जीवन रक्षक छतरी और
गरमी का शीशमहल
—प्रभात कुमार
महाभारत में एक स्थान पर यक्ष ने युधिष्ठिर से
प्रश्न पूछा– "संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?"
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया– "हर क्षण मनुष्य काल के गाल में समाया जा रहा
है किंतु वह समझता है कि हमेशा के लिये है और मृत्यु को नजरअंदाज करता
है, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।"
पृथ्वी पर फल–फूल रहे जीवन और ओजोन के संदर्भ में चर्चा करें, तो यही
उत्तर शत–प्रतिशत लागू होता है। हर क्षण, यह जानते हुए भी कि पृथ्वी को
चारों ओर से घेरे ओजोन परत का हट रहा सुरक्षा कवच हमेशा के लिये हमे
खत्म कर देगा, हम ऐसा मान बैठे हैं मानो यह कभी होगा ही नहीं! पर्यावरण
से जुड़ी यह ऐसी समस्या है जिसमें मानव जाति समेत समूचे प्राणी जगत का
अस्तित्व खतरे में है।
ओजोन क्या है?
ओजोन आक्सीजन का एक अपरूप है, जिसके एक अणु में दो की जगह तीन परमाणु
होते हैं। यह आँखों में जलन पैदा करने वाली गंधयुक्त, पीलापन लिये नीली
गैस है जो विस्फोटक हो सकती है। मुख्य रूप से यह वायुमंडल के मध्य भाग
यानी "समतापमंडल" या "ओजोन मंडल" में पाई जाती है किंतु वायुमंडल के
निचले हिस्से यानी "क्षोभमंडल" में भी यह सूक्ष्म मात्रा में मौजूद
होती है। O३ से निरूपित किया जाने
वाला आक्सीजन का यह बड़ा भाई, अति
क्रियाशील और अस्थायी पदार्थ है जिसे औद्योगिक कार्यो में आक्सीकारक के
रूप में प्रयोग किया जाता है। कई पदार्थों को यह आसानी से रंगहीन बना
सकता है इसलिये कार्बनिक पदार्थों के रंगभंजक के रूप में यह काम की चीज
है। पेय जल को शुद्ध करने हेतु इसका उपयोग कीटाणुनाशक तथा खराब गंध या
स्वाद को हटाने के लिये किया जाता है।
आप अगर उद्योग में रुचि नहीं रखते तो भी प्रकृति के इस अनमोल उपहार को
नजरअंदाज नहीं कर सकते। यह प्रत्यक्ष तौर पर न दिखाई देने वाली वह छतरी
है जिसे लगाए बिना हम बाहर घूम ही नहीं सकते। वायुमंडल में मौजूद ओजोन
परत, सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों (२४०–३२० नैनोमीटर से बीच की
तरंग दैर्घ्य वाली विद्युतचुंबकीय तरंगों) को सोख लेती है और
प्राणियों की रक्षा करती है। सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें अगर
धरती पर आ जाएँ तो लगभग सभी प्राणी या तो खतरनाक तरीके से प्रभावित
होंगे या मर जाएँगे। मजे की बात है कि जरा सी बारिश हो, तो बचने के
लिये हम छाता ले लेते हैं लेकिन धरती के निवासियों के बचाव हेतु ईश्वर
प्रदत्त यह छतरी हर क्षण खत्म हो रही है और हम लोग उसे ठीक करने के बजाए
उसमें अपनी उँगली डाल, छेद को और बड़ा करते जा रहे हैं।
ओजोन हमारी रक्षा कैसे करता है?
