इतनी छोटी-सी तो हूँ मैं। मैं क्या
कहानी-किस्सा कुछ कह पाती हूँ? पर
बात यह हुई कि इस बार होली पर हमारी नई-नई चाची, जिनकी अभी चार
महीने पहले ही शादी हुई है, हमारे यहाँ आने वाली थीं। पर शायद
यह भी कहने की कोई बात नहीं है। मुझे जहाँ तक मालूम है शुरु
में सभी बहुएँ जब मायके से आती हैं, तो थोड़ी-बहुत मिठाई साथ
लाती ही हैं। पिंकी की भाभी दस किलो मोतीचूर के लड्डू लाई थीं।
लाईं तो वह दो-ढाई किलो गुलाबजामुन भी थीं। पर पिंकी मुझे बता
रही थी कि उसकी अम्मा ने सारी गुलाबजामुन छिपा ली थीं, किसी को
भी बताया नहीं। और पाँचू की मामी जब आई थीं, वह भी अपनी माँ के
घर से टोकरों मिठाई लाई थीं। उसकी ननिहाल के शहर के घर-घर में
इतनी मिठाई बाँटी गई कि लोग मिठाई के नाम से भी ऊबने लगे।
जब कभी भी मिठाइयों की बात चलती है, तो पाँचू
हम लोगों को अपनी मामी के साथ आई एक-एक मिठाई की बातें ऐसे
सुनाता है कि हमारे सबके मुँह में पानी भर कर जाता। इतनी मिठाई
आई कि जिन कपड़ों में वे टोकरे बँध कर आए थे, सारी मिठाई खत्म
होने के बाद भी, उनसे मुद्दत तक खुशबू आती रहीं।
और अब हमारी बारी है। हमारी चाची आएँगी और साथ में मिठाई तो
कुछ लाएँगी ही, इतना अनुमान मैं क्या नहीं लगा सकती?
पच्चीस-तीस किलो से क्या कम होगी वह।
बात
यह है कि हमारे बाबा और दादी तो बनारस में रहते हैं, सो वहीं
से उन्होंने चाचा की शादी की थी। हम भी वहाँ पूरे दो महीने
रहे। मिठाई-मिठाई सब वहीं खत्म हो गई। यहाँ हमारे मित्रों में
बाँटने को मम्मी कुछ भी नहीं लाईं। और पाँचू की माँ अपने घर से
एक छोटी टोकरी में बहुत-सी मिठाई लाई थीं। एक बालूशाही पाँचू
ने मुझे भी चुपके से दी थी। बड़ी अच्छी थी। उसका स्वाद और खुशबू
तो मुझे अभी तक याद है।
मम्मी कहती हैं, मिन्नी, तू बड़ी नदीदी है, तो मैं गुस्सा हो
जाती हूँ। पर क्या बताऊँ, मिठाई की बात आते ही मेरी नाक में
उसकी खुशबू ही नहीं भर जाती, बल्कि मुँह में स्वाद भी आ जाता
है।
चाचा की चिट्ठी आई थी कि
वह चाची के साथ चार-पाँच दिन को आ रहे हैं और यहीं से फिर बंबई
चले जाएँगे, तो मैं खुशी के मारे उसी दिन बजरबट्टू बन गई।
बजरबट्टू क्या होता है? हमें नहीं मालूम। हमारी मम्मी ही मुझ
पर जब गुस्सा होती हैं, तो डाँट लगाती हैं “क्या बजरबट्टू-सी
सारे में नाचती रहती है!’
