१
सरस धारा
सरस्वती
-डॉ. संतोष सिंह
जल प्राणिमात्र
के अस्तित्व के लिए एक अनिवार्यता है। विकास के क्रम में
प्राचीन मानव ने इस सत्य को जानकर, समझकर हृदयंगम किया एवं
जीवन के गूढ़ अर्थों से जोड़ते हूए उसे परम-शक्ति माना। यह मानव
जाति को पृथ्वी पर एक वरदान था। मानों प्रकृति की विशाल उदार
भावना का प्रतीक था। इस प्राकृतिक संपदा की अनमोल गुणवत्ता को
देखकर मर्त्य मानव अभिभूत हो उठा और उसने इसे 'माँ' कहकर
पुकारा। न केवल आदम की माँ अपितु संपूर्ण धरा की माँ। सप्त
मातृ शक्ति-स्वरूपों में से एक है, जल।
आयं गौः पृश्रिर क्रमीदस दन्मातरं पुरः।
पितरं च प्रयंत्स्व।।
(सामवेद:अरण्य काँड, पाँच, ६३०)
जल-बहता हुआ जल, वास्तव में प्रतीक है जीवंतता का। सचेतनता,
निरंतरता, गतिशीलता एवं प्रगति का। यही बहता जल मानो चेतावनी
भी देता है-मुझे बाँधो मत। मुझे पकड़ने का प्रयास मत करो। वरना
मैं अभिशाप बन सब कुछ विनष्ट भी कर सकता हूँ। मेरे साथ चलो।
चरैवेति। चरैवेति। यही वह सत्य था,
जिसे आदि-मानव ने जानकर, कल-कल निनाद करती सरिता को ईश्वरीय
सत्ता के समकक्ष रख उसका पूजन किया तथा उसके पवित्र रूवरूप को
बनाये रखने का प्रयास भी किया। इसलिए नदियों को 'माँ' कहकर
पुकारा गया। सामान्य भाषा में सरसुती या सुरसती अर्थात्
सरस्वती-इस परंपरा की पहली कड़ी है।
आदिकालीन आराध्या
वास्तव में सरस्वती एक आदिकालीन आराध्या हैं। संभवतः वह
एकमात्र ऐसी देवी है जिसका महत्व वैदिक युग से लेकर आज तक
अक्षुण्ण बना हुआ है, जबकि वैदिक युग की अन्य मातृशक्तियों
(अदिति, पृथ्वी, ऊषा, मही, इडा आदि) का महत्व क्रमशः घटते-घटते
लोप ही हो गया। इसके और चाहे जो भी कारण रहे हों, किंतु जो
तथ्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, वह है स्वयं सरस्वती
का परिवर्तनशील स्वरूप-गुण। इस प्रक्रिया में निरंतर परिष्कृत
तथा परिमार्जित लक्ष्य-साधना का आदर्श बन पाने की योग्यता ही
कारण है सरस्वती की अपूर्व अलौकिक दिव्यता का। स्वयं के विकास
के क्रम में, विभिन्न स्वरूप धारण करती हुई सरस्वती अंततोगत्वा
ज्ञान की अधिष्टात्री देवी माँ भगवती बन प्रतिष्ठित हुई। यही
कारण है नित-नवीन शक्ति स्वरूपों के उदित होने के उपरांत भी
सरस्वती की गरिमा जरा भी क्षीण नहीं हुई है। वह आज भी महा
सरस्वती के रूप में जन-चेतना कर राज्य करती है। हालाँकि, आज
फिर सरस्वती के अर्थ बदल गये हैं।
सरस से ब्रह्माणी तक
यों तो सरस्वती का पूजन अनेक रूपों में किया जाता रहा है किंतु
मुख्यतया वह तीन रूपों में सामने आती है-प्राकृतिक शक्ति,
निराकार-दुर्बोध मानसिक शक्ति तथा एहिक मातृ स्वरूप। वेदों के
समय में सरस्वती के प्राकृतिक तथा मानसिक शक्ति दोनों ही
स्वरूप दिखायी देते हैं किंतु प्रारंभ में प्राकृतिक स्वरूप ही
उभरकर सामने आता है। अपने इस रूप में सरस्वती जीवनदायिनी सरिता
है। सरस्वती अर्थात जल-प्रवाह। यूँ भी सरस्वती का शाब्दिक अर्थ
है- जलीय, जलयुक्त, जलपूर्ण या जलवत्। सरस शब्द का तात्पर्य
है- जल का प्रवाह। प्रारंभिक कार्यों के लिए सरस्वती एक
महत्वपूर्ण सरिता थी, जो कि दिव्य गुणों से युक्त थी। उनका
