचरों ने चने में जहर मिलाकर गेंडे के
ठिकानों में रख दिया था जिसे खाने से वह मर गया था।
रहस्यमयी खामोश मौत
मोइराडांगा के बीट अफसर ने ३० मार्च,१९९६ को पुरुडिबाड़ी
क्षेत्र में ‘तोर्सा दो कंपार्टमेट’ में एक गेंडी मरी हुई देखी
गई। इसकी देह पर भी न तो गोली के घाव थे, न चोट के निशान। लाश
के आसपास की जमीन साफ थी। दम तोड़ने से पहले गेंडी छटपटायी तक
नहीं बेचैनी में उसने टाँगें पटकी होतीं तो जमीन पर खरोंचें
पड़ी होतीं।
उसकी अगली टाँगें छाती के नीचे मुड़ी हुई थीं, पिछली टाँगें
जरा-सी खुली थीं, सोने के समय गेंडे के शरीर की ऐसी ही स्थिति
होती है।
वह चिरनिद्रा में कैसे विलीन हो गयी? क्या यह स्वाभाविक मौत
थी? सब जिज्ञासाओं का समाधान रहस्य के परदे में छिपा था। दिल
दहलाने वाली गोली का धमाका जंगल के सन्नाटे में सुनायी नहीं
दिया। लहू के कतरे का लाल दाग भी जमीन पर कहीं नजर नहीं आया
फिर यह कमसिन गेंडी मौत के खौफनाक दामन की खामोशी में कैसे लील
ली गयी....हमेशा...के लिए?
रहस्योद्घाटन
मौत की गुत्थी सुलझाने के लिए अभयवन के अफसरों ने विशेषज्ञों
का सहारा लिया। ‘पोस्टमॉर्टम’ के लिए देह को खोलने से पहले
पशुओं के डॉक्टर ने कान के पल्लू ‘ईयर पिन्ना’ से खून संग्रह
किया। ‘ऐंथ्रेंक्स’ के बीजाणुओं ‘स्पोर्स’ और अन्य जीवाणुओं की
जाँच के लिए ‘लेबोरेटरी’ भेजा। सभी परीक्षाएँ नकारात्मक
निकलीं।
आसपास के इलाके की पूरी तरह छानबीन की गयी और निरंतर निगरानी
रखी गयी।
३०-३१ मार्च की रात को ‘तोर्सा दो कंपार्टमेंट’ के रोपित वन के
इलाके के नजदीक चार गेंडे एक साथ देखे गये। वे सब एक ही जगह से
मिट्टी खा रहे थे। पार्क के पालतू हाथियों की मदद से
कर्मचारियों ने उन्हें खदेड़ने की कोशिश की। वे अनिच्छा से चले
तो गये लेकिन फिर लौट आये। उन्हें बार-बार खदेड़ा जाता और वे
बार-बार लौट आते।
तब इलाके को अच्छी तरह से घेर कर पूरी तरह जला दिया गया और
गेंडों को वहाँ फिर नहीं आने दिया गया। वहाँ से मिट्टी के
नमूने इकट्ठे किये गये। एक नमूना पश्चिम बंगाल सरकार की
कलकत्ता स्थित ‘फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी’ को जाँच के लिए भेज
दिया गया। दूसरे नमूने में भात मिलाकर एक आवारा कुत्ते को
खिलाया गया। वह मर गया। गेंडी की लाश का बारीकी से
‘पोस्टमॉर्टम’ करने पर उदरगुहा से निकाले विभिन्न भाग तथा मृत
कुत्ते के नमूने भी ‘फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी’ को पड़ताल के
लिए भेज दिये गए।
मिट्टी के नमूने, गेंडी की उदरगुहा के अंगों के नमूने तथा
कुत्ते के नमूने की जाँच रिपोर्टों से पता चला कि इनमे
‘एंडीसल्फान’ नामक कीटनाशक मौजूद हैं। यह एक ‘ऑर्गेनोफॉस्फेट
कंपाउंड’ है। इसका व्यापारिक नाम ‘थिओडीन’ है इसी नाम से यह
बेचा जाता है चाय बागानों में यह कीड़ों को मारनेवाली दवा के
रूप में आम प्रयोग किया जाता है स्थानीय किसान भी इसे इस्तेमाल
करते हैं। अनजाने में ‘थिओडीन’ मिले आहार को खाने से ढोंरों के
मरने की घटनाओं की रिपोर्टें मिली हैं। जंगली जानवरों, विशेषकर
गेंडे को मारने के लिए पोचरों द्वारा ‘थियोडीन’ इस्तेमाल करने
का पश्चिम बंगाल में यह पहला उदाहरण था।
‘एंडीसल्फान’ घातक विष है जो दोहरी मार करता है एक तरफ
तो रुधिर-कोशाओं को ध्वस्त कर रक्तसंचार-तंत्र को प्रभावित
करता है, दूसरी तरफ केंद्रीय चेता-संस्थान के कार्य को ठप्प कर
देता है।
गेंडा
शाकाहारी प्राणी है। जंगल के सामान्य आहार से उसे आवश्यक
परिमाण में नमक नहीं मिलता, उस कमी को पूरा करने के लिए मिट्टी
में मिले हुए नैसर्गिक नमक को वह चाटा करता है। पोचर गेंडे की
इस आदत को जानते हैं, वे मिट्टी में नमक और जहर मिलाकर गेंडों
की गतिविधियों पर निगाह रखते हैं। विषैली नमकीन मिट्टी खाने से
ज्यों ही कोई गेंडा मरता है वे उसके सींग काट लेते हैं।
निर्मम हत्याएँ क्यों?
विश्व में अनेक देशों में व्यापक रूप से विश्वास किया जाता है
कि गेंडे के सींग में चमत्कारी गुण होते हैं इस मान्यता के
कारण सींग को प्राप्त करने की लालसा उत्कट हो गयी है। यह गेंडे
को मारकर ही निकाला जाता है। उसे मारना, उसके सींग या किसी
अन्य अंग को अपने पास रखना या उसका कारोबार करना दंडनीय अपराध
है। इसलिए इसे चोरी-छिपे मारा जाता है और सींग का अवैध व्यापार
भी चोरी-छिपे किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय चोर-बाजार में
गेंडे के एक किलोग्राम सींगों की कीमत पच्चीस से तीस लाख रुपये
है (हिन्दुस्तान टाइम्स, २१.६.९७)। यकायक इतनी बड़ी रकम मिल
जाने के लालच में पोचर अपनी जान जोखिम में डालकर गेंडों का
शिकार कर रहे हैं। सशस्त्र वन-रक्षकों की मुठभेड़ में वे मारे
भी जाते हैं।
अंतिम
परिणाम-
इस सारे
प्रयत्नों के बावजूद १६ अगस्त २०१४ को जलदापाड़ा
अभयारण्य के उत्तरी भाग में एक गैंडे की मृत देह मिली जिसका
सींग गायब था। वर्ष २०१३ की गणना के अनुसार अभयारण्य में १८४
गैंडे थे जो पिछले वर्ष की तुलना में ३५ अधिक थे। यह बढ़त शुभ
समाचार है लेकिन विशेषज्ञों को इस बात की चिंता है कि नर और
मादा का अनुपात १-१ हो गया है जबकी अच्छे विकास के लिये इसका
१-३ होना आवश्यक है।
२२ सितंबर २०१४ |