हम गूजर जंगल के
वासी
-नवीन
नौटियाल
देहरादून के
जंगलों में आज भी हाथी, बाघ और हिरण-जैसे वन्य जीव मिल जाएँगे
पर इनके साथ ही कुछ और जीव भी मिलेंगे। ये हैं इनके हमजोली
लंबे कद के दाढ़ी-मूँछ वाले इन्सान। कायदे से ये लोग भी जंगली
हैं लेकिन कथित सभ्य नागरिकों से ज्यादा संवेदनशील। इसलिए
इन्सानियत के ज्यादा करीब! वन गूजरों के नाम से पुकारी जाने
वाली इस जन-जाति का बाहरी दुनिया से ज्यादा लेना-देना नहीं है।
वे तो अपने में ही मस्त रहते हैं।
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पर्वत और यहाँ की वादियाँ इनका
मूल स्थान नहीं है। यह अंदाजा तो उनकी खास किस्म की रंगीन
फुनगीवाली टोपी, बदन पर लुंगी और पैरों में खास तरह के उठी
नोकवाले जूते देखकर ही अलग और अनूठी इस पोशाक में वे अलग ही
पहचाने जाते हैं।
मेहनतकश गूजर
दरअसल वन-गूजर इस इलाके में कश्मीर से आये थे। इन्हें यहाँ आये
कई सदियाँ बीत गयीं। आज भी इनके भाईबंद कश्मीर में रहते हैं।
इनके कश्मीर से यहाँ आने की कहानी भी इनके बीच अक्सर सुनायी
जाती है। कहते हैं किसी जमाने में जम्मू-कश्मीर में एक राजा
था। वह वहाँ के सभी समुदायों पर अपना राज्य कायम किये था। सभी
समुदाय मिल-जुलकर रहा करते थे। राजा की बेटी की शादी हिमाचल के
नाहन राज्य के राजकुमार से तय हुई तो वह बारात लेकर वहाँ
पहुँचा। राजा की प्रजा कतार में खड़ी होकर दूल्हे का स्वागत
करने लगी। इसी कतार में खड़े थे वन-गूजर।
हजारों की भीड़ में सजीले, कद्दावर, उजले और चटख रंग के परिधान
में गूजरों को देखकर दूल्हे की नजर वहीं अटककर रह गयी। दूल्हे
ने इनके बारे में जानकारी ली। राजा ने दूल्हे को बताया कि ये
वनों में रहने वाले मेहनतकश लोग हैं जो कि मवेशी पालकर उनका
दूध बेचते हैं। बारात में आये राज-परिवार के लोगों ने एक स्वर
में कहा कि वाकई ये लोग बहुत सुंदर हैं। उन्होंने कहा कि इन
लोगों को क्या हम अपने साथ ले जा सकते हैं?
राजा ने हामी भर दी और राजकुमारी के साथ गूजरों का एक समूह
बतौर दहेज सिरमौर के लिए रवाना कर दिया। और तब से ही ये
खानाबदोश की जिंदगी बिताते हुए हिमाचल के वनों में रह रहे हैं।
यहीं से इनकी संतति हिमाचल से लगे उत्तराखंड में फैल गयी।
कश्मीर, जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है, से यहाँ आकर गूजरों
को यकीनन अच्छा लगा होगा। यहाँ के अछूते वन क्षेत्र में उनके
पशुओं के वास्ते चारे की कोई कमी नहीं थी। उस वक्त तक यहाँ के
वनों पर सामान्य जनता का अधिकार था। वे बिना किसी हील-हुज्जत
के अपनी जरूरतभर के लिए घास-चारा और ईधन के लिए लकड़ी इन्हीं
वनों से लिया करते थे। ऐसी अनुकूल परिस्थिति में गूजरों को
यहाँ रहने में भला क्या तकलीफ होती?
घुमंतू परिंदे हैं गूजर
हिमाचल और उत्तराखंड की ऊँची पहाड़ियों में इनकी गर्मियाँ
बीततीं और जब सर्दी पसरकर मौसम का मिजाज बदलती तो वे उतरकर
देहरादून व हरिद्वार की वादियों में उतर आते। इन वादियों में
आकर वे यहाँ के जंगलों में अपना डेरा डालते। यह क्रम आज भी
जारी है। गूजर उन परिदों की तरह हैं जिन्हें अस्तित्व की लड़ाई
ने घुमंतू बना दिया है- जैसे साइबेरिया के पक्षी भारत आकर
सर्दियों में अपना डेरा जमाते हैं और सर्दियाँ बीतते ही वापस
अपने मूल स्थान की ओर लौट जाते हैं वैसे ही गूजर भी सर्दियों
के बीतने पर वापस पहाड़ों की तरफ चल पड़ते हैं। जाहिर है, उनके
साथ उनका परिवार होता है और होता है उनकी भैंसों का लश्कर!