वायुमंडल में लगभग १८ किलोमीटर से ५० किलोमीटर की ऊंचाई पर १० पीपीएम
या १० मिलीग्रााम प्रति लीटर की सांद्रता के साथ ओजोन गैस सर्वाधिक
मात्रा में पाई जाती है। वास्तव में, ओजोन का बनना एक सतत वायुमंडलीय
प्रक्रिया है जिसमें सूर्य की उष्मा पाकर आण्विक ऑक्सीजन का प्रकाश
विघटन होता है। टूटे हुए दो नवजात ऑक्सीजन परमाणु के साथ ऑक्सीजन का
अणु आपस में जुड़कर ओजोन का निर्माण करता है। ३०० नैनोमीटर से नीचे की
तरंग दैर्घ्य वाली सूक्ष्म सौर तरंगों द्वारा ओजोन पुनः ऑक्सीजन में
टूट जाता है और यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। इस प्रकार ओजोनमंडल
में मौजूद ओजोन तथा आक्सीजन, सूक्ष्म तरंगों वाली सूर्य की पराबैंगनी
किरणों का लगभग पूर्णरूप से अवशोषण कर लेता है और यह हानिकारक तरंग
वायुमंडल के निचले हिस्से में नहीं पहुँच पाती। पराबैंगनी किरणों की
उपस्थिति में ऑक्सीजन से ओजोन में बदलाव की प्रक्रिया को "चैपमैन
प्रतिक्रिया" द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया जाता हैः
यहाँ पर नवजात आक्सीजन का एक परमाणु
³O
आण्विक अणु
³O2 से
जुड़कर उच्च ऊर्जा वाले अस्थायी ओजोन अणु का निर्माण करता है जो बाद में
वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन या नाइट्रोजन अणु के साथ टकराकर अपनी
अतिरिक्त ऊर्जा नष्ट कर देता है। ओजोन परत का न होना त्वचा का कैंसर,
ऊतक वर्धन, एल्ब्यूमेन एवं स्कंदन
(coagulation) का
रुकना तथा
"सन–बर्न" जैसी बिमारियों का कारण हो सकता है। ओजोनमंडल के अभाव में
पृथ्वी पर आने वाली पराबैंगनी किरणें प्राणी और वनस्पति जगत के
क्रियातंत्र पर घातक प्रभाव डाल सकती है। भू–ओजोन प्रदूषण से जैविक,
पारिस्थितिक तथा जलवायु संबंधी परिणामों में परिवर्तन हो सकता है।
पौधों में फोटो संश्लेषण की दर में परिवर्तन तथा भूमंडल के तापमान या
वर्षा की दशाओं में बदलाव भी संभव है।
ओजोन घातक भी है!
ओजोन की तारीफों के पुल बांधे जाने का यह मतलब कतई नहीं है कि ओजोन की
हमारे आसपास मौजूदगी स्वास्थ्य के लिये अच्छी चीज है। ईश्वर ने ओजोन की
परत को वायुमंडल में इतनी दूर बनाया है तो कुछ सोचकर ही ऐसा किया होगा!
हमारे आसपास १ घंटे से ज्यादा समय तक ०.१२ पी पी एम से अधिक मात्रा में
ओजोन की उपस्थिति का मतलब है– सीने और आँखों में जलन और अस्थमा रोगियों
के लिये बदतर स्थिति। वास्तव में, ओजोन सबसे ज्यादा जलन पैदा करने वाली
गैस है। दिल्ली, बैंकाक, लॉस ऐंजिल्स या मेक्सिको सिटी जैसी सभी
भीड़–भाड़ और अच्छी धूप वाले महानगरों में सुबह से लेकर शाम तक वाहनों से
होने वाला प्रदूषण, करोड़ों लोगों के लिये जानलेवा स्थिति पैदा कर देता
है। शांत हवा और सूर्यप्रकाश में वाहनों से निकली नाइट्रोजन ऑक्साइड,
हाइड्रोकार्बन के साथ प्रतिक्रिया कर ओजोन सहित पेरॉक्सी एसिटाइल जैसी
अन्य कई हानिकारक गैसों का निर्माण करती है। थोड़ी मात्रा में, किंतु
लंबे समय तक ओजोन, अम्लीय ऐरोसोल या प्रदूषण से निकली अन्य हानिकारक
गैसों के बार–बार संपर्क का मनुष्य के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता
है यह अभी भी खोज का विषय है।
ओजोन क्षय की वर्तमान स्थिति पर एक नजरः
सन १९७० में अंटार्कटिक में शोध कर रहे कुछ ब्रिटिश अनुसंधानकर्ताओं
द्वारा पहली बार यह पता लगाया गया कि दक्षिण ध्रुवीय महादेश के ऊपर
समतापमंडल में ओजोन की परत में छिद्र बन गया है। १९८५ से नियमित रूप से
ओजोन क्षय का मात्रात्मक आकलन किया जा रहा है। पृथ्वी पर स्थित किसी
स्थान पर ओजोन की मात्रा को "डॉबसन इकाई" (डी.यू.) द्वारा व्यक्त किया
