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					 111 हरदोई के पर्यटन स्थल
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					अशोक 
					कुमार शुक्ल
 
 गोपामऊ हरदोई 
					ज़िला, उत्तर प्रदेश में स्थित एक ग्राम और नगर पंचायत है। इस 
					नगर को १०वीं शती के अंत में राजा गोप ने बसाया था। ऐतिहासिक 
					स्थल होने के कारण यहाँ अनेक दर्शनीय स्थल हैं। जिनमें 
					बारादरी, गोपीनाथ मंदिर, बस बिल्डिंग और जामा मस्जिद प्रमुख 
					हैं।
 प्राचीन काल में आम नागरिकों के लिये शादी ब्याह और अन्य 
					सामाजिक समारोहों के लिये बड़े-बड़े खुले मैदान ही उपलब्ध थे 
					परन्तु समाज के विशिष्ठ नागरिकों के लिये यह समारोह खुले मैदान 
					के स्थान पर किसी छत से ढँके चबूतरे जैसे स्थान पर आयोजित किये 
					जाते थे ताकि शेष समाज को उनकी विशिष्टता का भान हो। ऐसे 
					स्थानों को बारादरी कहा जाता था। वास्तु की दृष्टि से इसमें जो 
					विषेशताएँ होती हैं उनके अनुसार बारादरी का मतलब होता है पूरी 
					तरह से ढँका हुआ पक्का चबूतरा, जो चारों तरफ से दीवारों, 
					खिड़कियों और दरवाजों से घिरा होता है। इनके आगे एक बड़ी सी 
					जगह होती है, जिसे बरामदा या बरादरी कहते हैं। एक सामान्य 
					बारादरी में १२ दर और इतने ही दरवाजे होते हैं, जो कम से कम 
					तीन दिशाओं में खुलते हैं। लखनऊ में आज भी प्रसिद्ध कैसरबाग 
					बारादरी सहित अनेक ब्रिटिश कालीन बारादरियाँ हैं जिनमें किसी 
					सामाजिक आयोजन को प्रतिष्ठा समझा जाता है।
 
					गोपामऊ में भी एक ऐसी ही 
					एतिहासिक बारादरी स्थित है। इस बारादरी का निर्माण सन् १८०१ 
					में मौलवी रसूल खान जिन्हें अंग्रजों ने तिचरापल्ली का काजी 
					नियुक्त किया था के द्वारा कराया गया था। हरदोई तहसील के ग्राम 
					गदनपुर निवासी अतीकुजुमा सिद्दीकी कैसरबाग बारादरी की 
					कार्यकारी परिषद के सदस्य हैं। वर्तमान में यह बारादरी खण्डहर 
					के रूप में है। 
					 