विश्वास था कि इस नदी की उत्पत्ति स्वयं ईश्वर के हाथों हुई
थी। इसी के तट पर वह अपने संस्कार समारोह तथा अनुष्ठान इत्यादि
पूरे किया करते थे।
शब्द एक: अर्थ अनेक
ऋग्वेद में सरस्वती शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में हुआ है।
अरकोशिया में बहने वाली जल-धारा यदि सरस्वती थी, जो मध्य देश
में बहने वाली नदी भी सरस्वती ही थी। सरस्वती को सप्त सिंधु
में सर्वश्रेष्ठ माना गया (सिंधु, वितस्ता, विपाशा, सतद्रु,
अक्षिणी, परुश्री तथा सरस्वती को सप्त सिंधु की संज्ञा दी गयी
थी) सप्तथि सिंधु मात्र के विशेषण निश्चित ही इस नदी का स्तर
अन्य सरिताओं से ऊँचा उठा देते हैं, सप्तऋषि जो कि विद्वता तथा
ज्ञान में ईश्वर के समान जाने जाते थे, वो भी इस ज्ञान को
सरस्वती का वरदान मानते थे।
वैतरणी भी सरस्वती
'अम्बतामि नंदतामि देवतामि सरस्वती'
कर्दम ऋषि तथा नारायण ने भी सरस्वती के तट पर ही विद्वता एवं
दैवी ज्ञान प्राप्त किया था। यही नहीं, मृत्युलोक तथा
मर्त्यलोक के बीच की सीमा अर्थात वैतरणी नदी को भी सरस्वती कहा
जाता था। यम संहिता के एक स्तोत्र में इसी सरस्वती को विशिष्ट
पावन कहकर संबोधित किया गया है। अथर्ववेद के अनुसार, मृतकों से
संबधित संस्कारों को पूर्ण करने का एक तरीका सरस्वती पूजन है।
सौनकिनों में प्रचलित एक परंपरानुसार अर्थों को अग्नि देने के
उपरांत सर्वप्रथम यम का, तत्पश्चात सरस्वती नदी का पूजन किया
जाता था। यहाँ सरस्वती एक ऐसी जल धारा के रूप में सामने आती
है, जो मृतात्माओं को मर्त्यलोक से अलग करती है। जीवन को
मृत्यु से विलग करने वाली यह वैतरणी रूपी सरस्वती आकाश एवं
पृथ्वी दोनों ही विश्व में निरंतर निर्बाध बहने वाली मानी जाती
थी।
वैदिक सभ्यता में
वैदिक युग में ही भौमिक एवं प्राकृतिक स्वरूप के साथ ही
सरस्वती ने आध्यात्मिक एवं दैवी रूप ले लिया था। वैदिक सभ्यता
के उत्कर्ष के साथ-साथ सरस्वती के कार्य क्षेत्र तथा स्वरूप
में भी वैभिन्नय आता गया। सोमपान करने से रोगग्रस्त हो गये
इंद्र का वह आश्विन के साथ मिलकर उपचार करती हैं। ऐसा प्रतीत
होता है कि सरस्वती नदी का जल संभवतः वही गुण रखता होगा, जो आज
गंगा के जल में पाया जाता है, यह दूसरी बात है कि आज गंगाजल भी
दूषित हो चला है तथा धीरे-धीरे अपने पवित्र स्वरूप को खोता जा
रहा है। संभवतः वैदिक मानव के लिए सरस्वती वही स्थान रखती
होगी, जो आज गंगा का है, भारतीयों के सांस्कृतिक एवं सामाजिक
जीवन में। इसीलिए वह कल्याणकारी माँ के रूप में प्रतिष्ठित हुई
तथा अन्य नदियों की अपेक्षा सर्वश्रेष्ठ मानी गयी।
'मारूत सखा-सरस्वती'
सरस्वती का दूसरा नाम मारूतवती भी है चूँकि, वह मारूत की मित्र
है इसलिए मारूत सखा भी कहलायी है। कहीं-कहीं सरस्वती को
अमावस्या कहकर भी संबोधित किया गया है। वैदिक युग की तीन मुख्य
शक्तियों में से एक है सरस्वती। (इड़ा, मही एवं सरस्वती) ऊर्जा
का संचार करने वाली सरस्वती का आवाहन इड़ा अर्थात मातृभाषा के
साथ किया जाता था।
तिस्त्रो वाच उदिरते गावो मिमन्ति धेनवः। हरिरेति कनिक्रदत्।।
(सामवेद, १, २:८६९)
