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प्रकृति और पर्यावरण

वृक्ष : भिन्न देश-भिन्न परम्पराएँ
गिरीश भंडारी


जब से मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया, उसके मन में वनस्पति के प्रति एक विशेष मोह, आकर्षण और श्रद्धा थी। बिना किसी कारण पेड़ या झाड़ियाँ काटना न सिर्फ एक अपराध माना जाता था, बल्कि एक निर्दय आस्थाहीन कार्य भी।

लिखित इतिहास में चर्चा है कि जूलियस सीजर के समय पूरा यूरोप अत्यंत घने वनों से ढका था। चार सौ साल पश्चात, महान रोमन सम्राट जूलियन ने वन संपदा को रोमन साम्राज्य की सबसे अमूल्य निधि बताया था। उसके राज्य में तो स्थिति यह थी कि अगर कोई वृक्ष या पौधा कुम्हलाया दिखायी दे जाता था, तो राहगीर चिल्ला-चिल्लाकर सब लोगों का ध्यान आकर्षित करते थे। पानी की बाल्टियाँ डाली जाती थीं, पेड़ के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना की जाती थी! ऐसा विश्वास था कि वनस्पति जीवन युक्त है और सृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग। उत्तरी अमरीकी रैड इंडियन लोगों का तो वनस्पति और प्रकृति प्रेम अद्वितीय है।

वृक्ष पूजने की परंपरा

फिजी द्वीप समूह के युसावा द्वीप के नागरिक नारियल को तोड़ते समय नारियल को संबोधित करते हुए कहते थे, "मुझे आज्ञा दो कि मैं अपनी क्षुधा मिटाऊँ।" सेमल के वृक्ष सारे अफरीका में पवित्र माने जाते थे। भारत में भी वृक्षों का पूजने की परंपरा है। तुलसी के साथ तो भारतीय मानस की विशेष निष्ठा है। लक्ष्मी या रुक्मिणी स्वरूपा तुलसी का विधिवत शालिग्राम से पाणिग्रहण परंपरा में कालांतर से समाहित है। निश्चित है कि भारतीय मनीषी तुलसी के कीटाणु नाशक व स्वास्थ्यवर्धक गुणों से परिचित थे, और तुलसी के संरक्षण के लिए इस विधान की रचना की गयी थीं।


गर्भवती स्त्री की तरह सम्मान

मलक्का में लौंग की लताओं में जब पुष्प लगने लगते हैं, तब उनको वही सम्मान, आदर और संरक्षण दिया जाता है जो गर्भवती महिलाओं को। यह माना जाता है कि यह पुष्पवेष्टित लताएँ अब गर्भवती हैं। इनके सामने शोरगुल, अग्नि व तेज रोशनी करना सख्त मना होता है। जावा में चावल की फसल को भी पकाते समय तक वही सम्मान दिया जाता है।

चीन में मृतकों की कब्रों के ऊपर पेड़ लगाने का रिवाज हजारों साल पुराना है। यह माना जाता है कि पेड़ों का विस्तार और उनका सहनशील व्यक्तित्व मृतक की आत्मा को शांति पहुंचाएगा और उसे शक्ति प्रदान करेगा।


वृक्ष से अनुमति

सुमात्रा में तो पेड़ काटने से पहले उस पेड़ की आज्ञा लेने का विधान था। किसी पेड़ को काटने से पहले काटनेवाला कुल्हाड़ी उठाने से पहले को संबोधित करते हुए कहता था, "वृक्ष सुनो। मैं तुम्हें नहीं काटता पर क्या करूं मैं मजबूर हूँ। सरकार का हुक्म है कि तुम्हें काटकर सड़क बनाने का रास्ता साफ किया जाए। मुझे क्षमा करें मेरे मित्र, मेरे रक्षक !"

फिर तो ऐसा भी होने लगा कि अगर कोई जंगल का हिस्सा साफ करने की आवश्यक पड़ी तो लोग झूठमूठ ही एक कागज को खोल लेते थे और पढ़ना शुरू करते थे, "क्या करें जंगल के वृक्षों। डच सरकार का हुक्म है कि जंगल को साफ किया जाए अति शीघ्र। अगर मैं तुम्हें साफ नहीं करता हूँ तो मुझे सूली पर चढ़ा दिया जाएगा।"

जीवन शृंखला और पेड़

पेड़ों और वनस्पतियों के प्रति प्रेम और श्रद्धा को मात्र अंधविश्वास मानना उचित नहीं। मानव ने अपने आविर्भाव के समय से ही देख लिया था कि संपूर्ण सृष्टि एक जंजीर है, जिसकी कड़ियाँ है मनुष्य, पशु-पक्षी, वनस्पति, नदियाँ, पर्वत और अन्य सभी वस्तुएँ जो प्रकृति में विद्यमान हैं।

इस विचार को धक्का लगा सत्रहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के जन्म से। जहां इस क्रांति ने मनुष्य को तकनीकी ज्ञान और शक्ति उपलब्ध करायी, वहीं उसके मन से प्रकृति के प्रति श्रद्धा और आदर की भावना को भी कम कर दिया। धीरे-धीरे -- जैसे-जैसे तथाकथित सभ्यता का विकास हुआ, वन और वनस्पति मात्र दोहन का साधन बन गयी। आज हाल यह है कि वन प्राय: लुप्त हो गये हैं, हजारों प्रकार की वनस्पतियाँ सदा के लिए समाप्त हो गयीं हैं, और वन और जीवन से संबंधित जीव-प्रणाली बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गयी हैं। फल है अनावृष्टि, अतिवृष्टि, मौसमों का बदलाव, भूस्खलन, रेगिस्तानों का बढ़ना आदि।

आशा है कि मनुष्य अपनी 'सभ्यता' का लबादा उतार फैकेगा और अपने पूर्वजों की गौरवमय परंपरा को फिर से अपनाएगा, ताकि वन और वनस्पतियाँ जीवन प्रणाली को फिर से सुचारू रूप से स्थापित कर सकें। 

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