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फुलवारी

सैर - पूर्णिमा वर्मन

रविवार का दिन था। सबकी छुट्टी थी। आसमान साफ था और ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। सूरज की किरणें शहर के ऊपर बिखरी थीं। धूप में गरमी नहीं थी। मौसम सुहावना था। बिलकुल वैसा जैसा एक पिकनिक के लिए होना चाहिये। मन्नू सोचने लगा, काश! आज हम कहीं घूमने जा सकते।
 

मन्नू रसोई में आया। माँ बेसिन में बर्तन धो रही थी।
"माँ क्या आज हम कहीं घूमने चल सकते हैं?" मन्नू ने पूछा।
"क्यों नही, अगर तुम्हारा स्कूल का काम पूरा हो गया तो हम ज़रूर घूमने चलेंगे।" माँ ने कहा।
"मैं आधे घंटे के अंदर स्कूल का काम पूरा कर सकता हूँ।" मन्नू ने कहा।

मन्नू स्कूल का काम करने बैठ गया।
"हम कहाँ घूमने चलेंगे?" मन्नू ने पूछा।
"बाबा और मुन्नी ने गांधी पार्क का कार्यक्रम बनाया है।" माँ ने बताया।
"यह पार्क तो हमने पहले कभी नहीं देखा?" मन्नू ने पूछा।
"हाँ, इसीलिये तो।" माँ ने उत्तर दिया।

मन्नू काम पूरा कर के बाहर आ गया।
"क्या गांधी पार्क बहुत दूर है?" मुन्नी ने पूछा।
"हाँ, हमें कार से लम्बा सफर करना होगा।" बाबा ने बताया।
सुबह के काम पूरे कर के सब लोग तैयार हुए। माँ ने खाने पीने की कुछ चीज़ें साथ में ली और वे सब कार में बैठ कर सैर को निकल पड़े।

रास्ता मज़ेदार था। सड़क के दोनो ओर पेड़ थे। हरी घास सुंदर दिखती थी। सड़क पर यातायात बहुत कम था। सफ़ेद रंग के बादल आसमान में उड़ रहे थे। बाबा कार चला रहे थे। मुन्नी ने मीठी पिपरमिंट सबको बांट दी। कार में गाने सुनते हुए रास्ता कब पार हो गया उन्हें पता ही नहीं चला। बाबा ने कार रोकी। माँ ने कहा सामान बाहर निकालो अब हम उतरेंगे।

गांधी पार्क में अंदर जा कर मुन्नी ने देखा चारों तरफ हरियाली थी। वह इधर-उधर घूमने लगी। बहुत से पेड़ थे। कुछ दूर पर एक नहर भी थी। नहर के ऊपर पुल था। उसने पुल के ऊपर चढ़ कर देखा। बड़ा सा बाग था। एक तरफ फूलों की क्यारियाँ थीं। थोड़ा आगे चल कर मुन्नी ने देखा गाँधी जी की एक मूर्ति भी थी।

घूमते-घूमते मुन्नी को प्यास लगने लगी। माँ ने मुन्नी को गिलास में संतरे का जूस दिया। माँ और बाबा पार्क के बीच में बने लंबे रास्ते पर टहलने लगे। मुन्नी फूलों की क्यारियों के पास तितलियाँ पकड़ने लगी। तितलियाँ तेज़ी से उड़ती थीं और आसानी से पकड़ में नहीं आती थीं। तितलियों के पीछे दौड़ते-दौड़ते जब वह थक गयी तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठ गयी।

उसने देखा पार्क में थोड़ी दूर पर झूले लगे थे। मन्नू एक फिसलपट्टी के ऊपर से मुन्नी को पुकार रहा था,
"मुन्नी मुन्नी यहाँ आकर देखो कितना मज़ा आ रहा है।"
मुन्नी आराम करना भूल कर झूलों के पास चली गयी। वे दोनों अलग अलग तरह के झूलों का मज़ा लेते रहे।

"मन्नू - मुन्नी बहुत देर हो गयी? घर नहीं चलना है क्या?"
माँ और बाबा बच्चों से पूछ रहे थे।
दोनों बच्चे भाग कर पास आ गए।
"पार्क कैसा लगा बच्चों?" माँ ने पूछा।
"बहुत बढ़िया" मन्नू और मुन्नी ने कहा। वे खुश दिखाई देते थे।

चलो, अब वापस चलें, फिर किसी दिन दुबारा आ जाएँगे।" बाबा ने कहा।
सफर मज़ेदार था। दिन सफल हो गया। बच्चों ने सोचा।
सब लोग कार में बैठ गए। बाबा ने कार मोड़ी और घर की ओर ले ली। मौसम अभी भी बढ़िया था। मुन्नी फिर से सबको मीठी पिपरमिंट देना नहीं भूली। सैर की सफलता के बाद सब घर लौट रहे थे।


१ अक्तूबर २००३

  
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