पशुपालन प्रमुख काम
वन-गूजर भैंस पालकर और उनका दूध बेचकर अपना गुजारा करते हैं।
भैंसों के बगैर उनका अस्तित्व नहीं है, जंगल में भैंसों को
चराने के लिए उन्हें वन-विभाग के अधिकारियों की जेबें गरम करनी
पड़ती हैं। एक गूजर के मुताबिक हर पशु के हिसाब से उन्हें चालीस
रुपये वन-विभाग के कारिदों तक पहुँचाने पड़ते हैं। सरकारी
रेकॉर्ड में आज भी ५१२ गूजर परिवार दर्ज हैं जो कि प्रस्तावित
राजाजी राष्ट्रीय पार्क के भीतर रहते हैं। पर यह रिकॉर्ड तो एक
सदी पुराना है। तब से अब तक गूजर परिवार कई गुना बढ़े हैं। अब
पार्क-क्षेत्र में ही दस हजार से ज्यादा गूजर रहते हैं। इस तरह
५१२ गूजर परिवारों के अलावा जो गूजर रहते हैं, उनका पीछा
रिश्वत देकर ही छूटता है।
जब गूजर पहाड़ों में होते हैं तो गर्मियों के दौरान पर्यटकों के
लिए दूध जुटाते हैं। जो दूध बचता है उसका घी व मावा बनाकर रख
लेते है और वे उसे बाद में बेचते हैं। यह बात इसलिए भी
महत्वपूर्ण है क्योंकि पहाड़ों में जहाँ कभी दूध-घी इफरात में
मिलता था, अब पशुपालन का काम करीब-करीब खत्म ही हो गया है। ऐसे
में अगर गूजर न होते तो शायद पर्यटकों को चाय के लिए दूध तक
नसीब न होता। पहाड़ों में पर्यटन उद्योग की इस तरह सेवा करने के
बाद सर्दियों में ये मैदानी इलाके में दूध बेचते हैं। इस तरह
देहरादून, ऋषिकेश, डोईवाला-जैसे नगरों, कस्बों की दुग्ध
आपूर्ति में अघोषित योगदान करते हैं।
शोषण के शिकार
अपने भोलेपन
की वजह से ये लोग बिचौलियों द्वारा प्रायः ठगे जाते हैं। ये
बिचौलिये दूध के व्यापारी हैं जो इनसे औने-पौने दाम में दूध
लेकर शहरों में बेचते हैं। आमतौर पर शहरों में दूध १२-१२ रुपये
प्रति लीटर मिलता है जबकि इस दूध के गूजरों के हाथ पाँच रुपये
प्रति लीटर भी आ जाएँ तो गनीमत है। वैसे सहकारी दुग्ध समिति व
ग्रामीणवाद एवं अधिकार केंद्र देहरादून (रुलक) की ओर से दूध
वितरण का काम अपने हाथ में लेने से इनका शोषण कुछ कम जरूर हुआ
है और उन्हें दूध का सही मूल्म भी मिलने लगा है।
गूजर जंगल में अपनी झोपड़ी बनाते हैं। इनके लिए भी उन्हें
वन-विभाग के लोगों को पाँच-छह हजार रुपये अदा करने पड़ते हैं।
इतना ही नहीं, वनकर्मी इन्हें कई और बहानों से लूटते हैं। जैसे
सलामी के रूप में उन्हें वनकर्मियों को चार किलो घी देना पड़ता
है। दोहन का चक्र यहीं आकर नहीं थमता। हर भैंस के हिसाब से एक
किलो दूध उनसे वनकर्मी वसूलते हैं। हर माह बीस रुपये और आधा
किलो घी तो बदस्तूर लिया ही जाता है। ऐसे में गूजरों की कमाई
का ज्यादातर हिस्सा दूसरे लूट ले जाते हैं।
अनाज के लिए वे बाजा पर निर्भर हैं। उन्हें अनाज उधार मिल भी
जाता है पर यह उधार उन्हें खासा महँगा पड़ता है। क्योंकि जिन
बनियों से वे अनाज लेते हैं वे गूजरों से जिंदगीभर पैसा वसूलते
रहते हैं और कर्ज कभी खत्म होने को नहीं आता । इसकी वजह यह है
कि गूजर ज्यादातर पढ़े-लिखे नहीं हैं। बनियों के खातों में क्या
दर्ज है इसका पता लगाने का उनके पास कोई साधन नहीं है। जहाँ तक
कर्ज अदा करने से मुकरने का सवाल है गूजर इसकी कल्पना भी नहीं
