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					 पर्यावरण, प्रदूषण एवं आकस्मिक संकट
 —प्रभात कुमार
 
 अपने 
					चारों ओर के परिवेश को हमने इस कदर छेड़ा है कि बात अगर 
					पर्यावरण की उठती है तो प्रदूषण का सवाल अपने आप ही आगे आ जाता 
					है। हर ओर सुनी जाने वाली यह ऐसी 'बेताल–पचीसी' है जिसमें 
					लाशों को ढोनेवाला कोई एक विक्रम नहीं बल्कि हम सभी हैं और सही 
					उत्तर की प्रतीक्षा में बेताल साथ–साथ चल रहा है। बात प्रदूषण 
					की उठे, तो लोग सांस्कृतिक या भाषायी प्रदूषण की बात भी करते 
					हैं। सामाजिक मान्यताओं को झकझोरने वाले व्यवहारिक प्रदूषण के 
					दायरों का तो कोई आकलन नहीं किंतु पर्यावरण प्रदूषण का क्षेत्र 
					आज बढ़ता ही जा रहा है। मानव एवं सभी प्रकार के जीवन को ढोने 
					वाली पारिस्थितिकी–तंत्र में हलचल मचानेवाली समस्या और प्रदूषण 
					के व्यापक प्रभाव वाले क्षेत्र निम्नलिखित हैं-(क) विलुप्तप्राय जंतुओं का संकट
 (ख) जल प्रदूषण
 (ग) वायु प्रदूषण
 (घ) स्थल एवं मृदा प्रदूषण
 (ङ) ध्वनि प्रदूषण
 
 जलीय, स्थलीय एवं आकाशीय क्षेत्र में निवास 
					करनेवाले जैव तथा पादप समुदाय और निर्जीव वातावरण के बीच 
					स्थापित परस्पर संबंध को पारिस्थितिकी तंत्र कहा जाता है। 
					समूचे पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न तत्वों के बीच अनादि काल 
					से एक प्रकार का संतुलन स्थापित है और जब भी यह संतुलन बिगड़ा 
					है तो विनाश की स्थिति सामने आयी है। "अस्तित्व के लिए 
					संघर्ष—सर्वोत्तम का चुनाव" के सिद्धांत पर ही प्रकृति का सारा 
					खेल टिका है। जैविक संसार में होनेवाली स्वभाविक सत्ता संघर्ष 
					के अतिरिक्त मानव जाति ने आज अपनी आवश्यकताओं, वैज्ञानिक खोजों 
					या मनोरंजन के लिए पारिस्थतिकी तंत्र में गहरी छेड़छाड़ की है। 
					जीव–जंतुओं की कई प्रजातियाँ आज या तो लुप्त हो गई है या 
					लुप्तप्राय है।
 
 "रेड बुक ऑफ वाइल्ड" के अनुसार १६०० से १९९० के बीच ३६ 
					स्तनधारियों और ९४ पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो गई है जबकि 
					स्तनधारियों की २३६ प्रजातियाँ तथा पक्षियों की २८७ प्रजातियाँ 
					आज लुप्त होने के कगार पर है। पारिस्थितिकी का आधारभूत 
					सिद्धांत यह है कि यदि प्राणियों के ९०% आवास नष्ट हो जाए तो 
					उनमें बसनेवाली ५०% जैव प्रजातियाँ स्वतः विलुप्त हो जाएँगी। 
					इस सिद्धांत और उष्ण कटिबंधीय वनों के विनाश की दर के आधार पर 
					यह अनुमान लगाया गया है कि उष्ण कटिबंधीय वनों में निवास 
					करनेवाली ५–१५% जीवों की प्रजातियाँ आनेवाले वर्षों में हमेशा 
					के लिए गायब हो जाएँगी। स्थलीय विविधता, सक्रिय जलवायु, लंबे 
					सागर तट तथा अनेक समुद्री द्वीपों के चलते प्रकृति ने जैव और 
					पादप विविधता के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप को विशेष रूप से 
					सँवारा है।
 