सरस्वती के साथ सरस्वान का भी आवाहन किया जाता था, जो संभवतः
सरस्वती का पुरुष प्रतिरूप था।
प्रकृति के रूप में निराकार मानसिक शक्ति के रूप में सरस्वती
जब सामने आती है, तब वह 'सप्त स्वर' कहलाती है।
'उत नः प्रिया प्रियासु सप्त स्वसा सुजुष्टा। सरस्वती स्तोम्या
भूत्।।' (सामवेद, ६ -१ -१४६१)
अपने इसी रूप में वह सर्वाधिक गरिमामयी एवं सर्वाधिक प्रिय
दैवी शक्ति है।
पापविमोचन संस्कार
आगे चलकर एक 'पा' विमोचन संस्कार को भी सरस्वती संस्कार की
संज्ञा दी गयी। भाषा विज्ञान की एक शाखा, जिसका संबंध उच्चारण
तथा स्वानिकी से है, को शिक्षा कहा जाता था। शब्दों के
दोषपूर्ण प्रयोग तथा दोषायुक्त उच्चारण न करने हेतु कठिन नियम
बनाये गये थे। विशेषकर संस्कार अथवा अनुष्ठान के समय दोषपूर्ण
उच्चारण किये जाने पर व्यक्ति को एक पाप-विमोचन संस्कार अर्थात
सरस्वती संस्कार को पूरा करना पड़ता था। ऐसा प्रतीत होता है कि
यहीं से एक नदी की आराधना ने ज्ञान की साधना का गरिमामय स्वरूप
ग्रहण किया। शिक्षा के इस संस्कार तथा प्रकृति पूजा दोनों ने
ही एक रूप हो एक नवीन महिमामयी सरस्वती का निर्माण किया और
सरस्वती को सत्य का संदेश चराचर जगत में प्रसारित करने वाली,
प्राणिमात्र में चेतना का संचार करने वाली तथा मानव को शिक्षित
रूप प्रदान करने वाली एकमात्र अधिष्ठात्री देवी के रूप में
प्रतिष्ठित किया।
"महो अरण्या सरस्वती प्रशेतयाति"
वाक् देवी
भाषा तथा उच्चारण से संबंध स्थापित होने के कारण ही सरस्वती को
'वाक् देवी' भी कहा जाता है। वाक् शब्द का अर्थ है-दैवीय
विचारों का प्रवाह-दैवीय भाषा का प्रवाह। ऋग्वेद में भी
सरस्वती के जल-प्रवाह की तुलना निपुण वाक्-शक्ति कुशलता के
प्रवाह से की गयी है। वह न केवल ज्ञान की प्रेरणा है अपितु
साहित्य तथा विज्ञान की प्रश्रयदाता भी है। सामवेद में सरस्वती
के इसी स्वरूप की पूजा की गयी है।
"पावका नः सरस्वती वाजेभिवां जिनीवती।
यज्ञं वष्टु धियावसुः।।"
कठोपनिषद् में सरस्वती ने स्वयं मानव जाति को उद्बोधित करते
हुए कहा, 'उठो। जागो। जागृत एवं ज्ञानी जन के सन्निकट हो
ज्ञानवान होओ।' संभवतः इसलिए वह शारदा भी कहलायी। शारदा अर्थात
ज्ञान प्रदान करने में सक्षम। शनैः-शनैः सरस्वती से लौकिक
वरदानों की प्राप्ति को भी जोड़ा जाने लगा। संतानोत्पत्ति,
विवाह तथा गृहस्थ जीवन से संबंधित संस्कारों को पूर्ण करने
हेतु तथा सफल बनाने हेतु भी सरस्वती का आवाहन किया जाने लगा।
ब्रह्मा से संबंध
प्राकृतिक स्वरूप तथा मानसिक विश्व से एकरूप होने के उपरांत जब
सरस्वती को सांसारिक इच्छाओं से जोड़ा गया संभवतः तभी उसका
संबंध ब्रह्मा से भी बना। संतति प्रदान करने तथा संतति की
रक्षा एवं पालन करने के दायित्व को ग्रहण करने के कारण ही
सरस्वती ब्रह्मा का अंश बनी, जो कि निर्माण प्रक्रिया से जुड़ा
दैवीय भाव था। अथर्ववेद में वह ब्रह्मा की पुत्री है। वैदिक
युग में सरस्वती एकमात्र ऐसी नारी शक्ति के रूप में है, जिसकी
स्वतंत्र सत्ता अक्षुण्ण है। यद्यपि कालांतर में सरस्वती को
ब्रह्मा की पत्नी का जामा पहनाकर ब्रह्माणी, ब्राह्मी तथा
सावित्री नाम दिये गये।