हाँ, तो मैं पापा के मुँह से चाचा की चिट्ठी की बात सुनकर उसी
दिन सारे बच्चों से, एक-एक के घर जाकर, बता आई कि ‘हमारे चाचा
आ रहे हैं। साथ में चाची आ रही हैं अपनी अम्मा के घर से और
मिठाई-सिठाई तो आएगी ही बहुत सारी।’
चाची अमीर घर की हैं। हमारी, पिंकी की, पाँचू की और दीना की,
चारों कोठियाँ मिलादें ऐसा उनका एक महल है। महल में ऐसे
बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे कमरे कि धीरे से बोलो तो भी आवाज ऐसी गूँजे
जैसे लाउड स्पीकर पर बोल रहे हैं।
वीनू ने कई दिन से मुझसे
और मेरे छोटे भाई टिंकू से खुट्टी कर रखी थी। जब उसने सुना कि
हमारे चाचा-चाची आने वाले हैं, उनके साथ में ढेरों मिठाई आने
वाली है, तो झटपट नाक-कान पर हाथ घर कर खुट्टी तोड़ कर हँसने
लगी-‘वाह, मिन्नी, तुझसे क्यों खुट्टी करुँगी? तुम तो मेरी
एकदम पक्की सहेली हो। वह तो दीना ने झूठमूठ बात लगा दी थी।‘
मैं सब जानती हूँ। वीनू ऐसी ही है। जब दूसरे का मतलब होता है,
तो अपने घर में घुस जाती है, किसी से ढँग से बात भी नहीं करती,
और जब अपना मतलब होता है, तो चट से पक्की सहेली बन जाती है।
लालची कहीं की!
चाची के साथ आई मिठाइयों में कोई इमरती होगी तो जरुर इस वीनू
को दे दूँगी। भला इमरती भी कोई मिठाई है?
पर यह न सोचे कोई कि चाची के आने से हमारे यहाँ बड़े मजे हो रहे
हैं। ओफ! चाची क्या आ रही हैं कि पापा ने हम दोनों से फौज के
जवानों जैसी कवायद शुरु करवा दी है।
सुबह-सुबह उठकर मैं
वरांडे की सीढ़ियों पर बैठी ही थी कि पापा ने गरज कर आवाज दी “ऐ
मिन्नी, इधर तो आओ।“
मैं डरते-डरते उनके पास पहुँची, तो डाँटते हुए बोले, “क्यों
री, दस बजे सोकर उठी है और आलसियों की तरह सीढ़ी पर बैठ गई।
तुझे नहीं मालूम कि खाट से उठकर ऐसे सीढ़ियों पर बैठना मनहूसों
का काम है। तेरी चाची देखेंगी, तो क्या कहेंगी?”
चुप रही, क्या कहती? पापा
जो ठहरे! पर मुझे क्या घड़ी देखनी नहीं आती! साढ़े सात बजे हैं
और कहते हैं- दस बज गए। हुँ: !
रोज सुबह-सुबह पापा खाट पर पड़े-पड़े आवाज लगाते हैं-“अरे,यह
कमबख्त बहादुर सिंह अभी तक चाय नहीं लाया। कहाँ मर गया!” मम्मी
उठेंगी, सो इन्हीं सीढ़ियों पर बैठ कर कहेंगी-“अरे बहादुरे,
तुझे एक कप चाय देने में भी बरसों लग जाएँगे। मेरी तो चाय के
बिना आँखें भी नहीं खुल रही है!”
कल पापा मम्मी से कह रहे थे-“ऐ जी, जरा ढँग से रहना सीखो। बाल
काढ़ती हो, तो धुटनों पर शीशा घर कर। फिर वहीं खाट पर ही शीशा
छोड़ देती हो और वहीं कंघा।“
मम्मी बिगड़ गईं- “मैं तो
अपनी अम्मां के घर से इतनी बड़ी ड्रेंसिंग टेबिल लाई थी, पर
तुम्हारे लाड़ले ने गेंद मारकर शीशा तोड़ डाला, तो क्या मैं जाती
उसे बनवाने? अरे, मेरे लिए नहीं, तो अपनी लाड़ली बहूरानी के लिए
ही उसे बनवा दो न। कबाड़खाने में डाल दिया है मेरी ड्रेसिंग
टेबिल को?”
पापा उसी दिन झटपट जाकर ड्रेसिंग टेबिल ठीक करवा लाए। मजदूर
लगवाकर सारे घर की पुताई करवाई, सारा सामान खुद ही मजदूरों से
जमवाया। वाह! हमारा घर तो एकदम चमाचम हो गया!
