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                   सागर की संतानें- अल–नीनो एवं ला–नीना
 —प्रभात कुमार
 
 अल–नीनो और 
					ला–नीना जैसे शब्द सुनकर आप यह न समझ बैठें किसी बच्चे के अरबी 
					में नामाकरण पर चर्चा हो रही है। स्पेनी भाषा के इस 
					अतिमहत्वपूर्ण भौगोलिक शब्द का अर्थ क्रमशः ‘छोटा लड़का’ तथा 
					‘छोटी लड़की’ है। अल–नीनो शब्द का अर्थ ‘शिशु क्राइस्ट’ भी है 
					जो इस शब्द के उत्पत्ति से संबंध रखता है। आरंभ में, दक्षिणी 
					अमेरिका के पश्चिम तटीय देश पेरू एवं इक्वेडोर के समुद्री 
					मछुआरों द्वारा, प्रतिवर्ष क्रिसमस के आसपास प्रशांत महासागरीय 
					धारा के तापमान में होनेवाली वृद्धि को अल नीनो (Al Niño) कहा 
					जाता था। किंतु आज इस शब्द का इस्तेमाल उष्णकटिबंधीय क्षेत्र 
					में केन्द्रीय और पूर्वी प्रशांत महासागरीय जल के औसत सतही 
					तापमान में कुछ अंतराल पर असामान्य रूप से होने वाली वृद्धि और 
					इसके परिणामस्वरूप होनेवाले विश्वव्यापी प्रभाव के लिए किया 
					जाता है। १९६० ईस्वी 
					के आसपास अलनीनो के प्रभाव को व्यापक रूप से आँका गया और पता 
					चला कि यह ‘बाल शिशु’ सिर्फ पेरू के तटीय हिस्सों में नहीं 
					घूमता बल्कि हिंद महासागर की मौनसूनी हवाएँ भी इसके इशारे पर 
					नाचती हैं। पेरू के इस लाडले ने अपना प्रभाव संपूर्ण 
					उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र की बाढ़ लाने वाली भारी वर्षा से 
					लेकर आस्ट्रेलिया में पड़नेवाले सूखे तक बना रखा है। अल–नीनो की 
					छोटी बहन ला–नीना (La Niña) स्वभाव में ठीक इसके विपरीत है 
					क्योंकि इसके आने पर विषुवतीय प्रशांत महासागर के पूर्वी तथा 
					मध्य भाग में समुद्री सतह के औसत तापमान में असामान्य रूप से 
					ठंडी स्थिति पायी जाती है। कई मौसम विज्ञानी इसे ‘अल वेइजो’ 
					अथवा ‘कोल्ड इवेंट’ कहना पसंद करते हैं।  विषुवतीय 
					प्रशांत क्षेत्र में २ से लेकर ७ वर्ष के अंतराल पर असामान्य 
					रूप से आने वाली अल–नीनो की स्थिति के चलते समुद्र सतह का औसत 
					तापमान ५ डिग्री तक बढ जाता है और व्यापारिक पवनों में वृहत 
					पैमाने पर कमी आती है। 
 आप सोच रहे होंगे कि इतनी ताप–वृद्धि से क्या होता है? कूलर 
					ज्यादा चलेगा और बिजली का खर्च थोड़ा और बढ जायगा! लेकिन इसे 
					इतने हल्के ढंग से लेने की भी बात नहीं। प्रकृति के सारे नियम 
					तथा इसकी क्रियाएँ इतनी अनुशासित हैं कि थोड़ा सा हेरफेर ही बहुत 
					नुकसान कर जाता है। आप अमेरिका में बैठे हों या भारत में, 
					इन्डोनेशियाई तट पर हों अथवा आस्ट्रेलिया में, अल नीनो अपनी 
					ताकत का अहसास हर जगह करा सकता है। यह ऐसा अतिथि है कि एक बार 
					आ जाए तो लगभग सालभर जाने का नाम ही नहीं लेता! बिन बुलाए ऐसे 
					मेहमान से आप अगर सावधान 
					रहना चाहते हैं तो इसके इतिहास और भूगोल पर एक नजर अवश्य डाल 
					लें।
 