जाता है। १ डी.यू. ओजोन की मात्रा, मानक ताप एवं दाब (० डिग्री
सेंटीग्रेड तापमान तथा १ वायुमंडलीय दाब) पर ओजोन परत की मोटाई ०.०१
मिलीमीटर के बराबर होती है। पृथ्वी पर विषुवत रेखा के निकट, ओजोन की
मात्रा २६० डी.यू. के आसपास होती है जबकि ध्रुवों पर यह कम होती है।
ओजोन क्षय के लगातार विश्वव्यापी मापन के लिये उपग्रह आधारित यंत्र
"टोटल ओजोन मैपिंग स्पेक्ट्रोमीटर" का प्रयोग किया जाता है।
अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में छिद्र बनने की घटना प्रतिवर्ष सर्दियों
के पश्चात घटित होती है। अंटार्कटिक महादेश के चारों ओर, ध्रुवीय भँवर
एक ऐसा क्षेत्र है जिसके समतापमंडल में उच्च वायुवेग, निम्नतम तापमान
तथा सार्वाधिक ओजोन क्षय की स्थिति पाई जाती है। निम्न तापमान की
स्थिति, ओजोन क्षय में शामिल रासायनिक प्रक्रिया को क्रियाशील करती है
और सूर्यप्रकाश की उपस्थिति से इसमें तेजी आती है। ध्रुवीय समतापमंडल
में बादलों के बनने तथा ओजोन क्षय की रासायनिक स्थिति प्राप्त करने के
लिये तापमान में पर्याप्त कमी आवश्यक है। –७८ डिग्री सेंटीग्रेड की
न्यूनतम तापसीमा ध्रुवीय बादल का निर्माण करने में सक्षम है जबकि –८५
डिग्री से नीचे की तापीय स्थिति रासायनिक प्रक्रिया में तेजी लाती है।
इस वर्ष (सन २००४), जून माह के प्रारंभ से ही अंटार्कटिक के ऊपरी
वायुमंडल का न्यूनतम तापमान –८५ डिग्री सेंटीग्रेड की सीमा से काफी
नीचे है। अंटार्कटिक के आसपास तथा विश्व के अन्य भागों में स्थित
वेधशालाओं से प्राप्त आँकड़ों एवं सूचनाओं के आधार पर "विश्व
मौसमविज्ञान संगठन" अंटार्कटिक में ओजोन छिद्र की स्थिति पर नजर रखता
है और ताज़ा बुलेटिन जारी करता है। इस वर्ष के लिये जारी बुलेटिन के
अनुसार यह बताया गया है कि ध्रुवीय भंवर के अंदर ओजोन छिद्र के बनने के
लिये अनुकूल स्थिति है किंतु अगस्त के प्रारंभ तक कोई ओजोन छिद्र दिखाई
नहीं पड़ा। ऐसा अनुमान है कि अगस्त के अंतिम सप्ताह के बाद, जैसे ही
सूर्य ऊपर आएगा ओजोन छिद्र का बनना प्रारंभ होगा।
ग्रीन–हाउस प्रभाव क्या है?
ग्रीन हाउस वास्तव में कृत्रिम रूप से बनाई गई ऐसी संरचना है जिसमें
विपरित भौगोलिक अथवा प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों वाले पौधे उगाए जाते
हैं। आमतौर पर यह सीसे, प्लास्टिक या फाईबर का बना ऐसा घर है जिसमें
तापमान का उत्सर्जन नियंत्रित कर, बहुत ठंडे स्थानों पर भी उष्ण
कटिबंधीय फल, फूल या अन्य पौधे उगाए जा सकते हैं। अप्राकृतिक तरीके से
होने वाली ताप नियंत्रण के प्रति समानता के चलते ही इसके समान
वायुमंडलीय परिस्थिति को ग्रीन हाउस प्रभाव के नाम से जाना जाता है।
धरती के सतह के निकट तथा क्षोभमंडल यानी वायुमंडल की निचली परत में
कार्बन डाईआक्साइड या अन्य विरल गैसों की मौजूदगी के चलते होनेवाले
अस्वाभाविक उष्णता की स्थिति को सामान्य तौर से ग्रीन हाउस प्रभाव कहते
हैं। सूर्य से आने वाली प्रकाश किरणें और उसमें निहित ऊष्मा का वायुमंडल
से गुजरने के पश्चात पृथ्वी की सतह द्वारा अवशोषण होता है। अवशोषित
ऊष्मा का एक हिस्सा दीर्घ तरंगो वाली अवरक्त विकिरणों के माध्यम से
पुनः वायुमंडल में पहुँचता है जहाँ यह कार्बन डाईआक्साइड एवं जलकणों
द्वारा ग्रहण कर लिये जाते हैं और वापस धरती की ओर परावर्तित होते हैं।
इस प्रकार, कार्बन डाईआक्साइड के अणु ग्रीन हाउस या सीसमहल के "काँच की
दीवार" की तरह कार्य करते हैं। ग्रीन हाउस प्रभाव की व्याख्या एक
फ्रांसीसी वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट फुरियर द्वारा पहली बार की गई थी।
चिंता और चिंतन की बात क्या है?