जरा-सी भी गड़बड़ देखते, तो पापा डाँटने लगते-“क्या गड़बड़ कर रखी
है, क्या सोचेगी बहूरानी कि जेठ जी डिप्टी कलेक्टर हैं, पर ढँग
से रहना भी नहीं आता।“
एक दिन मम्मी से बोले, “ए जी, सुनती हो? बहूरानी के घर के एक
कमरे में ही इतना कीमती सामान लगा है कि हमारी पूरी कोठी में
भी नहीं होगा।“
बात तो पापा एकदम ठीक
कहते हैं। उनके ड्राइंग रुम में जो पीतल की बहुत बड़ी नटराज की
मूर्ति रखी है, उसी के लिए बाराती लोग कह रहे थे कि हजारों
रुपयों की होगी।
पापा की बात सुन कर मम्मी बिगड़ गई, “होंगी अमीर अपने घर की,
हमें कौन कुछ दे जाएँगी!”
पापा ने हाथ जोड़ दिए, “अच्छा, भली मानस, उनके सामने अपनी जबान
कंट्रोल में रखना!”
मम्मी जल-भुनकर कुछ कहतीं
कि रसोईघर से सब्जी जलने की बास आई और वह उधर ही भागीं।
सब्जी उतारकर वह वहीं से चिल्लाईं-“ऐ, सुनते हो जी, तुम्हारी
लाड़ली बहूरानी के घर में छः नौकर होंगे। उनकी अम्मां और वह
पलंग से पाँव भी नीचे न धरती होंगी। वह आएगी, तो क्या कहेगी कि
उसकी जिठानी हर समय चुल्हे से ही चिपकी
रहती है.... शरम नहीं आएगी तुम्हें ..... यह कमबख्त बहादुरसिंह
तो हर समय बाजार.....”
पर पापा बहादुरसिंह को
लेकर बाजार जा चुके थे। मुझे और टिंकू को हँसी आ गई। मम्मी आज
सचमुच दीवारों से बातें कर रही थीं!
अरे! जाने भी दो। बच्चों को मम्मी और पापा की बुराई नहीं करनी
चाहिए। किताबों में लिखा है। इससे पाप लगता है।
मेरा दिमाग भी कितना खराब है। क्या कह रही थी, क्या कहने लगी।
तभी मम्मी कहती हैं,
“तू कुछ नहीं कर सकती। हर बात भूल जाती है।“
पिछले महीने मम्मी ने विमला आंटी से पुछवाया था कि वह अचार की
मिर्चे लेने बाजार चलेंगी क्या?”
रास्ते में मुझे छुन्नू मिल गया। बताने लगा कि उसकी मम्मी
अस्पताल से आ गई हैं और उसके लिए एक नन्हा-सा भैया लाई हैं। सो
मैं सब कुछ भूलभाल चटपट छुन्नू के साथ उसका भैया देखने भाग गई।
बड़ा प्यारा-प्यारा मक्खन जैसा था। छुन्नू की मम्मी ने थोड़ी-सी
देर को मेरी गोदी में भी लिटा दिया गया था उसे। घंटे भर बाद
लौटी, तो बड़ी उमंग में कि मम्मी से जिद्द करुँगी कि वह भी
अस्पताल जाकर जरुर एक छोटा-सा भैया ले आएँ। नहीं .... नहीं
.... भैया नहीं! टिंकू कितना शैतान है! मुझे बिल्कुल भी अच्छा
नहीं लगता। मम्मी से कहूँगी एक बहन लाए। छोटी-सी। कोई बहुत
महँगी थोड़े ही होगी
चार-पाँच सौ रुपये में आ जाएगी!”
मैं उछलती-कूछती चली आ
रही थी कि दरवाजे पर ही मम्मी ने चपत जड़ी “इत्ती देर कहाँ लगा
दी? विमला चलेंगी या नहीं?” फिर जैसे खुद से ही बोलीं, “अब
क्या चलेंगी, शाम तो हो गई!”
मैं तो घबड़ा गई‘हाय! विमला आंटी के घर जाना तो भूल ही गई’, पर
मम्मी से चटपट झूठ बोल दिया,” विमला आंटी के सिर में दर्द हो
रहा है!”
मम्मी भी तो ऐसे ही झूठ बोलती हैं। पापा कमीज में बटन टाँकने
को कह जाएँगे। मम्मी सारे दिन कहानी पढ़ती रहेंगी, जब पापा
पूछेंगे तो चट से कह देंगी कि क्या करुँ! कल सारे दिन सिर में
दर्द ऐसा होता रहा कि आँख भी न खोल सकीं!”