पौराणिक युग में
पौराणिक युग तक आते-आते सरस्वती एक पुत्र की माँ के रूप में
सामने आती है- पुत्र सारस्वत। महाभारत की एक कथा के अनुसार,
भयंकर अकाल एवं सूखे के पड़ने पर सरस्वती अपने इस पुत्र की
रक्षा, पुत्र को मछलियाँ उपलब्ध कराकर करती है। ऐसी जीवनदायिनी
माँ को प्रसन्न करने हेतु उनके स्तोत्रों की रचना की गयी।
ऋग्वेद के दसवें मंडल को देवी सूक्त ही कहा जाता है जिसमें
सरस्वती की वंदना वाक् देवी के रूप में की गयी है वह वेदों की
माँ है। ऋषि एवं मुनियों के लिए, प्रज्ज्वलित दीप है। संस्कृत
भाषा की जननी, संगीत एवं कला देवी तथा मानव-सभ्यता की प्रणेता
है।
क्यों खो गयी सरस्वती?
ऐसी गरिमामयी महीयसी सरस्वती आज कहाँ है? कहाँ विलुप्त हो गयी
और भला क्योंकर? आज सरस्वती का रूप ज्ञान की देवी केवल नाम के
लिए तथा ब्रह्मा की पत्नी के रूप में संकुचित होकर रह गया है।
सिमट गया है तथा सरस्वती का पूजन मात्र एक धार्मिक कर्म कांड
(वह भी विशिष्ट अवसर पर ही) बनकर रह गया है। अपने सच्चे अर्थ
सरस्वती का बृहद स्वरूप खो चुका है। वह उसका चाहे कोई भी रूप
हो प्राकृतिक रूप नदी अथवा मानसिक शक्ति। नदी के रूप में
सरस्वती के विलुप्त होने की अनेकों कथाएँ हैं जो प्रतीक रूप
में आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि प्राचीन युग में रही
होंगी। मात्र पौराणिक कथा कहकर उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
एक स्थान पर प्रसंग है कि ऋषि उतथ्य ने नदी को धरती के गर्भ
में समाहित कर दिया एक दूसरा प्रसंग है कि दस्यु अभीरा ने
सरस्वती को अपने नियंत्रण में रखने की योजना बनायी जिसे जानकर
सरस्वती धरती के गर्भ में छिप गयी।
एक अन्य महत्वपूर्ण कथा है इस संबंध में। शिव को ब्रह्म हत्या
का दोष लगा। उस दोष से मुक्ति तब ही संभव थी जब वह सरस्वती के
जल से पवित्र हों। सरस्वती ने शिव को क्षमा न करने के उद्देश्य
से धरती के गर्भ में लुप्त होने का निर्णय ले लिया।
ब्रह्मा ने सरस्वती को आदेश दिया कि वह ज्वालामुखी
बदावा को समुद्र में बहा दे। बदावा के संपर्क में आने से नदी
का जल खौलता हुआ समुद्र बन गया। पृथ्वी जलने से नष्ट न हो जाए
इसलिए सरस्वती ने धरती के गर्भ में समाकर ज्वालामुखी बदावा को
भूगर्भ के गुप्त मार्ग से ले जाकर समुद्र में डुबो दिया, किंतु
फिर स्वयं भी धरती पर पुनः प्रवाहित न हो सकी।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार विश्वामित्र ने ऋषि
वशिष्ठ से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के प्रयास में सरस्वती के
जल को रक्तरंजित कर दिया। इस लज्जा से सरस्वती धरती में विलीन
हो गयी।
यों तो यह सभी धार्मिक मिथक है। किंतु यह स्पष्ट होता है कि
जब-जब मानव ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का प्रयास किया है,
वह उसके लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ है। सरस्वती का खोना इसका
प्रतीक है। अनुपम गुणों से युक्त जल-प्रवाह मानव का साथ सदा के
लिए छोड़ गया। ज्ञान की देवी के रूप में भी आज सरस्वती कहीं
ढूँढे नहीं मिलती।
१८ नवंबर २०१३ |