मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


प्रकृति और पर्यावरण

 

आकाश नीम और कृष्णा हल्दी
-मनीष मोहन गोरे


हम विरोधाभास में जी रहे हैं। साल में एक दिन पर्यावरण बचाने और पेड़ लगाने की बात करते हैं, पर फिर पेड़ों को भूल जाते हैं। मुझे अपने बचपन का एक पेड़ याद रहा है, शरदऋतू में इसपर रजनीगंधा से फूल झूम के खिलते और सुबह कुछ पीलापन लिए ये फूल पेड़ के नीचे झरे मिलते। करीब तीन इंच का खोखला डंठल, और उससे जुड़ी पाँच पंखुड़ी, सुबह इन फूलों को हम सब चुना करते। फूल पेड़ से जुदा होने के बाद भी मीठी खुशबू फैलाते होते। अंग्रेजों के लगाए ये दरख्त कम ही बचे हैं।

मैं आज तक इस पेड़ का सही नाम नहीं जान सका। साहित्य में इसे ‘आकाशनील/नीम’,वन अधिकारी हेमंत पांडे इसे ‘अगस्त’ का और बिलासपुर के जू के करीब वनविभाग की नर्सरी में इसे ‘कार्क’ बताया जाता है। नाम में क्या रखा है, इस पेड़ के गुणों पर मैं तो फ़िदा हूँ। दशहरे से होली तक यह पेड़ राहगीर को मुग्ध कर सकने की क्षमता जो रखता है। शरद की चाँदनी रातों में इस पेड़ की रंगत पूरे शबाब पर रहती है। दूर तक सुगंध फैली रहती है। रेलवे के स्टेडियम के पास दो पेड़ और कुछ और पेड़ बिलासपुर में शेष हैं। इसके बीज या फल नहीं होते। जड़ों के पास ‘पीके’ फूटते हैं और अलग लगाने पर चार-पाँच साल में फूल आने के साथ पेड़ बड़ा होता जाता है।

मैंने बड़ी कोशिश की इस पेड़ की वंशवृद्धि के लिए, वनाधिकारी एसडी बड्गैया ने रेंजर नाथ को भी लगाया पर कोई कामयाबी न मिली। इस बीते साल बारिश में वनविभाग की कानन पेंडारी स्थित नर्सरी गया था, बजरंग केडियाजी साथ थे, कुछ सागौन के पेड़ लिए तभी नर्सरी में तैयार इन पौधों पर नज़र पड़ी तो हैरत में आ गया। जिस पेड़ के पौधों को मैं तैयार नहीं करा सका वे यहाँ सैकड़ों में थे। दर कोई खास नहीं-दस रूपये का एक पौधा। पता चला यहाँ कार्यरत श्री शर्मा और श्री जायसवाल ने निजी रूचि लेते हुए इनको तैयार कराया है। वहाँ काम करने वालों ने इसका नाम‘कार्क’बताया। हमने कुछ पेड़ लिए जो बड़े हो रहे हैं।

बिलासपुर हरी-भरी नगरी रही है। यहाँ लगाये नीम के पेड़ का दातून तोड़ने वाले को कलेक्टर आर.पी मंडल का झापड़ खाना पड़ा था। पर आज दशा बदल गई है। नीम के पेड़ को बचाने युवा नदी के किनारे रात दिन बैठे हैं और प्रशासन इसे काटने के लिए तुला है। ये युवक पर्यावरण से अनुराग रखते हैं। इस नई पीढ़ी को कल की फ़िक्र है। जब मैंने इनको इन सुगन्धित फूलों के पेड़ के विषय में बताया तो वे नर्सरी पहुँचे और इस विलुप्त हो रहे पेड़ के बड़े पैमाने में इस मानसून में लगाये जाने की संभावना उदित हो गई है। आप भी अपने इलाके में विलुप्त हो रहे पेड़ों को जरूर लगाइए।
[इस पेड़ का सही नाम मुझे मिल गया है वो है-आकाशनीम [milingtonia hortensis] सटीक जानकारी देने के लिए त्रिवेदी निखलेश जी का आभार ] यह चित्र बाद में ७ नवंबर २०१३ को जोड़ा गया।