					गोपीनाथ मंदिर 
					दसवीं शताब्दी के आसपास निर्मित 
					प्रसिद्ध गोपीनाथ मंदिर पुनर्निर्माण नौनिधराय ने १६९९ ई. में 
					करवाया। डा. फरहर ने मौन्यूमेन्टल एन्टीविटीज एण्ड 
					इंस्क्रिप्शंस इन नार्थ वैस्टर्न प्रोविंसेज् एण्ड अवध के 
					अनुसार एक मैदान के बीच में बसे इस कस्बे गोपामऊ को उस समय 
					मावाचचार के नाम से जाना जाता था। यहाँ दसवीं शताब्दी के अनेक 
					अवशेष आज भी अपनी भग्नावस्था में उपस्थित हैं। 
					इस गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में 
					फारसी में लिखा एक पत्थर मिला जिसके बारे में परिसर की 
					व्यवस्था देखने वाले पंडित जी के द्वारा बताया गया कि पुरातत्व 
					विभाग के लोग इसे लेकर मुख्यालय लेकर गये थे जहाँ इसकी उम्र का 
					निर्धारण कार्बन तिथि विधि से करते हुए इसे दसवीं शताब्दी के 
					आसपास का घोषित कर चुके हैं। यों तो 
					दसवीं सदी के अवशेष पूरे कस्बे में बिखरे पडे हैं परन्तु इस 
					अति प्राचीन मंदिर परिसर में दो प्राचीन मूर्तियाँ कोरेहरूदेव 
					तथा बादलदेव मिली हैं जो भद्दे पत्थर की बनी हैं। यह विश्वास 
					किया जाता है कि यह दोनों मूर्तियाँ यहाँ के पुराने निवासी 
					देवी देवताओं की हो सकती हैं। अवध के गजेटियर १९०६ के अनुसार 
					गोपीनाथ मंदिर का प्रसिद्ध काले मंदिर का शिवलिंग व नींव के 
					पत्थरों के 
					टुकड़े जो गणेश का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं, यहाँ के 
					अतिप्राचीन मौलिक गोपीनाथ मंदिर के वास्तविक अवशेष हैं। 
 इस गोपीनाथ मंदिर परिसर में उसी काल का बना एक पुराना कुआँ आज 
					भी मौजूद है जिसमें लखौरी ईटों का उपयोग हुआ है। यह संपूर्ण 
					मंदिर परिसर चारों ओर से लखौरी ईट की दीवार से घिरा हुआ था जो 
					अब जगह जगह पर न केवल क्षतिग्रस्त ही हो चुकी है अपितु 
					अमिक्रमण की चपेट में भी है। इस 
					मंदिर परिसर में एक अति प्राचीन बटवृक्ष आज भी जीवित अवस्था 
					में उपलब्ध है जिसकी सर्पाकार जटायें आपस में गुंथ कर विभिन्न 
					प्रकार के आकारों का भ्रम पैदा करती हैं।
					इस बड़े से परिसर में मंदिर के पूर्व व्यवस्थापकों की 
					समाधियाँ भी इसी परिसर में बनी हैं जिनपर कुछ तिथियाँ और 
					व्यौरा आदि अंकित है परन्तु रखरखाव के अभाव में इन समाधियों की 
					स्थिति भी जीर्ण हो गयी है।
 
 हरदोई नगर की पहचान- बस बिल्डिंग
 
 
  आपको 
					जनपद हरदोई की सदियों से सहेज कर रखी गयी विरासतों से परिचित 
					कराने के लिये अंग्रेजी गजेटियर उपलब्ध है और कुछ तथ्य वेदों 
					की मानिंद जनुश्रुति के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढते रहे 
					हैं। आज जिस सांस्कृतिक धरोहर से आपका परिचय कराना चाहता हूँ 
					उसके बगैर आप नये हरदोई की कल्पना नहीं कर सकते। हरदोई की बस 
					विल्डिंग का नाम किसने नहीं सुना होगा? किसी भी शहर के चुनिंदा 
					नामों के अनुरूप हरदोई की बस बिल्डिंग भी इस शहर की ऐसी पहचान 
					है जो हरदोई का नाम लेने के साथ ही प्रत्येक हरदोईवासी के 
					मष्तिश्क में ऐसे कौंधती है जैसे लखनऊ का नाम लेते ही इमामबाड़ा 
					जहाज कोठी आदि। 
 वास्तुकला का यह अनूठा नमूना इस जनपद के निवासी डा. जमुना 
					प्रसाद जी के जहन में सबसे पहले सन १९५५ के आस-पास कौंधा, जब 
					हरदोई से यातायात के साधन के रूप में प्राइवेट बसों की एक बडी 
					संख्या समीपवर्ती नगरों को जाया करती थी। इस जनपद मुख्यालय से 
					सात दिशा मार्गों क्रमशः लखनऊ मार्ग, बिलग्राम मार्ग, साण्डी 
					मार्ग, बावन मार्ग, शाहाबाद मार्ग, पिहानी मार्ग, तथा सीतापुर 
					मार्ग, की ओर आवागमन के लिये बड़ी मात्रा में निजी बसें चला 
					करती हैं।
 