 अल नीनो की घटना हमेशा से आती रही है किंतु वैज्ञानिक तौर पर 
					इसकी व्याख्या १९६० के आसपास की गई। लगभग १०० वर्ष पूर्व से 
					उपलब्ध आँकड़े यह बताते हैं कि शहरीकरण और औद्योगिकरण के पूर्व 
					से ही अल–नीनो आते रहे हैं इसलिए प्रदूषण या ग्लोबल वार्मिंग 
					को लेकर इसके बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं। इस भौगोलिक 
					अनियमितता के प्रति १८९१ इस्वी में पेरू की राजधानी लीमा में 
					वहाँ की भौगोलिक सोसाईटी के अध्यक्ष डा. लुईस कैरेंजा ने एक 
					बुलेटिन में पीटा और पैकासाम्यो बंदरगाह के बीच पेरू जलधारा के 
					विपरीत उत्तर से दक्षिण की ओर बहनेवाली प्रतिजलधारा की ओर 
					सर्वप्रथम ध्यान आकृष्ट किया। पीटा बंदरगाह के समुद्री मछुआरों 
					ने ही सबसे पहले इसे अल–नीनो नाम दिया।
 
 अल–नीनो की भौगोलिक संरचना-
 
 अल–नीनो की घटना में छिपा 
					मौसम विज्ञान तथा इसके भौगोलिक विस्तार पर १९६९ में 
					कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस ऐंजिल्स के प्रोफेसर जैकॉब 
					व्येरकेंस ने पूर्ण विस्तार से प्रकाश डाला। अल–नीनो की 
					भौगोलिक संरचना को समझने के लिए एक अन्य पद को समझना होगा जिसे 
					भूगोल की भाषा में ‘दक्षिणी कंपन’ कहा जाता है। यह एक प्रकार 
					की वायुमंडलीय दोलन की अवस्था है जिसमें प्रशांत महासागर तथा 
					हिंद–आस्ट्रेलियाई महासागर क्षेत्र के वायुदाब में विपरीत 
					स्थिति पाई जाती है। १९२३ ईस्वी में सर गिलवर्ट वाकर, जो उस 
					समय भारत मौसम विभाग के अध्यक्ष थे, ने पहली बार यह बताया कि 
					जब प्रशांत महासागर में उच्च दाब की स्थिति होती है तब अफ्रीका 
					से लेकर आस्ट्रेलिया तक हिंद महासागर के दक्षिणी हिस्से में 
					निम्न दाब की स्थिति पायी जाती है। इस घटना को उन्होने दक्षिणी 
					कंपन का नाम दिया।
 दक्षिणी कंपन 
					की अवस्था की माप के लिए ‘दक्षिणी कंपन सूचिकांक’ (Southern 
					Oscillation Index) का प्रयोग किया जाता है। सूचिकांक की माप 
					के लिए डारविन, आस्ट्रलिया, ताहिती एवं अन्य केंद्रो पर 
					समुद्री सतह पर वायुदाब को मापा जाता है। सूचिकांक का ऋणात्मक 
					मान अल–नीनो की स्थिति का सूचक है जबकि धनात्मक मान ला–नीना की 
					स्थिति दर्शाता है। अल–नीनो तथा दक्षिणी कंपन (Southern 
					Oscillation) की संपूर्ण घटना को एक साथ ‘ईएनएसओ’ (ENSO)  
					कहा जाता है जिसका चक्र ३ से ७ वर्ष के बीच होता है। इस 
					भौगोलिक चक्र में ला–नीना या ठंडी जलधारा वाली स्थिति भी शामिल 
					होती है। हाल के वर्षो में १९७२, १९७६, १९८२, १९८७, १९९१, 
					१९९४, तथा १९९७ के वर्षो में व्यापक तौर पर अल–नीनो का प्रभाव 
					दर्ज किया गया जिसमें वर्ष १९८२–८३ तथा १९९७–९८ में इस घटना का 
					प्रभाव सर्वाधिक रहा है। 
 अल–नीनो का 
					जलवायु विज्ञान-
 
