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फुलवारी
     
   

पत्थर ही पत्थर
- शीला इंद्र

न जाने कौन बुद्धू होगा जिसने ‘फर्स्ट अप्रैल फूल’ बनाने का रिवाज चलाया होगा। मुझे ऐसी बातें बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं।

 

वीनू ने पिछले साल मुझे मूर्ख बनाया था। बड़ी पक्की सहेली की दुम बनती है। सारे में मेरी, वह खिल्ली उड़वाई थी कि मैं महीने भर वीनू से बोली नहीं। वह तो वीनू का

‘बर्थ डे’ न आता तो मैं उससे तब भी न बोलती।

मालूम है, उसने क्या किया था? उसने न जाने कैसे एक कागज पर गधे की तस्वीर बनाकर मेरी ड्रेस के पीछे चिपका दी थी। उस पर लिखा था-“मैं पत्थर हूँ। बच के निकलना!” सारे दिन सब बच्चे मेरा मजाक बनाते रहे-‘भई, बच के चलो, कहीं लग न जाए!’ और शाम को घर जाने पर मम्मी ने वह कागज निकालकर मुझे दिखाया था। यह बहादुरे का बच्चा है न हमारा नौकर, मुझे देखकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गया था। बदतमीज कहीं का! मुझे ऐसा रोना आया था कि क्या बताऊँ!

वीनू और इन सबने मुझे तंग न किया होता, तो मैं कभी भी इन सबको ‘अप्रैल फूल’ बनाने की न सोचती। मैं हरगिज ऐसी बुद्धूपने की बातों में न पड़ती, पर क्या बताऊँ....।

जनवरी में हमारे पड़ोस की कोठी में एक एस.डी.ओ. साहब बदली हो कर आए थे। उनकी लड़की रेवा उम्र में हमारे ही बराबर है। पर वह मथुरा में ही अपनी बुआ के पास रह गई थी। लेकिन होली पर वह अपने पापा-मम्मी के पास आ गई थी। जिस दिन मथुरा लौटने वाली थी, उसी दिन उसे तेज बुखार आ गया और टायफायड हो गया। अब ठीक होकर वह चार-पाँच अप्रैल को वापस मथुरा जाने वाली थी।

मैंने भी सोचा कि रेवा के जन्मदिन के बहाने पिछले साल का बदला सबसे एक साथ लिया जाए- ऐसा बदला कि सारे के सारे हमेशा याद रखें!

पापा के एक दोस्त नाई की मंडी में रहते हैं। उनका लड़का परेश तेरह साल का है, मुझसे तीन-चार साल बड़ा। मैंने उसी को अपना हमराज बनाया। उसने बड़े सुंदर-सुंदर अक्षरों में एक निमंत्रण पत्र लिखा-रेवा की मम्मी की तरफ से, कि सब बच्चों को रेवा के जन्मदिन के उपलक्ष में पहली अप्रैल को चाय का निमंत्रण है। सभी बच्चे जरुर-जरुर आएँ। नीचे निमंत्रित बच्चों के नाम थे, जिनमें सबसे ऊपर मेरा नाम था। (जिससे किसी को मेरे ऊपर शक न हो) नीचे एक छोटी-सी सूचना भी थी कि कोई भी रेवा से इसका जिक्र न करें क्योंकि अचानक सबको देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता होगी। यह सब लिखवाने और किसी से न कहने के लिए परेश को पूरे डेढ़ रुपये वाली चाकलेट की घूस देनी पड़ी। मैंने सोचा था, आधी चाकलेट तो वह मुझे देगा ही और इस तरह मेरे आधे पैसे वसूल हो जाएँगे, पर उसने सिर्फ एक चौकोर टुकड़ा मेरे हाथ में थमा दिया, बाकी सब खुद हड़प गया। नदीदा कहीं का!