कर सकते। बनियों को भी पता है कि उनका पैसा मारा नहीं जाएगा,
क्योंकि पहली बात तो यह है कि गूजर बेहद ईमानदार कौम है, दूसरे
बनियों की वनकर्मियों से साँठ-गाँठ होती है। वे कर्ज की रकम
वसूलने के लिए गूजरों पर जुल्म करने से भी नहीं चूकते।
अभ्यारण्य से निर्वासन
इधर कुछ सालों से गूजरों पर मुसीबतें कुछ ज्यादा ही मेहरबान
रहीं हैं। बात यह हुई कि पश्चिमी देशों के दबाव में आकर इस देश
में भी राष्ट्रीय पार्कों व अभ्यारण्यों का निर्माण किया जाने
लगा। पर्यावरण संरक्षण और वन्य जीवों को बचाने के नाम पर शुरू
की गयी इस कार्रवाई में इनसानी हितों को अनदेखा कर दिया गया।
इसी क्रम में देहरादून, हरिद्वार और पौड़ी गढ़वाल के वन क्षेत्र
को जोड़कर राजाजी राष्ट्रीय पार्क बनाने की घोषणा की गयी। ८२०
वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस प्रस्तावित पार्क के
निर्माण की घोषणा १२ अगस्त १९८३ में हुई। पार्क क्षेत्र में
इन्सानी बस्तियाँ नहीं रह सकतीं इसलिए पार्क के बीच रह रहे
लोगों को हटाने की कोशिशें शुरू हो गयीं। उस दिन से गूजरों का
जीना हराम हो गया।
सन् १९९२ में तो गूजरों के लिए एक अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया
जब पहाड़ों से उतरकर अपने पशुओं के साथ गूजर घाटियों की ओर लौटे
तो उन्हें वन में घुसने से रोक दिया गया। इस अप्रत्याशित
कारगुजारी ने गूजरों को सकते में डाल दिय। उनकी आँखों के सामने
ही १६० भैंसों ने दम तोड़ दिया। इस पर गूजरों को साक्षर करने की
मुहिम में जुटे प्रो. अवधेश कौशल ने गूजरों के हक उन्हें वापस
दिलाने के लिए दौड़-भाग शुरू की। तब जाकर गूजर वन में घुस पाये।
कुछ समय तक पार्क अधिकारियों ने पार्क से उन्हें हटाने का
प्रयास किया और हरिद्वार के पास पथरी में एक कॉलोनी का निर्माण
कर गूजरों को वहाँ बसने के लिए हर तरह से दबाव डाला गया पर
गूजरों ने एक स्वर से पार्क से हटने और पथरी में बसने से
इन्कार कर दिया। गूजरों का तर्क है कि भैंसे पालकर अपना गुजर
करना उनका पेशा है। इसे वह छोड़ नहीं सकते। फिर पथरी में उनके
पशुओं के लिए कोई सुविधा नहीं है। ऐसे में उन्हें मजबूरन भैंसे
पालने का काम छोड़ना होगा। बहरहाल अब पहले वाली बात नहीं रही।
अपनी ही जिंदगी की कहानी
अब
गूजर अक्षर ज्ञान के महत्व को समझ रहे हैं। यह उनकी लड़ाई का
औजार बन सकता है, यह भी उन्हें समझ में आने लगा है। उसे पता चल
गया है कि जंगल में बने रहने की जद्दो-जहद में पढ़ाई से जरूर
फायदा होगा। साक्षरता कार्यक्रम के तहत पढ़ायी गयी किताब ‘नया
सफर’ से याद की गयी ‘विश्वनाथ सिंह की कविता’ को जब कोई गूजर
दोहराता है तो लगता है, वह अपनी ही जिंदगी की कहानी सुना रहा
हो:
‘‘हम गूजर जंगल के वासी, जंगल अपना घर है।
गाय भैंस जायदाद हमारी दूध हमारा धन है।
धरती जैसी छाती अपनी, पर्वत जैसा मन है।
घास फूस का डेरा अपना, कोई नहीं दरवाजा,
मेहनत करके हम खाते हैं हम जंगल के राजा।
दुनिया कितनी बदल गयी है, इसकी हमें खबर है।’’
१४ जुलाई २०१४ |