हाँ, तो मैं क्या कह रही
थी? याद आया... चाची के साथ आने वाली मिठाई की बात।
तो मिठाई आना कोई ऐसी बात नहीं कि उसके लिए किस्सा-कहानी गढ़ने
बैठ जाया जाए। तमाशा बना दिया पिंकी, पाँचू, वीनू, दीना और
टिंकू ने। मैं तो बराबर मना ही करती रही थी। पर सबने दोष मुझ
पर ही जड़ दिया कि मिन्नी ने ही अलमारी के ऊपर से कैंची उतारी
थी। फिर जब चाचा-चाची आए, तो कैंची थी भी तो मेरे ही हाथ में।
बिना बात फँस गई मैं तो!
बात यह हुई कि चाचा-चाची की ट्रेन सुबह आठ बजे आने वाली थी।
पापा सुबह से ही अपनी कार लेकर स्टेशन चले गए थे। मम्मी कहती
भी रहीं, “बेकार यह खटारा मत ले जाओ। इससे तो अच्छा यही होगा
कि उन्हें पैदल ही ले आना!”
पापा अच्छे मूड में थे, सो हँसते-हँसते चले गए। छुट्टी का दिन
था यानी इतवार। गाड़ी लेट तो रोज ही होती होगी, क्या पता आज एक
घंटा पहले ही आ जाए। सो मैं और टिंकू सुबह ही नहा-धोकर, सजधज
कर तैयार हो गए। किसी भी कार का हार्न सुनाई पड़ता, तो हम यही
समझते जैसे चाचा-चाची आ गए। दौड़कर बाहर जाते। बाहर खेलते, तो
मम्मी डाँटकर बुला लेतीं कि बाहर मत खेलो, कपड़े गंदे हो
जाएँगे।
वैसे चाचा-चाची का तो इंतजार था ही हमें, पर हमारे मुँह में तो
सुबह से ही उनके साथ आने वाली मिठाई का स्वाद बसा था। अहा,
चौधरी स्वीट हाऊस की मिल्क पुडिंग की कैसी बढ़िया खुशबू होती
है! मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे सारे घर में मिठाई की खुशबू ही
भरी हो!
आठ बजते न बजते पाँचू, वीनू, पिंकी, दीना, छुन्नू सब आ गए ऐसे
सज-धजकर जैसे आज ही तो चाचा की बारात जाने वाली हो, और वे ही
सब बाराती हों। नदीदे कहीं के! मैं तो कभी ऐसे किसी के घर नहीं
जाती। वह तो पाँचू जब अपनी ननिहाल से मामा की शादी करके आया
था, तो मैं कोई मिठाई खाने थोड़े ही गई थी, मैं तो अपनी नई
किताब उसे दिखाने गई थी।
तो मरा खटारा चाचा-चाची
को लेकर लौटा ग्यारह बजे। चाचा मम्मी से कह रहे थे, “दो घंटे
गाड़ी लेट और एक घंटे खटारा लेट। आखिर ट्रेन से तो कम ही लेट
रहा! भाभी, इस खुशी में मिठाई खिलाओ!”
मिठाई का नाम सुनते ही मेरे मुँह में फिर पानी आ गया। वाह,
चाची के साथ आई बड़-सी पिटारी में से कैसी बढ़िया खुशबू आ रही
है! लखनऊ की मिठाई है न। मैंने सोचा, मम्मी अब झटपट चाचा-चाची
के साथ आई मिठाई की बड़ी-सी टोकरी को खोलकर सबका मुँह मीठा
कराएँगी।
पर, मम्मी तो एक दम बुद्धू निकलीं। हँसते-हँसते बोलीं,
”हाँ-हाँ, प्रकाश भैया, मिठाई क्यों न खिलाऊँगी। कल इस खटारे
की डायमंड जुबली मनाएँगे, तब इस पर बैठकर ताजमहल देखने चलना,
वहीं मिठाई खाना। क्योंकि यह भी तो शाहजहाँ के जमाने का है न!