 धरती के चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में से तीन पराध्रुवतटीय, 
					अफ्रीकी और इन्डो–हिमालयन क्षेत्र भारत में पड़ते हैं। विश्व के 
					किसी भी राष्ट्र में दो से अधिक परिमंडलों के क्षेत्र नहीं 
					मिलते। भारतीय भूमि क्षेत्र में निवास करनेवाली जीव–जंतुओं की 
					कुछ शानदार प्रजातियाँ जैसे बाघ, तेंदुआ, एशियाई सिंह, हाथी, 
					हिम तेंदुआ, सुनहरा लंगूर, सिंह पुच्छी बंदर, गंगेय डॉलफिन, 
					हंगुल, दलदली हिरण, जंगली गदहा, घड़ियाल, सोन चिड़िया, सफेद 
					पंखों वाली जंगली बतख आदि आज संकटग्रस्त जीव जंतुओं की श्रेणी 
					में हैं। शेर, बाघ, हाथी, मृग या कछुए जैसे वन्य जीवों के 
					विभिन्न अंगों का अंतराष्ट्रीय बाज़ारों में ऊँची कीमत गरीब 
					देशों में अवैध कारोबार को बढ़ावा देती है। सख्त सरकारी कानूनों 
					के अतिरिक्त वन संपदा के प्रति हमारी मानवीय चेतना की जागरूकता 
					इस दिशा में कारगर सिद्ध हो सकती है। वनस्पति जगत के बिना 
					प्राणी जीवन की कल्पना ही संभव नहीं। जंगली पशु–पक्षियों की तो 
					छोड़िए, आदिमानव युग से लेकर आज तक भी आदिवासी जीवन का तानाबाना 
					वनस्पतियों के साथ जुड़ा है। ये तो बाजारू संस्कृति में 
					जीनेवाले तथाकथित सभ्य समाज में रहनेवाले लोग हैं, जो दिनभर की 
					अपनी दिनचर्या में पर्यावरण के लिए ज़हर छोड़ने के बाद शाम को 
					किसी रेस्तरां में रखे बोंसाईं के बगल में बैठकर कारखानों में 
					हो रहे उत्पादन पर चर्चा करते हैं।
 
 जल प्रदूषण-
 
 "जल ही जीवन है" वाली कहावत और इसकी सच्चाई में अगर हम विश्वास 
					करते हों तो जलीय पर्यावरण की पवित्रता का दायित्व भी हमारा ही 
					है। पिछले दशकों में विश्व की जनसंख्या में हुई भारी वृद्धि, 
					शहरी जीवन जीने के प्रति ललक तथा विकास के नाम पर जल में बहाई 
					जानेवाली गंदगी की नालियों को साफ करने की जिम्मेदारी सरकार पर 
					छोड़कर निश्चिंत हो लेते हैं। नतीजतन, समुद्री जल का बहुत बड़ा 
					भाग और विश्व की लगभग सभी नदियाँ आज जीव संसार के लिए जीवन की 
					तरलता नहीं बल्कि मौत की कठोरता लेकर बह रही है। भारत में अगर 
					आप कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी या पटना जैसी लाखों की आबादी 
					वाले शहर के निवासी हैं तो अब भी क्या आपका मन गंगा स्नान के 
					लिए तरसता है? दिल्ली, आगरा या मथुरा जैसी जगहों पर अगर यमुना 
					नदी को देख लें तो आप क्या विश्वास कर पाएँगे कि पुरान–काल से 
					ही नदियों की प्रशंसा में श्लोकों की रचना करनेवाले 
					भरत–वंशियों ने ही पावन यमुना की ऐसी दुर्दशा की है? किसी भी 
					जल में जीवन की संभावना होने के लिए उसमें घुले आक्सीजन की कम 
					से कम मात्रा ५ मिलीग्राम्र लीटर होने चाहिए, जबकि दिल्ली में 
					किए गए एक नमूना परीक्षण के दौरान कई जगहों पर यमुना के जल में 
					आक्सीजन पाया ही नहीं गया! वायुमंडलीय प्रदूषण या पर्वतीय 
					पर्यटकों द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी का असर यह है कि पतित 
					पावनी गंगा या यमुना नदी का उद्गम स्थल ही अत्यधिक प्रदूषित हो 
					चुका है।
 
 जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पर्यावरण 
					वैज्ञानिक प्रोफेसर सैय्यद इकबाल हसन की बात पर विश्वास करें 
					तो गंगोत्री ग्लेशियर के लगातार पीछे हटने से अगले १२५ वर्षों 
					में गंगा सूख सकती है। नदियों के सीमित जल को छोड़िए, यह आम 
					मान्यता है कि अथाह जल राशि के चलते समुद्री जल को प्रदूषित 
					करना संभव नहीं है। जबकि हालत यह है कि तैलीय रिसाव, विषैले 
					रसायनों तथा रासायनिक एवं परमाणु कचरों के छोड़े जाने से समुद्र 
					भी अब प्रदूषित हो चला है। सागर में रहने वाली मछलियाँ तथा 
					अन्य कई दुर्लभ जीवों का जीवन आज संकट की ओर है। समुद्री 
					प्रदूषण फैलाने में विकसित राष्ट्र सबसे अग्रणी हैं। भूगर्भीय 
					जल का अत्यधिक दोहन तथा प्रदूषण भी विश्व के अधिकांश देशों के 
					लिए एक भयंकर समस्या है। पेय जल या सिंचाई के लिए निकाले गए 
					भूमिगत जल की उच्च दर ने भूगर्भीय जल स्तर को काफी नीचे लाकर 
					मरुस्थलीकरण की संभावना को बढावा दिया है।
 
 रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का कृषि में अत्यधिक प्रयोग 
					स्थलीय एवं भूगर्भीय जल को सीधे तौर पर प्रदूषित करता है। कई 
					स्थानों पर प्रदूषित भूमिगत जल में पाई जाने वाली लोहे, 
					आर्सेनिक या सेलेनियम की अधिक मात्रा विभिन्न प्रकार की 
					बीमारियों का कारण है। मौनसूनी वर्षा से जल पानेवाले भारत जैसे 
					देशों में वर्षा जल का उपयोग एवं संग्रहन के बजाए बहुमूल्य 
					भूगर्भीय जल स्त्रोत का खतरनाक तरीके से दोहन होने से उस 
					क्षेत्र के कुएँ, तालाब, जलाशय और अन्य जलीय स्त्रोत सूख रहे 
					हैं। जलीय भाग से जुड़ी एक अन्य समस्या, जिसे प्रदूषण तो नहीं 
					कह सकते लेकिन जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर मानवीय 
					आवश्यकताओं के लिए किए जाने वाले प्रयासों के फलस्वरूप उत्पन्न 
					होती है वह है– झीलों एवं जलाशयों में गाद भरने तथा अतिक्र्रमण 
					के चलते जलग्रहण क्षमता का नुकसान। दुनिया के अधिकांश देशों ने 
					शहरी जरूरतों या जल विद्युत उत्पादन के लिए प्राकृतिक झीलों का 
					दोहन अथवा कृत्रिम जलाशयों का निर्माण किया है। तलछट के लगातार 
					भरने से ये जलीय भाग न सिर्फ अपने उद्देश्यों को पूरा करने में 
					विफल हैं बल्कि नदी या झील पर आधारित समूची स्थानीय 
					पारिस्थितिकी तंत्र इससे प्रभावित हैं।
 
 वायु प्रदूषण-
 
 हानिकारक गैसों, अतिसूक्ष्म धूलकण या सूक्ष्मरूप से विसरित तरल 
					पदार्थों (ऐरोसोल) का वायुमंडल में उसके अपसरन की दर से ज्यादा 
					मात्रा में छोड़ा जाना वायु प्रदूषण कहलाता है। विश्व स्वास्थ्य 
					संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण एक ऐसी स्थिति है जिसके बाह्य 
					वातावरण में मनुष्य और उसके पर्यावरण को हानि पहुँचानेवाले 
					तत्व सघन रूप में एकत्रित हो जाते हैं। मानवीय छेड़छाड़ या 
					प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर इसका विस्तार स्थानीय, क्षेत्रीय, 
					महादेशीय अथवा ग्लोबल रूप में हो सकता है। जैविक या अजैविक 
					पारिस्थिति पर विषाक्त प्रभाव छोड़ने में वायु प्रदूषण का स्थान 
					संभवतः सबसे महत्वपूर्ण है। कैंसर, अस्थमा और साँस की अन्य 
					बिमारियों से लेकर अम्लीय वर्षा के चलते ऐतिहासिक इमारतों और 
					मूर्तियों का क्षय, फसल एवं जंगलों की बर्बादी या जलीय प्रदूषण 
					तक में वायु प्रदूषण जिम्मेदार है। अम्लीय वर्षा के लिए तो 
					'करे कोई और भुगते कोई' वाली कहावत चरितार्थ है। किसी एक जगह 
					पर कारखानों या मोटरगाड़ियों से निकला धुआँ, दूसरी जगह गंधकाम्ल 
					या नाईट्रिक अम्ल की वर्षा के रूप में पेड़–पौधों या ताजमहल 
					जैसी धरोहर पर बरस कर अपना कहर बरपा जाता है। महानगरों में बीत 
					रही आपकी जिंदगी की हर साँस मौत का सुर सुनाती है।
 