अब सवाल था, कि यह निमंत्रण किससे भिजवाया जाए। सो मैंने रेवा के घर की महरी को पकड़ा और खूब समझा दिया कि सिवाय रेवा के वह सबके पास इस चिट्ठी को देकर दस्तखत करा लाए। पर वह क्यों करने लगी मुफ्त में मेरा काम? और उसको भी पूरा एक रुपया इस काम के लिए देना पड़ा। मेरी गुल्लक में सवा तीन रुपये जमा हुए थे, उसी में से यह सब खर्चा किया था मैंने।

अब वीनू, पिंकी, छुन्नू, दीना, पाँचू सभी बड़े खुश। मैं भी बड़ी खुश। इसी के लिए तो ढ़ाई रुपये खर्च किए थे। जब भी सब मिले, तो यही बातें हुईं कि कौन क्या पहन कर पार्टी में जाएगा। रेवा के लिए कौन क्या उपहार ले जाएगा? पिंकी फाउंटेन पेन दे रही थी। वीनू की माँ एक राइटिंग पैड और लिफाफे लाई थी- यह सोचकर कि रेवा मथुरा में रहती है माँ-बाप को चिट्ठी लिखने के काम आएगा। साथ में तस्वीरों वाले पोस्ट कार्डों का सेट भी था। छुन्नू ने एक ग्लोब खरीदा था। दीना और पाँचू क्या ले जाएँगे, पता नहीं था, क्योंकि उन दोनों ही के पापा अभी तक कुछ लाए नहीं थे। मैंने भी कह दिया कि ‘मेरेपापा ने कहा है कि कोई बढ़िया चीज लाएँगे, देखों क्या लाकर देते हैं? मन ही मन मुझे बड़ी हँसी आ रही थी कि सारे के सारे खूब उल्लू बन रहे हैं।

दूसरे दिन ही पहली अप्रैल थी। सुबह से मेरे मन में शाम का नजारा देखने की बेचैनी थी। जब कि सबके सब अपने-अपने प्रेजेंट लेकर जाएँगे और रेवा और उसकी मम्मी परेशान-सी सब के मुँह ताकेंगी और घबड़ा कर कहेंगी कि ‘अरे, हमने तो किसी को नहीं बुलाया था। रेवा का जन्म दिन तो आज है भी नहीं।‘ उस समय सबकी खिसियानी सूरतें देखने काबिल होंगी। वाह, क्या मजा आएगा! सारे के सारे नदीदे मिठाई खाने के बदले पिटा-सा मुँह लेकर लौटेंगे।

कल पिंकी कह रही थी कि कहीं हमें ‘अप्रैल फूल’ तो नहीं बनाया जा रहा है, तो पाँचू और दीना दोनों ही बोले-“वाह, रेवा की मम्मी हमें क्यों बेवकूफ बनाने लगीं? यदि रेवा बुलाती तो कोई बात थी सोचने की।“ सभी ने यह बात मान ली थी।

सारे दिन स्कूल में मेरा मन नहीं लगा। लेकिन एक बात सबसे मुश्किल थी। वह यह कि मुझे तो मालूम ही है कि सबको बेवकूफ बनाया जा रहा है, इसलिए मैं जाऊँ या नहीं। बिना गए सब की खिसियानी सूरतें देखूँगी तो कैसे? जाऊँ तो कुछ प्रेजेंट ले जाना चाहिए या नहीं?

शाम को घर आकर मैंने जल्दी से एक डिब्बा लिया। उसमें खूब से कागज भरे, बीच में कागज लिपटा एक पत्थर रखा। उस पर लिखा ‘फर्स्ट अप्रैल फूल!’ फिर डिब्बे पर एक लाल कागज चढ़ाया और सादी-सी फ्रॉक पहन कर रेवा के घर चल दी। सोचा था बाहर से ही रेवा को दे दूँगी कि मुझे जरुरी काम से जाना है, मैं आ न सकूँगी।

रास्ते में सोचती जा रही थी कि ये लोग लौटते हुए या रेवा के घर से निकलते हुए दिखाई दे जाएँ, तो ही मजा रहे। पर न तो मुझे रास्ते में कोई दिखा, न रेवा के घर से निकलता हुआ ही मिला। हाय राम! कहीं ऐसा तो नहीं कि वे लोग आए ही न हों और सबको पता लग गया हो कि वे बुद्धू बनाए जा रहे हैं।

इसी उलझन में मैं बाहर के दरवाजे तक पहुँची, तो सामने महरी बैठी तमाखू खा रही थी। मुझे देखते ही काली-काली बत्तीसी निपोरकर बोली“आवौ्, मिन्नी रानी, आवौ। सबकै सब खाय रहे हैं। तुमहु जावौ, माल उड़ावौ। तुम्हार चिठिया ने तो खूब काम बनावौ।“

“क्या सब खा रहे हैं?” मैं हैरान-सी महरी का मुँह ताकती रह गई। “क्या कह रही है तू?”