 अल नीनो जलवायु तंत्र की एक ऐसी 
					बड़ी घटना है जो मूल रूप से भूमध्यरेखा के आसपास प्रशांत– 
					क्षेत्र में घटती है किंतु पृथ्वी के सभी जलवायवीय चक्र इससे 
					प्रभावित है। इसका रचना संसार लगभग १२० डिग्री पूर्वी देशांतर 
					के आसपास इन्डोनेशियाई द्वीप क्षेत्र से लेकर ८० डिग्री 
					पश्चिमी देशांतर यानी मेक्सिको और दक्षिण अमेरिकी पेरू तट तक, 
					संपूर्ण उष्ण क्षेत्रीय प्रशांत महासागर में फैला है। समुद्री 
					जलसतह के ताप–वितरण में अंतर तथा सागर तल के ऊपर से बहनेवाली 
					हवाओं के बीच अंतर्क्रिया का परिणाम ही अलनीनो तथा अलनीना है। 
					पृथ्वी के भूमध्यक्षेत्र में सूर्य की गर्मी चूँकि सालभर पड़ती 
					है इसलिए इस भाग में हवाएँ गर्म होकर ऊपर की ओर उठती हैं। इससे 
					उत्पन्न खाली स्थान को भरने के लिए उपोष्ण क्षेत्र से ठंडी 
					हवाएँ आगे आती है किंतु ‘कोरिएलिस प्रभाव’ के चलते दक्षिणी 
					गोलार्ध की हवाएँ बायीं ओर और उत्तरी गोलार्ध की हवाएँ दायीं 
					ओर मुड़ जाती हैं। प्रशांत महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी भाग के 
					जल–सतह पर तापमान में अंतर होने से उपोष्ण भाग से आनेवाली 
					हवाएँ, पूर्व से पश्चिम की ओर विरल वायुदाब क्षेत्र की ओर बढती 
					है। सतत रूप से बहनेवाली इन हवाओं को ‘व्यापारिक पवन’ कहा जाता 
					है। व्यापारिक पवनों के दबाव के चलते ही पेरू तट की तुलना में 
					इन्डोनेशियाई क्षेत्र में समुद्र तल ०।५ मीटर तक ऊँचा उठ जाता 
					है। समुद्र के विभिन्न हिस्सों में जल–सतह के तापमान में अंतर 
					के चलते समुद्र तल पर से बहनेवाली हवाएँ प्रभावित होती है 
					किंतु समुद्र तल पर से बहनेवाली व्यापारिक पवनें भी सागर तल के 
					ताप वितरण को बदलती रहती हैं। इन दोनों के बीच “पहले मुर्गी या 
					पहले अंडा” वाली कहावत चरितार्थ है।
 