चाचा खिलखिलाकर हँस पड़े,
“बस, फिर तो देख चुके ताजमहल....”
बस सब हँसने लगे और मिठाई की बात खतम। यह भी कोई हँसने की बात
हुई? काम की बात करना तो कोई जानता ही नहीं!
और हम सोच रहे थे कि आज खाना नहीं खाएँगे। चाची के घर से आई
मिठाई ही खाएँगे पेट भर। चौधरी स्वीट हाऊस की काजू की दालमोठ
भी तो आई होगी। दालमोठ तो मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती, पर
काजू बहुत अच्छे लगते हैं। खैर, कोई बात नहीं, मैं खाली काजू
ही खा लूँगी।
अब देखो न, मैं अभी छोटी
ही तो हूँ। पर मम्मी जब देखो डाँटती रहती हैं, “इत्ती धींगड़ी
हो गई, नौ साल की, भगवान जाने कब अकल आएगी इसे।‘ (वैसे एक बात
है, मम्मी पिंकी, पाँचू यानी सबकी मम्मियों से हमेशा यही कहती
हैं- ‘अरे! हमारी मिन्नी तो देखने में एकदम लम्बी हो गई हैं।
वैसे है तो अभी साढ़े छह ही साल की!’)
मैं तो फिर बात गड़बड़ कर गई। हाँ, तो मम्मी मुझे धींगड़ी कहती
हैं, पर यह मम्मी खुद इतनी बड़ी हो गईं, इन्हें कौन अक्ल सिखाए?
अब देखो, सुबह से बच्चे सब भूखे बैठे हैं कि चाचा-चाची के साथ
मिठाई आएगी, तो खाएँगे। पर इन मम्मी को देखो, मिठाई-सिठाई की
कोई बात ही नहीं। जैसे उन्हें मिठाई पसंद ही न हो।
चाची ही कहतीं कि इस पिटारी से मिठाई निकाल कर इन बच्चों को दे
दो। सो उन्हें भी कुछ ध्यान नहीं।
पापा जी जल्दी-जल्दी आए
और बोले, “अरे भई, मैं तो भूल ही गया था। जल्दी से खाना लगाओ।
तीन बजे अखिल चला जाएगा। बहुत कह गए थे वे लोग कि प्रकाश और
बहू आएँ, तो थोड़ी देर को ले आना। हम लोग तो आ नहीं पाएँगे।“
चारों जनों ने जल्दी-जल्दी खाना खाया और चल दिए अखिल चाचा के
घर। इतना भी नहीं सोचा कि अखिल चाचा कलकत्ते जा रहे हैं, तो
चाची के साथ आई थोड़ी-सी मिठाई उनके लिए भी ले चलें।
मैं और टिंकू रह गए घर में। थोड़ा बहुत खाना दोनों ने खाया ही।
जब मिठाई खाने का मन हो, तो रोटी खाना क्या अच्छा लगता है
क्या? पर सच, हम बच्चे बिचारे बड़े सीधे होते हैं!
पापा वगैरा के जाने पर
पिंकी, छुन्नू, दीना, पाँचू, वीनू सब अपने-अपने घर खाना खाने
चले गए। अभी तक तो मेरे लूडो से खेलते रहे थे, पर अब कब तक
लूडो से खेलते। भूख भी तो लग रही होगी।
बहादुर ने चाची का सारा सामान ऊपर के कमरे में पहुँचा दिया,
जिसे पापा ने चाची के लिए पहले से ही सजा दिया था।
पूरा एक घंटा लगा होगा उनका सामान जमाने में।
जब वह मिठाई की पिटारी
उठाने लगा, तो मैं भी वहीं खड़ी हो गई। पता नहीं, बहादुर ने
कहीं पटक-पटका दिया, तो चूरा ही बन जाएगा। यह लखनऊ की मिठाई है
जी, लखनऊ की! कोई सुंदरम अंकल के घर के लड्डू नहीं, जो हथौड़े
से तोड़ें, तो हथौड़ा टूट जाए, पर लड्डू न टूटे!
बहादुर ने पिटारी उठाई, तो एकदम नाक से सटा कर लंबी-सी साँस
सींच कर बोला, “अरे वाह!”