वायुमंडल में ग्रीन हाउस प्रभाव हमेशा से रहा है। इसके अभाव में पृथ्वी
का औसत तापमान ३० डिग्री सेंटीग्रेड कम होता और पृथ्वी भी अन्य ग्रहों
की भांति हमलोगों के रहने लायक नहीं रहती। मंगल ग्रह की भांति पृथ्वी
पर रात–दिन का तापांतर भी अधिक होता। वर्तमान में चिंता की बात यह है
कि हाल के वर्षों में उद्योगों के द्वारा फैलाए गए प्रदूषण तथा जीवाश्म
ईंधन के दहन से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों यानी कार्बन डाईआक्साइड
तथा फ्रेयान के अलावा मिथेन (CH4, नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)
की मात्रा
में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि इसके चलते
ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति उत्पन्न हो गई है। ऐसा अनुमान है कि वर्तमान
सदी के अंत तक कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा औद्योगीकरण पूर्व के स्तर
से दोगुनी होकर विश्व के औसत तापमान में ३ – ४ सेंटीग्रेड तक की वृद्धि
कर देगी और इसके दुष्प्रभाव भी नजर आने लगेंगे। पृथ्वी के औसत तापमान
में इतनी वृद्धि दोनों ध्रुवों पर जमे हिमखंडों को पिघला डालेगी और
समुद्र का जलस्तर १ मीटर तक ऊपर उठकर तटीय क्षेत्रों को जलमग्न कर
देगी। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति से दुनिया की जलवायु संरचना में
व्यापक परिवर्तन दिखाई देंगे और विश्व के प्रमुख कृषि क्षेत्रों को
लंबी सूखे की स्थिति से लेकर तीव्र बाढ़ का सामना करना पड़ेगा।
ओजोन के संदर्भ में एक बात और भी चिंतनीय है। ओजोन एक सक्रिय गैस है जो
धुआँ, काजल कणों एवं वायु में विद्यमान अन्य कार्बनिक पदार्थों से
शीघ्र प्रतिक्रिया कर लेती है। ताप बिजलीघरों, मोटर वाहनों, उद्योगों
या वायुयानों से निकली कार्बन डाइऑक्साइड या कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी
वायु प्रदूषक गैसों के निष्कासन का अर्थ है समतापमंडल में ओजोन की
मात्रा में कमी। ज्वालामुखी उद्भेदन से निकली क्लोरीन गैस,
नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों से उत्पादित नाइट्रिक ऑक्साइड, परमाणु विस्फोट
अथवा कॉस्मिक किरणों से निकले क्षुब्ध कण आदि भू–ओजोन प्रदूषण के लिये
उत्तरदायी है। रेफ्रिजरेटर एवं वातानुकूलकों में प्रयोग होने वाला
सीएफसी, ऐरोसोल का छिड़काव, ठोस प्लास्टिक फेन आदि में प्रयोग होने वाला
क्लोरोफ्लोरोकार्बन तथा कीटनाशकों के रूप में प्रयोग होने वाला मिथाइल
ब्रोमाइड समतापमंडलीय ओजोन क्षय के लिये सबसे ज्यादा उत्तरदायी है।
"सर्वे भवन्तु सुखिनः" की नीति लेकर चलने वाला हमारा समाज, आज जिस
उपभोक्तावादी, मूल्यविहीन जीवन तथा हसोन्मुखी नैतिकता के साथ आगे बढ
रहा है, वह निश्चय ही हमारे संतानों के लिये गौरवपूर्ण विरासत का
निर्माण नहीं कर रही। अपने उच्च जीवन स्तर की कल्पना को साकार करते
हुए, हम एक बार भी यह नहीं सोचते कि विलासितापूर्ण जीवन के लिये जुटाई
जा रही भौतिक सामग्रियां पर्यावरण पर किस तरह असर डाल रही हैं! प्रकृति
के प्रति अनुराग रखने के बजाए हम लोग इसे दास बनाने पर तुले हैं। हमारे
पूर्वजों ने प्रकृति और इसके अंग यथा धरती, जल, वनस्पतियों आदि को
नैवेद्य माना था और हम अरुण या वरुण देव की वन्दना करना तो दूर, इनके
प्रति अपनी विनम्रता भी जाहिर नहीं करते। उन दिनों में, जब प्रकृति को
हमने प्रदूषित भी नहीं किया था, ऋग्वैदिक भारत के मनीषियों ने वायु की
प्रशंसा में यह ऋचा रचीः
"आ वात वाहि भेषजं विवात वाहि यद्रपः।।
त्वं हि विश्वभषजो देवानां दूत ईयसे।।"
( हे वायु! अपनी औषधी ले आओ और यहाँ से सब दोष दूर करो, क्योंकि तुम ही
सब औषधियों से युक्त हो।)
वायुदेव से की गई प्रार्थना का महत्व आज और भी ज्यादा है लेकिन ऐसे
श्लोक को दुबारा रचने की जगह भी हमने छोड़ी है क्या? बढती हुई जनसंख्या
की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये सरकारें भारी दबाव महसूस कर रही
हैं। अपने आराम के साधन जुटाने के चक्कर में आसन्न संकट को हम भूल रहे
हैं। कहीं ऐसा न हो, कि अपने ही आविष्कारों से घिरकर हम विनाश की कारा
में कैद हो जाएँ।
समाधान का कोई उपाय?
