कचरे का
कमाल
-स्वदेशी
बात है
कुछ साल-डेढ़ साल पहले की। हम और हमारी पत्नीजी कोलकाता से
मुंबई आ रहे थे। गीतांजलि एक्सप्रेस का वातानुकूलित डिब्बा
और हमारी सामने वाली सीट पर एक सज्जन और उनकी पत्नीजी आकर
विराजमान हुए। महोदय लगभग ४५ से ५० साल की उम्र के होंगे,
महोदया विदेशी थीं। थोड़ी ही देर में ज्ञात हुआ के महोदय
मध्य-पूर्व के किसी देश में अभियंता के रूप में कार्यरत
हैं, खुशी की बात है! थोड़ी देर में चायवाला आया। महोदय ने
चाय की एक प्याली ख़रीदी और अपनी पत्नी को देने लगे ज्ञान,
"देखो कितनी सहूलियत है, चाय पियो और खाली प्याली फेंक दो।
प्लास्टिक जैसी सस्ती चीज़ छोड़कर हमारे रेलवे मंत्री कहते
हैं कि मिट्टी के कुल्हड़ इस्तेमाल करो।" अब कुल्हड़ कितने
काम की चीज़ है यह विवाद फिर कभी। लेकिन सोचिए यह कि "यूज़
एंड थ्रो" वाली आदत हमें किस कदर संकट में डाल सकती है!
सन
२००३-२००४ में भारत में लगभग ४२ लाख टन प्लास्टिक का
इस्तेमाल हुआ। सन २०१० तक यही आँकड़ा १२५ लाख टन हो जाएगा
और भारत दुनिया का तीसरा सबसे ज़्यादा प्लास्टिक इस्तेमाल
करने वाला देश बन जाएगा। और हम लोग इस प्लास्टिक को
इस्तेमाल करके, जैसा कि उन सज्जन ने भी कहा फेंक देंगे।
फिर चाहें वह जाकर नदी नालों में अवरोध पैदा करे, गाय
भैंसों के पेट में जाकर उन्हें मारता रहे। अब कई राज्य
सरकारों ने प्लास्टिक की थैलियों पर पाबंदी लगा दी है
लेकिन फिर भी प्लास्टिक अलग-अलग रूप में इस्तेमाल तो होगा
ही और हमारे भविष्य के लिए ख़तरा बनेगा।
किसी भी प्लास्टिक को प्राकृतिक रूप से विघटित होने के लिए
लगभग १० लाख साल तक लग सकते हैं। यह समस्या सिर्फ हमारे
देश की ही नहीं है, सारी दुनिया इससे परेशान है।
अच्छी ख़बर ये है कि इस समस्या का समाधान हमारे देश की एक
महिला वैज्ञानिक ने ढूँढ निकाला है। नागपुर महाराष्ट्र
के एक इंजीनियरिंग
महाविद्यालय की प्राध्यापिका श्रीमती अलका झाडगांवकर ने एक
ऐसी प्रणाली की खोज की है जिससे प्लास्टिक को इंर्धन मे
परिवर्तित किया जा सकता है। वैसे तो प्लास्टिक का निर्माण
पेट्रोलियम मतलब खनिज तेल से ही होता है लेकिन उसे फिर से
खनिज तेल में परिवर्तित करना बड़ा ही मुश्किल और महंगा काम
होता है। लेकिन यह नयी प्रक्रिया
दुनिया की सबसे पहली प्रक्रिया है जिसमें किसी भी प्रकार
की प्लास्टिक बिना किसी साफ़-सफ़ाई के सुरक्षित ढंग
से इस्तेमाल की जा सकती है
और वह भी व्यावसायिक स्र्प से! प्रो. झाडगांवकर के अनुसार
औसतन ९. ५० रू की लागत से १ किलोग्राम प्लास्टिक से ०.६
लिटर पेट्रोल ०.३ लिटर डीज़ल व ०.१ लिटर दूसरे प्रकार के
तेल का निर्माण किया जा सकता है जिसकी कीमत लगभग ३१.६५ रू.
ह़ै।
इन
सब चीज़ों से भी महत्वपूर्ण बात ये कि प्रो. झ़ाडगांवकर की
यह खोज सिऱ्फ एक तज़ुर्बा बन कर ही नहीं रही, उसके
व्यावसायिक स्र्प से इस्तेमाल का बीड़ा भी उन्हीं ने उठाया
है। और इस काम में उनका साथ दे रहे हैं उनके पति श्री उमेश
झाडगांवकर। भारतीय
स्टेट बैंक से ५ करोड़ रुपये कर्ज लेकर २००५ में उन्होंने
पहला संयंत्र शुरू किया जो एक दिन में लगभग ५००० किलोग्राम
प्लास्टिक को इंर्धन में बदल देता है। इस ईंधन को पास ही
के कारखाने खरीदते हैं। अब इससे भी बड़ा २५००० किलोग्राम
(२५ टन) प्रति दिन क्षमता वाला संयंत्र बनाया जा रहा है,
जिससे बनने वाले इंर्धन की पूरी बुकिंग अभी से हो चुकी है!
नागपुर शहर प्रतिदिन ३५ टन प्लास्टिक कचरा इकठ्ठा करता है।
इसका मतलब जल्दी ही
झाडगाँवकर परिवार को किसी और शहर मे अपने संयंत्र लगाने
होंगे।
आशा है कि उनके इन प्रयासों को सफलता मिलेगी और सारी
दुनिया को इस भयावह समस्या से छुटकारा मिलेगा। हमें भी इस
प्रक्रिया में उनका हाथ बँटाना है। कैसे? अगर हम सब ध्यान
रखें कि प्लास्टिक के सामान को सही तरीके से जमा करके अलग
से रखा जाय जिससे कि वह अन्य कचरे में ना मिले और उसका
निस्तारण व इस्तेमाल ठीक ढंग से हो।
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