तभी रेवा मुझे दरवाजे पर देखकर भागती हुई आई। “आओ, मिन्नी, आओ। तुमने बड़ी देर कर दी। तुम्हारा इंतजार करते-करते अभी-अभी खाना शुरु किया है।“

मैं घबड़ा गई। “क्या तेरा सचमुच आज जन्म दिन है।“

“अरे हाँ, सच ही तो है। और तू क्या मजाक समझ रही थी कि आज सबको ‘अप्रैल फूल’ बनाया जा रहा है?”

तभी पाँचू हाथ में मिठाई-नमकीन भरी प्लेट लेकर बाहर आ गया। (हाय! कितनी सारी चीजें थीं उसमें- सब मेरी पसंद की!)

मुँह में रसगुल्ला ठूँसते हुए पाँचू बोला, “वाह, मिन्नी रानी, इतनी देर कर दी तुमने! मैं तो रेवा से कह रहा था कि मिन्नी नहीं आएगी। उसकी प्लेट भी मुझे ही दे दो।“ फिर मेरे हाथ के डिब्बे पर झूकते हुए बोला, “वाह, बड़ा भारी प्रेजेंट ले कर आई हो तुम तो! क्या लाई हो इसमें?”

पत्थर लाई हूँ- मैंने मन ही मन कहा और रेवा जो मुझे पकड़ कर अंदर खींच रही थी, उसके हाथों से अपने को छुड़ाकर मैंने एकदम घबड़ाकर कहा, “रेवा, मैं तो समझी थी कि हमें बुद्धू बनाया जा रहा है।“

“हट पगली कहीं की, मम्मी भी तुम लोगों को बुद्धू बना सकती हैं क्या? पर देखो न, हर साल मम्मी से कहती थी पर उन्होंने कभी मेरा जन्म-दिन नहीं मनाया। कह देती थी- “पहली अप्रैल’ को कोई नहीं आएगाय सब समझेंगे “अप्रैल फूल” बना रहे हैं। अब की देखो, मम्मी ने बिना मुझे बताए ही सबको बुला लिया। सच, मम्मी बहुत अच्छी हैं.....अच्छा, अब चलो न.....” उसने अब फिर मेरा हाथ पकड़ लिया। पर मैं अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से बाहर भागी- “रेवा, मैं बाद में आऊँगी ....” कहती हुई मैं भाग चली। रास्ते में फिर महरी दिख गई। बोली, “क्यों, रानी, लौट काहे आई? अरे, तुम्हारी चिठिया बहू जी ने पढ़ी थी, वो तुम से बहुत खुश हैं। जावौ तुम्हें डबल हिस्सा मिलेगा।“

तो यह बात है! इस महरी की बच्ची ने ही सारी गड़बड़ की..... पर रेवा का तो सचमुच आज ही जन्म-दिन है। छिः आज का दिन कोई पैदा होने का दिन होता है। तभी बुद्धू जैसी दिखती है..... पर...हाय! कितनी बढ़िया-बढ़िया चीजें थी पाँचू की प्लेट में!

मम्मी घर में होतीं, तो उनसे ही जल्दी से घर में से ही कुछ निकलवा कर रेवा के लिए ले जाती, पर उन्हें भी पार्टी में आज ही जाना था। साथ में टिंकू को भी ले गईं.... मैं यहाँ.... भगवान करे वह भी वहाँ खूब बुद्धू बनाई जाएँ!

मुझे इतना रोना आया कि पलंग पर गिरकर खूब रोई। तभी बहादुरे ने आ कर पूरा पैकेट खोल डाला” मिन्नी, यह क्या है? क्या लाई है तू....?”

“सिर लाई हूँ तेरा!” मैंने पैकेट उसके हाथ से झपटना चाहा कि उसमें से खुलकर सारे कागज और पत्थर भी नीचे गिर पड़े, जिन पर लिखा था “अप्रैल फूल!”

(पराग से साभार)

२६ मार्च २०१२

  
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