अमरकंटक की घाटी में न जाने कौन-कौन सी वनौषधियाँ आज भी अपरिचित हैं। शिवरात्रि के वक्त जब यहाँ मेला लगता है, तब बैगा आदिवासी मेले में भाँति-भाँति की जड़ी-बूटी ले कर विक्रय के लिए पहुँचते हैं। मैं जब अपने पिताजी के साथ बचपन में अमरकंटक जाता तब इन जड़ी-बूटियों को हैरत से देखता। वक्त गुजरता गया! बिलासपुर के माटी पुत्र राजनीतिक और साहित्यकार श्रीकांत वर्माजी के देहावसान बाद उनकी धर्मपत्नी श्रीमती वीणा वर्मा राज्यसभा की सदस्य बनी। उन्होंने सांसद निधि को बिलासपुर के विकास कार्यो में लगाना शुरू किया। बीआर यादव मप्र के वन मंत्री थे। सन १९९४-९५ की बात होगी, श्री यादव ने मुझे कहा-वीणाजी अमरकंटक देखना चाहती हैं, आप साथ चले जाएँ। बस फिर अगले दिन वीणाजी, मैं, मेरी बेटी प्रिया और रामबाबू सोंथालियाजी का सुपुत्र मोनू कार से निकल पड़े।

अमरकंटक की बिलासपुर से दूरी १२५ किमी है। यह रास्ता अचानकमार सेंचुरी [अब टाइगर रिजर्व] से हो कर गुजरता है। श्रीमती वीणा वर्माजी से मेरा रिश्ता भाई-बहन का है। मैंने बताया कि जिस राह से गुजर रहे हैं, वो बैगा बाहुल्य है। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि किसी बैगा गाँव को देखा जाये। राह में लमनी पड़ा। इस गाँव से मैं परिचित था। वहाँ रुके तो वनकर्मी भी साथ हो लिए। गाँव का मुखिया हमें गाँव दिखाने ले चला। मिट्टी से बने घर, छत खपरों के। बैगा जनजाति श्रृंगार प्रिय होती है। महिलाओं का गोदना, गले में लाल छोटे मोतियों की ढेर सी मालाएँ देख वे दंग रह गईं। तब बैगा पुरुष भी सिर पर बाल रखते थे। गाँव काफी दूर तक फैला है।

बैगा जड़ी-बूटी की चिकित्सा का ज्ञान रखते हैं। मैंनें वीणाजी को बताया कि अमरकंटक की इस घाटी में कभी काली हल्दी मिलती थी पर कभी देखी नहीं है। गाँव का मुखिया अपने घर ले आया और चारपाई बिछा कर बैठाया। कुछ देर बाद वो कुदाल लाया और आँगन में केले के पेड़ के नीचे से कोई‘जड़ी’खोद लाया। गाढ़ा नीला-काला द्रव उससे निकल रहा था। अक्टूबर-नवम्बर चल रहा होगा, हल्दी की गाँठ बन गई थी। सुगंध से समझ आ गया कि यही काली हल्दी है। उसके पत्ते सूख चुके थे, मुखिया ने दो गाँठ काली हल्दी की हमें दी, हमने जब पैसा पूछा तो उसने लेने से इंकार कर दिया।

काली हल्दी की गाँठ वीणा जी अपने साथ दिल्ली ले गईं, मैंने घर आकर उसे एक क्यारी में लगा दिया। पहली बरसात के साथ उसके पीके फूट पड़े और हर साल बढ़ते गए। आज मेरे घर और फार्म हॉउस में काली हल्दी काफी उगी है। इसके पत्तों में हल्दी सी खुशबू होती है, पर पत्तों के मध्य काली पट्टी होती है। इसे कृष्णा हरिद्रा भी कहते हैं। आम हल्दी की भाँति इसे सेवन नहीं किया जाता, पर बताया जाता है कि इसमें मजबूत एन्टीबायोटिक गुण होते हैं। कुछ तंत्र-मन्त्र को मानने वाले इसे खोजते मिलते हैं। अमरकंटक के पहाड़ों पर ये यदाकदा दिखती है तो लगता है कि कभी दुर्लभ काली हल्दी आज लुप्त होने के खतरे में नहीं।

२० जनवरी २०१४

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।