 विषुवतीय 
					प्रशांतक्षेत्र के सबसे गर्म हिस्से में समुद्री जल, वाष्प 
					बनकर ऊपर उठता है और ठंडा होने पर वर्षा के माध्यम से संचित 
					उष्मा का त्याग कर वायुमंडल के बीच वाली परत को गर्म करता है। 
					इस प्रक्रिया द्वारा वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में अत्यधिक 
					उष्मा तथा नमी का संचार होता है इसलिए संसार की जलवायु संरचना 
					का यह एक अतिमहत्वपूर्ण पहलू है। सामान्य स्थिति में उष्ण 
					कटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में होनेवाली वर्षा तथा आँधी की 
					अवस्थिति सबसे गर्म समुद्री भाग में होता है किंतु अलनीनो के 
					होनेपर सबसे गर्म समुद्री हिस्सा पूरब की ओर खिसक जाता है और 
					ऐसा होने पर समूचा जलवायु–तंत्र ही बिगड़ जाता है। समुद्र तल के 
					८ से २४ किलोमीटर ऊपर, वायुमंडल की मध्य स्तर में बहनेवाली जेट 
					स्ट्रीम प्रभावित होती है और पश्चिम अमेरिकी तट पर भयंकर तूफान 
					आते हैं। दूसरी ओर, अटलांटिक तथा कैरीबियाई समुद्र और संयुक्त 
					राज्य अमेरिका के पूर्वी तटों पर आनेवाले तूफानों में कमी आ 
					जाती है। प्रशांत महासागर के सार्वाधिक गर्म समुद्री हिस्से को 
					पूरब की ओर खिसकने पर दक्षिणी कंपन के कारण, सामान्य तौर पर 
					उत्तरी आस्ट्रेलिया एवं इन्डोनेशियाई द्वीप समूह में होनेवाली 
					सार्वाधिक वर्षा का क्षेत्र खिसककर प्रशांत के मध्य भाग में आ 
					जाता है। ऐसी स्थिति में 
					आस्ट्रेलिया के उत्तरी भाग में सूखे की आशंका बन जाती है। 
 भारतीय मौनसून भी इससे प्रभाव से अछूता नहीं रहता। अलनीनो की 
					स्थिति का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव पूर्वी प्रशांत के हिस्से 
					में समुद्री जीवन पर पड़ता है। व्यापारिक पवनों का कमजोर बहाव, 
					पश्चिम की ओर के समुद्र में ठंडे और गर्म जल के बीच, ताप 
					विभाजन रेखा की गहराई को बढा देता है। लगभग १५० मीटर गहराई 
					वाले पश्चिमी प्रशांत का गर्म जल, पूरब की ओर ठंडे जल की छिछली 
					परत को ऊपर की धकेलता है। पोषक तत्वों से भरपूर इस जल में 
					समुद्री शैवाल तथा प्लांकटन और इनपर आश्रित मछलियाँ खूब विकास 
					करती है। अलनीनो की स्थिति होनेपर पूरब की ओर की ताप विभाजन 
					रेखा नीचे दब जाती हैं और ठंडे जल की गहराई बढ़ने से समुद्री 
					शैवाल आदि नहीं पनपते।
 
 अल नीनो का प्रभाव
 
 अल–नीनो एक वैश्विक 
					प्रभाव वाली घटना है और इसका प्रभाव क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। 
					स्थानीय तौर पर प्रशांत क्षेत्र में मत्स्य उत्पादन से लेकर 
					दुनिया भर के अधिकांश मध्य अक्षांशीय हिस्सों में बाढ, सूखा, 
					वनाग्नि, तूफान या वर्षा आदि के रूप में इसका असर सामने आता 
					है। अल–नीनो के प्रभाव के रूप में लिखित तौर पर १५२५ ईस्वी में 
					उत्तरी पेरू के मरुस्थलीय क्षेत्र में हुई वर्षा का पहली बार 
					उल्लेख मिलता है। उत्तर की ओर बहनेवाली ठंडी पेरू जलधारा, पेरू 
					के समुद्र तटीय हिस्सों में कम वर्षा की स्थिति पैदा करती है 
					लेकिन गहन समुद्री जीवन को बढावा देती है। पिछले कुछ सालों में 
					अल–नीनो के सक्रिय होने पर उलटी स्थिति दर्ज की गयी है। पेरू 
					जलधारा के दक्षिण की ओर खिसकने से तटीय क्षेत्र में आँधी और 
					बाढ के फलस्वरूप मृदाक्षरण की प्रक्रिया में तेजी आती है। 
					सामान्य अवस्था में दक्षिण अमेरिकी तट की ओर से बहनेवाली 
					फास्फेट और नाइट्रेट जैसे पोषक तत्वों से भरपूर पेरू जलधारा 
					दक्षिण की ओर बहनेवाली छिछली गर्म जलधारा से मिलनेपर समुद्री 
					शैवाल के विकसित होने की अनुकूल स्थिति पैदा करती है जो 
					समुद्री मछलियों का सहज भोजन है। अल–नीनो के आने पर, पूर्वी 
					प्रशांत समुद्र में गर्म जल की मोटी परत एक दीवार की तरह काम 
					करती है और प्लांकटन या शैवाल की सही मात्रा विकसित नहीं हो 
					पाती। परिणामस्वरूप मछलियाँ भोजन की खोज में अन्यत्र चली जाती 
					हैं और मछलियों के उत्पादन पर असर पड़ता है।
 