 हालात यही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब बाज़ार से शुद्ध ऑक्सीजन 
					का पैकेट लेकर हम साँस लेते फिरेंगे। कुछ वर्ष पूर्व क्या हम 
					यह सोचते थे कि पानी खरीद कर पीना पड़ेगा? प्रदूषण के एक 
					महत्वपूर्ण कारक तत्व क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) की 
					वायुमंडल में मौजूदगी का एक खतरनाक नतीजा ओजोन परत में कमी और 
					फलस्वरूप पराबैंगनी विकिरणों से धरती की सुरक्षा कवच का टूटना 
					है। ऐसा अनुमान है कि प्रकृति ने वायुमंडल की दूसरी परत में 
					ओजोन गैसों के रूप में जीवधारियों के लिए जो रक्षात्मक आवरण 
					दिया है उसका दस प्रतिशत इस सदी के अंत तक नष्ट हो जाएगा। 
					पिछले ४० वर्षों में पृथ्वी के वायुमंडलीय तापमान में २ से ३ 
					डिग्री की वृद्धि दर्ज की जा चुकी है और ऐसा अनुमान है कि अगले 
					कुछ वर्षों में यह तापवृद्धि ४ से ५ डिग्री तक हो सकती है। 
					'ग्लोबल वार्मिंग' का यह पहलू इसलिए अतिमहत्वपूर्ण है कि इतनी 
					तापवृद्धि से पृथ्वी का सूक्ष्म तापीय समीकरण बिगड़ेगा और यह 
					जैविक संतुलन की स्थायी रचना को छिन्न भिन्न कर देगी। 
					उदाहरणस्वरूप, ध्रुवों पर स्थायी रूप से जमी बर्फ पिघलेगी, 
					समुद्रतल ऊँचा उठेगा और समुद्रतटीय शहर या महानगर जलमग्न हो 
					जाएँगे। न्यूयार्क, ओस्लो या मुंबई जैसे शहर में बैठकर आप यह 
					लेख पढ रहे हों तो भी भयभीत न हों, वर्तमान स्थिति की गंभीरता 
					के प्रति समझ और पर्यावरण के प्रति चेतना निरंतर नए शोध और 
					निषेधक उपायों को अंजाम दे सकेगी। आइए, मिलकर प्रार्थना करें। 
					हे मारुत नंदन, हमारे पापों से तू हम सबकी रक्षा कर!
 
 स्थल एवं मृदा प्रदूषण-
 
 समाज के विकास की घड़ी की सुइयों को थोड़ा पीछे की ओर घुमा कर 
					देखें तो कुछ दशक पूर्व 'स्थल प्रदूषण' का कहीं कोई नामो–निशान 
					नहीं था। औद्योगिक कचरों तथा प्लास्टिक कहे जाने चमत्कारिक 
					वैज्ञानिक खोज ने अपना यह जलवा दिखलाया है कि शहर की कौन पूछे, 
					आज गाँव में भी आप चले जाएँ तो स्थल प्रदूषण की बानगी दिखाई दे 
					जाएगी। टीन के डब्बे, प्लास्टिक, काग़ज, सीसे की बनी छोटी 
					वस्तुओं से लेकर लोहे की बनी कार या ट्रक तक के कचरों के एक 
					स्थान पर जमाव या बिखराव ने भूमि प्रदूषण कर जो दृश्य उत्पन्न 
					किया है उसे देखकर निश्चय ही आप सहज नहीं महसूस कर सकते। वैसी 
					सभी वस्तुएँ जिनका कार्बनिक या अकार्बनिक तरीके से सरल तत्वों 
					में शीघ्र अपक्षय नहीं हो सकता, भूमि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार 
					है। भूमि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार तत्वों का पुर्ननवीकरण के 
					बजाए कोई भी तरीका पर्यावरण संरक्षण के लिए उपयुक्त नहीं। 
					समुद्र में इन कचरों को डालने पर जलीय प्रदूषण के साथ–साथ 
					समुद्री जीवों का आवास नष्ट होता है जबकि स्थल पर किसी निम्न 
					भूमि प्रदेश, जो ज्यादातर दलदली भाग होते हैं, छोड़ने से उनमें 
					रहनेवाले विशिष्ट किस्म के जीवों का पारिस्थितिकी तंत्र 
					प्रभावित होते हैं।
 