१९७२ में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा ओजोन
परत में हो रहे क्षय को रोकने के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हानिकारक
रसायनों एवं गैसों का उत्पादन कम करने हेतु सराहनीय प्रयास किए गए हैं।
यू.एन.ई.पी. ने १९८७ में कनाडा के टोरांटो शहर में हुए इस विषय पर हुए
अधिवेशन से लेकर विभिन्न पर्यावरणीय विषयों पर तकनीकि सहयोग उपलब्ध
कराया है। १६ सितंबर १९८७ में हुए एक वैश्विक समझौते के बाद, सन २०००
तक सीएफसी का उत्पादन आधा करने के लिये तथा २०३० तक हैलोकार्बन का
औद्योगिक उत्पादन रोकने के लिये संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा मांट्रीयल
प्रोटोकाल जारी किया गया। पर्यावरण में ओजोन के महत्व के प्रति लोगों
में जागरूकता उत्पन्न करने के लिये तब से प्रत्येक वर्ष १६ सितंबर को
विश्व ओजोन दिवस मनाया जाता है। "विश्व मौसमविज्ञान संगठन" का अनुमान
है कि इस समयसीमा का पालन करने से ओजोन परत में हुए नुकसान की भरपाई सन
२०४५ तक संभव है।
ग्रीन हाउस गैसों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिये १९९७ के
दिसंबर में जापान के क्योटो नगर में १५० से अधिक देशों के शिखर सम्मेलन
आयोजित किए गए किंतु विकसित एवं अविकसित राष्ट्रों के बीच गहरे मतभेद
के चलते कोई ठोस परिणाम नजर नहीं आए। वैज्ञानिक समाधान में सबसे ज्यादा
जोर, प्रदूषणकारी तत्वों के उत्पादन पर चरणबद्ध तरीके से रोक पर है। कम
प्रदूषण करने वाली उन्नत किस्म के यंत्रों का विकास पर भी किया जा रहा
है। समस्या का एक सहज समाधान गांधीवादी विचारधारा द्वारा निकाला जा
सकता है। महात्मा गांधीजी का विचार था कि औद्योगिक विकास और यंत्रीकरण
की समूची प्रक्रिया में मनुष्य का स्थान सर्वोपरि होना चाहिए। हमारी
व्यक्तिगत जरूरतें महत्वपूर्ण हैं, किंतु इसकी पूर्ति के लिये हमें
औद्योगिक या यंत्रीकृत साधनों पर निर्भर होने के बजाय, मानवश्रम पर
आधारित संभव हल ढूँढना ज्यादा श्रेयस्कर है। मानवीय प्रयासों में चूँकि
प्रकृति के प्रति सहज अनुराग जुड़ा होता है, इसलिये जरूरतों की पूर्ति
हेतु किया जाने वाला प्रयास स्वाभाविक तौर पर प्रकृति से दूर नहीं होगा।
अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आत्मसंयम रखना स्वयं में एक हल है।
जनसंख्या में होने वाली निर्बाध वृद्धि अपने आप में प्रदूषण का सबसे बड़ा
कारक है। हर रोज पैदा हो रही भारी भीड़ को सुविधा संपन्न देखने के लिये
ही सारे कल–कारखाने, औद्योगिक स्थापनाएँ और नित्य नए जुगत किए जा रहे
हैं। जनसंख्या वृद्धि को किसी तरह हम रोक सकें, तो मानव जाति और
प्रकृति पर यह सबसे बड़ा उपकार होगा। |