“क्या बड़ी बढ़िया खुशबू आ रही हैं इसमें से?” टिंकू ने पूछा, तो
बहादुर हँस दिया और टिंकू की नाक से पिटारी सटा दी “देख आ रही
है न बढ़िया खुशबू!”
खुशबू तो मुझे भी बढ़िया लग रही थी। लखनऊ की मिठाई की। खुशबू के
क्या कहने! मुझे तो नाम से ही खुशबू आने लगती है।
तभी पाँचू आ गया। टिंकू उछलते-उछलते बोला, “अरे पाँचू, देखो न
चाची की मिठाई की पिटारी में से कैसी बढ़िया खुशबू आ रही है!”
“क्या मिठाई की पिटारी खोल ली?” पाँचू की आँखें चमकने लगीं।
“अजी, अभी कहाँ, तारीफ तो यही है। बिना खुले ही इतनी खुशबू आ
रही है, तो खुलने पर कितनी आएगी! तुम्हारी मामी के घर की
बालूशाही में से तो इसकी आधी भी खुशबू नहीं आ रही थी,” मैंने
पाँचू को चिढ़ाने को कहा।
पर वह तो बड़ा चंट निकला।
ऐसे हँसता रहा कि जैसे उसे मेरी बात बुरी ही न लगी हो।
इतने में पिंकी, छुन्नू, वीनू और दीना भी आ गए। वीनू तो अपने
बाग से एक सुंदर-सा फूल भी लाई मेरे लिए। बोली-“ले, मिन्नी,
दीना ने तुझसे यही तो कहा था न कि तू ने मेरा फूल तोड़ा, सो मैं
गुस्सा हो गई थी। ले, मैं तेरे लिए खुद फूल ले आई। अब तो मानती
है न कि मैं तेरी एकदम पक्की सहेली हूँ।“
सच, कभी-कभी तो वीनू मुझे बहुत ही प्यार करती है। मैंने फूल
अपने बालों में पिन से अटका लिया। टिंकू अपनी बुश्शर्ट में
लगाने की जिद कर रहा था। पर कहीं लड़कियों के बालों से लड़कों की
बुश्शर्ट में फूल ज्यादा अच्छा लगता है? कुछ भी नहीं मालूम
इसे, एकदम बुद्धू है। खैर, हम सब ऊपर पहुँचे। पिटारी एक कोने
में रखी थी, सौ मैंने आगे खिसका ली। खूब भारी थी। एकदम ऊपर तक
भरी हुई।
टिंकू बोला, “दीदी, क्या इसमें हाथ डालकर एकाध टुकड़ा मिठाई का
निकाला नहीं जा सकता? मुझे तो बड़ी भूख लगी है।“
पिंकी ने घबड़ाकर पूछा, “अरे, तो क्या तूने खाना नहीं खाया अभी
तक?”
“खाया तो था, पर
थोड़ा-सा,” टिंकू शरमा गया। और बुरा-बुरा मुँह बनाकर फिर मिठाई
की पिटारी पर झुक गया।
छुन्नू, दीना और पाँचू पहले से ही पिटारी पर झुके यह देखने की
कोशिश कर रहे थे कि कहीं कोई छेद मिल जाए, तो हाथ डालकर कुछ
निकाला जाए।
पर सारी पिटारी को मोटे वाले लाल कपड़े में बाँध ऐसी बारीकी से
सिया गया था कि एक छँगुलिया जाने की भी जगह नहीं थी।
“छिः, चाची के घर वाले हमें क्या चोर समझते थे कि मिठाई चुराकर
खा जाएँगे,” मैंने कहा, तो सब हँसने लगे। कुछ सोच कर पाँचू
बोला, “सुन, मिन्नी, यहाँ पर जरा दूर-दूर पर सिलाई है। अगर
कैंची मिल जाए, तो थोड़ा काटकर अंदर हाथ डाला जा सकता है।“
टिंकू कैंची इधर-उधर ढूँढने लगा।
“अगर इतनी देर में चाचा-चाची आ गए, तो? कहेंगे बच्चे कितने
नदीदे हैं,” मैंने कहा।
“नदीदे क्यों हैं, जी, मिठाई तो हमी लोगों के लिए है न,” टिंकू