 अल नीनो की उत्पत्ति का कारण
 
 अल नीनो की उत्पत्ति के 
					कारण का अभी तक कुछ पता नहीं। हाँ, यह किस प्रकार घटित होता है 
					इसके बारे में अबतक पर्याप्त अध्ययन हो चुका है और जानकारियाँ 
					उपलब्ध हैं। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की तरह ही ‘ईएनएसओ’ एक 
					सिद्व घटना है किंतु यह क्यों होता है, इसका राज ईश्वर ने अभी 
					तक किसी को बताया नहीं। अल–नीनो घटित होने के संबंध में भी कई 
					सिद्धांत मौजूद हैं लेकिन कोई भी सिद्धांत या गणितीय मॉडल 
					अल–नीनो के आगमन की सही भविष्यवाणी नहीं कर पाता। आँधी या 
					वर्षा जैसी घटनाएँ चूँकि अक्सर घटती हैं इसलिए इसके बारे में 
					पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है और इसके आगमन की भविष्यवाणी भी 
					लगभग पूर्णता के साथ कर ली जाती है किंतु चार–पाँच वर्षों में 
					एकबार आनेवाली अल–नीनो के बारे में मौसम विज्ञानी इतना नहीं 
					जानते कि पर्याप्त समय रहते इसके आगमन का अनुमान लगा लिया जाए। 
					एक बार इसके घटित होने का लक्षण मालूम पड़ जाए तो अगले ६–८ 
					महीनों में इसकी स्थिति को आँका जा सकता है। ला–नीना यानी 
					समुद्र तल की ठंडी तापीय स्थिति आमतौर पर अल–नीनो के बाद आती 
					है किंतु यह जरूरी नहीं कि दोनों बारी–बारी से आएँ ही। एक साथ 
					कई अल–नीनो भी आ सकते हैं। अल–नीनो के पूर्वानुमान के लिए 
					जितने प्रचलित सिद्धांत हैं उनमें 
					एक यह मानता है कि विषुवतीय समुद्र में संचित उष्मा एक निश्चित 
					अवधि के बाद अल–नीनो के रूप में बाहर आती है। इसलिए समुद्री 
					ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अलनीनो के आगमन की भविष्यवाणी 
					की जा सकती है। यह दावा पहले गलत हो चुका है।
 
 एक दूसरी मान्यता के अनुसार, मौसम वैज्ञानिक यह मानते हैं कि 
					अल–नीनो एक अनियमित रूप से घटित होनेवाली घटना है और इसका 
					पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। जो भी हो, अल–नीनो आगमन की 
					भविष्यवाणी किसान, मछुआरे, सरकार और वैज्ञानिक सभी के लिए 
					चिंता का कारण होती है। उष्ण या उपोष्ण कटिबंध में पड़नेवाले कई 
					देश जैसे– पेरू, ब्राजील, भारत, इथियोपिया, आस्ट्रेलिया आदि 
					में कृषि योजना के लिए यहाँ की सरकारें अल–नीनो की 
					भविष्यवाणियों का इस्तेमाल करने लगी हैं। सरकारी तथा 
					गैर–सरकारी बीमा कंपनियाँ भी अल नीनो के चलते होनेवाली हानि के 
					आकलन हेतु खर्च के लिए तैयार रहती हैं। पुनरावृति की अवधि के 
					हिसाब से सोचें, तो १९९७–९८ में आए अल–नीनो के बाद इसके आने की 
					अगली संभावना करीब जान पड़ती है।
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