 प्लास्टिक, कागज या अन्य संम्मिश्र प्रकार के कूड़े को जलाने पर 
					वायु प्रदूषण होता है। स्थलीय प्रदूषण से मिलता जुलता एक अन्य 
					विकार जो शायद उससे कहीं घातक है, वह है– मृदा प्रदूषण। हरित 
					क्रांति या उन्नत पैदावार के लिए अपनाई गई 'रासायनिक कृषि' 
					मिट्टी की उर्वरता को बढाने के बजाए उसे स्थाई तौर पर बर्बाद 
					कर रही है। हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में मिट्टी एक महत्वपूर्ण 
					और जीवंत इकाई है। एक ग्राम उपजाऊ मिट्टी में लगभग १० करोड़ 
					जीवाणु और ५०० मीटर के बराबर कवक के धागे होते हैं। इसके 
					अतिरिक्त मृदा तंत्र हजारों प्रकार की शैवाल कोशिकाएँ, विषाणु, 
					आर्थोपोड एवं केंचुआ जैसे अन्य जीवों की शरण स्थली भी है। 
					मिट्टी की पोषण शक्ति को बढाने के लिए रासायनों, कीटनाशकों एवं 
					जहरीले तत्वों का होनेवाला प्रयोग आहार चक्र के माध्यम से 
					जानवरों एवं मनुष्य के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। उपजाऊ 
					भूमि पर हो रहे नित्य नये निर्माण तथा वनों की कटाई से बाढ तथा 
					मृदाक्षरण की प्रक्रिया में तेजी आई है। जनसंख्या वृद्धि के 
					साथ बढी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए १९६० के दशक में कृषि 
					भूमि पर जापान में ७.३% से लेकर नार्वे में १.५% की दर से नई 
					आधारभूत संरचनाओं का निर्माण किया गया। भारत में, जहाँ एशिया 
					की कुल आबादी का लगभग २७% लोग निवास करते हैं, कृषि योग्य भूमि 
					का स्थाई संरचनाओं से ढंका जाना तथा मृदा क्षरण दोनों की तेज 
					दर है। भूक्षरण स्वयं ही भूमि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है। १० 
					सेंटीमीटर ऊपरी मृदा के बनने में १०० से ४०० वर्ष का समय लगता 
					है इसलिए मिट्टी का नष्ट होना एक प्रकार से सीमित और अनवीनीकरण 
					संपदा का नुकसान है।
 
 ओह, मैं तो सिर्फ धरती माँ की दुर्दशा पर ही चर्चा किए जा रहा 
					हूँ। क्या आप चिड़चिड़ापन, सिर–दर्द, बहरापन, उच्च रक्तचाप, 
					मानसिक तनाव, नींद न आने की शिकायतों से परेशान हैं? अगर हाँ, 
					तो नीचे का हिस्सा पढिए इलाज़ ढूँढने में शायद कोई मदद मिले!
 