ने अकड़ कर कहा।
“और क्या हम लोगों ...... तुम लोगों के लिए नहीं, तो क्या वे
साथ ले जाएँगे?” छुन्नू बोला।
“पर ऐसे अच्छा तो नहीं
लगता,” पिंकी बोली।
“क्या अच्छा नहीं लगता, जी, मिठाई हमारे लिए है, हम खा रहे
हैं। फिर उन्हें पता भी क्या लगेगा। थोड़ी-सी तो निकालेंगे,”
टिंकू फिर बोला।
अलमारी के ऊपर रखी कैंची मुझे दिख गई। जल्दी से मेज के ऊपर
चढ़कर मैंने कैंची उतार ली।
पाँचू ने जल्दी से दो-चार धागे काटे और सिलाई उधेड़ने लगा।
“ज्यादामत उधेड़ना, पाँचू,” मैं चिल्लाई। तब तक क्या देखती हूँ
कि इस शैतान की आँत टिंकू ने दूसरी तरफ से भी सिलाई काट डाली
है।
“हाय राम, यह तूने क्या किया, कमबख्त!” मैं घबड़ा कर चीखी,
सिलाई तो पूरी ही उधड़ गई। हमें तो सीना भी नहीं आता, जो जल्दी
से सी दें। उधर मम्मी का भी डर लग रहा था। कहीं इन सबने ज्यादा
मिठाई खा ली, तो मम्मी मुझे कितना मारेंगी। फिर तो शायद मुझे
एक टुकड़ा भी खाने को न दें। मैंने टिंकू के हाथ से कैंची छीन
ली और जैसे ही उसे मारने को हाथ उठाया कि देखा दरवाजे पर चाचा
और चाची दोनों खड़े हमें घूर रहे हैं।
डर और घबड़ाहट के मारे
मेरे हाथ से कैंची छूट कर गिर पड़ी। लगा कि अभी बेहोश होकर गिर
जाऊँगी।
“ओफ्फोह, ये बच्चे कितने शैतान हैं?” चाची अपनी बारीक-सी आवाज
में चीखीं।
टिंकू जो पापा से भी नहीं डरता, चाची की आवाज से डरकर उसने
टोकरी के अंदर डाला अपना हाथ बाहर खींचा और हम सबने आँखें
फाड़कर देखा उसके हाथ में लाल सुनहरी रंग की एक चप्पल लटकी है!
“क्या? चप्पल!” सब एक साथ चीख पड़े।
टिंकू ने चाची की परवाह किए बिना एकदम पिटारी का ढक्कन खोल
दिया। उसमें रंग-बिरंगी तरह-तरह की चप्पलें, जूते, सेंडिल भरे
थे ऊपर तक।
“अब बताओ मैं कैसे बंद करुँगी इसे? इतनी मेहनत से चंदू ने सिया
था इसे। आखिर तुम लोगों ने इसे खोला ही क्यों?” लगा चाची रो ही
पड़ेंगी।
पिटारी में चप्पलें देखते ही सब के सब छूमंतर हो गए। मिठाई
होती, तो क्या ऐसे ही भाग जाते!
पकड़ी गई मैं। “हम समझे थे
इसमें आप हमारे लिए मिठाई लाई हैं,” टिंकू ने अटक-अटक कर कहा।
इस पर चाचा लगे जोर-जोर से हँसने और हँसते ही चले गए।
हुँ! यह भी कोई हँसने की बात है। हमें तो रोना आ रहा है!
और चाची भी तो रुआँसी हो गई हैं, टिंकू की बात सुनकर वह एकदम
मेज पर पड़ा अपना पर्स उठा कर नीचे चली गईं। जरुर मम्मी से
हमारी शिकायत करने गई होंगी।
किसी तरह नीचे आकर मैं अपने पढ़ने के कमरे में चुपचाप बैठकर
स्कूल का काम करने लगी। कितना सारा काम दिया था टीचर ने, पर इन
चाचा-चाची के आने की खुशी में सब भूल ही गई थी।
छिः ! चाची-फाची! होली का सारा मजा ही किरकिरा हो गया! |