 ध्वनि प्रदूषण-
 
 शहरी या औद्योगिक संस्कृति की एक अनचाही देन ध्वनि प्रदूषण है। 
					मनुष्य या जानवरों को मानसिक या शारीरिक रूप से आघात 
					पहुँचानेवाली किसी भी प्रकार के अनचाही और हानिकारक आवाज़ से 
					संपर्क ध्वनि प्रदूषण कहलाता है। ध्वनि प्रदूषण वास्तव में एक 
					गुणात्मक तथा मात्रात्मक पद है। मात्रात्मक रूप में ध्वनि 
					प्रदूषण को उसके दबाव, उच्चता अथवा तारत्व के आधार पर 
					'डेसिबेल' इकार्ई में मापा जाता है और इसकी गणना लघुगणक आधार 
					पर की जाती है। ध्वनि का १० डेसिबेल से २० डेसिबेल तक के स्तर 
					की वृद्धि वास्तव में १०० गुना वृद्धि है। ध्वनि प्रदूषण का 
					गुणात्मक स्वरूप का संबंध स्त्रोता की भाषाई समझ अथवा ध्वनि की 
					कर्णप्रियता से है। आप अगर हिंदीभाषी हैं और मैं चीनी या 
					जापानी में बात करने लगूं तो आप अपना सिर पीट लेंगे। 
					हिंदुस्तानी अथवा कर्नाटकी शास्त्रीय संगीत के लिए आप अगर 
					स्नेहभाव नहीं रखते तो पंडित भीमसेन जोशी से लेकर उस्ताद 
					फहीमुद्दीन दागर तक का नाद स्वर आपको कर्णकटु लगेंगे। शादी के 
					कुछ वर्ष आप अगर गुजार चुके हों, तो कभी संगीत की मधुर तान 
					सुनाई देने वाली पत्नी की बोली में आपको उच्च डेसीबेल स्तर के 
					ध्वनि प्रदूषण के गुणात्मक स्वरूप की झलक मिल जाएगी। खैर, 
					विज्ञान में ध्वनि प्रदूषण के साहित्यिक पहलू का कोई खास महत्व 
					नहीं लेकिन किसी भी प्रकार के ध्वनि का मान अगर ५० डेसीबेल से 
					ऊपर हो जाए तो मानवीय स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उसे 
					ध्वनि प्रदूषण की स्थिति समझी जाती है। व्यस्त यातायात या 
					कारखानों से निकली आवाज़ ९० डेसीबेल स्तर की होती है। इस स्तर 
					की ध्वनि का लगातार सुना जाना कान के श्रवण तंत्र को 
					असंवेदनशील बना देता है और व्यक्ति बहरा भी हो सकता है। उच्च 
					ध्वनि स्तर वाले स्थानों पर काम करने वाले लोगों में अनिद्रा, 
					क्षीण श्रवण शक्ति, उच्च रक्तचाप या तंत्रिका तंत्र संबंधी 
					बीमारियाँ पाई जाती है। औद्योगीकरण से उपजी इस बला को कम शोर 
					करनेवाली मशीनों का प्रयोग, कार्यस्थल पर 'इयरप्लग' जैसे 
					ध्वनिरोधक यंत्रों का इस्तेमाल तथा दीवार में ध्वनि शोषक 
					पदार्थों का उपयोग कर काफी हद तक टाला जा सकता है।
 
 अपने जलवायु एवं परिवेश को दूषित कर हम शांत जीवन की तलाश में 
					पहाड़ों की ओर भागते हैं लेकिन अब तो वहाँ भी स्वच्छ वायु, 
					निर्मल जल और खामोशी की अनुगूँज वाली बात बेमानी लगती है। 
					विश्वग्राम और विकास के नाम पर फैलाई गई गंदगी का प्रभाव अब 
					स्थानीय नहीं बल्कि ग्लोबल हो गया है। अविकसित या अर्धविकसित 
					राष्ट्र ज्यादा औद्योगीकरण किए बिना भी प्रदूषण के शिकार हैं। 
					पिछले दशकों में अपनी विकास प्रक्रिया को तेज गति देकर विकसित 
					देशों ने वायुमंडल में विषैली गैसों का गुबार छोड़ा और जब 
					परिणाम सामने आने लगा तो हाय तौबा मचाना शुरू किया। जवाब में 
					विकासशील देशों का तर्क यह ठहरा कि मुझे भी उतना ही आगे आने दो 
					फिर पर्यावरण संरक्षण की बात सोचेंगे। विकसित देश अब उपदेशक हो 
					गए हैं लेकिन पर्यावरण को किए गए नुकसान की भरपाई के लिए किए 
					जानेवाले प्रयासों के प्रति अपनी महती जिम्मेदारी मानने से भी 
					पीछे भागते हैं। पर्यावरण के लिए आई अंतर्राष्ट्रीय चेतना के 
					बावजूद आज भी अविकसित या अल्प–विकसित देशों की बड़ी जनसंख्या कम 
					आबादी वाले औद्योगीकृत राष्ट्रों द्वारा फैलाए जा रहे 
					परमाण्विक, वायुमंडलीय या स्थलीय प्रदूषण की सजा भोगने को 
					अभिशप्त है। जो भी हो, विकसित देशों पर दोषारोपण कर अविकसित 
					राष्ट्र अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। प्रदूषण की 
					समस्या न ही एक दिन में पैदा हुई है और न एक दिन में खत्म 
					होनेवाली। पारिस्थितिकी के प्रश्न की डिबिया खुलने पर कोई 
					जिन्न नहीं आनेवाला जो "क्या हुक्म है आका?" कहकर पलक झपकते ही 
					समस्याओं को सुलझा दे और हम चैन की नींद सो जाएँ। पर्यावरण 
					सुधार के लिए अगर समुचित प्रयास में हम विफल रहते हैं तो इससे 
					अच्छा है कि "आ अब लौट चलें" वाले नारे को बुलंद करें।
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