 आज भी कुछ चुनिंदा मार्गो को छोड़कर इन मार्गों पर निजी बसें 
					बहुतायत में चलती हैं। कदाचित इसी तथ्य से प्रेरित होकर जनपद 
					के मुख्यालय में ऐसा भवन बनाने का विचार १९५५ में डा. जमुना 
					प्रसाद श्रीवास्तव जी के मन में कौंधा होगा जब उन्होंने नगर के 
					मुख्य बाजार में स्थित अपनी क्लीनिक के उपरी तल पर बस जैसी 
					आकृति बनाने का निर्णय लिया।
 
 सीमेंट कंक्रीट की यह बस इस भवन के तीसरे तल पर १८५७ में बनकर 
					पूर्ण हुई और इसके साथ ही इसे हरिओम नाम दिया गया। डा. जमुना 
					प्रसाद के पौत्र राजेश श्रीवास्तव जो मेरे फेसबुक मित्र भी 
					हैं। इसके तुरंत बाद से यह भवन इस जनपद की पहचान बन गयी। इस 
					भवन का निर्माण करने के कुछ समय के उपरांत डा. जमुना प्रसाद जी 
					ने अपनी एक नया क्लीनिक बिलग्राम में खोला। इसी दौरान सन् १९७४ 
					में डा. जमुना प्रसाद की मृत्यु हो गयी उस समय उनकी उम्र ४०-४५ 
					वर्ष के लगभग थी। डा. जमुना प्रसाद के परिवार में उनके तीन 
					पुत्र श्री दुर्गेश श्री दिलीप एवं श्री अनुराग हैं। यह भी कहा 
					जाता है कि डा. जमुना प्रसाद जी के द्वारा बिलग्राम में अपना 
					नया क्लीनिक खोलने के कारण व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते 
					उन्हें जहर देकर मार डाला गया।
 
 कुछ समय के बाद इस बस बिल्डिंग में तीसरे तल पर बनी बस की 
					आकृति के साथ कुछ अतिरिक्त निर्माण भी कराया गया परन्तु यह 
					ध्यान रखा गया कि निर्मित बस का मुख्य हिस्सा बिल्डिंग के 
					दृष्य भाग में बना रहा। आजकल प्रातःकाल इस भवन के सामने स्थित 
					फुटपाथ पर नगर के दूध कारोबरियों का अस्थायी बाजार लगता है और 
					नगर की पहचान के रूप में यह भवन प्रमुखता से जाना जाता है।
 
 गोपामऊ की जामा मस्जिद
 
 गोपामऊ की जामा मस्जिद के बारे में यह तथ्य बहुप्रचारित है कि 
					इसका निर्माण अयोध्या की बहुप्रचारित बाबरी मस्जिद की तर्ज पर 
					करवाया गया है परन्तु आज हमे इस ऐतिहासिक जामा मस्जिद के 
					निर्माण में अब तक अछूते रहे इतिहास को साझा करने का प्रयास 
					करेंगे।
 
 शुरूआत करते हैं सन् १२२५ ई. से जब दिल्ली के सुल्तान 
					इल्तुतमिश ने स्वयं अपने बेटे महमूद को अवध का गर्वनर नियुक्त 
					किया जो अपनी मृत्यु सन् १२२९ तक इस पद पर रहा। महमूद की 
					मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई गयासुद्दीन ने उसका स्थान लिया और 
					मजुमदार एवं पुशलकर द्वारा लिखित द हिस्ट्री एण्ड कल्चर आफ द 
					इन्डियन प्यूपिल खण्ड ५ में वर्णित तथ्यानुसार १२३६ तक यह पद 
					उसके पास ही रहा।
 
 इसी दौरान १२३२-३३ में सुल्तान ने गोपामऊ में ख्वाजा ताजुद्दीन 
					चिश्ती को नियुक्त किया जिसने अहवन राजपूतों को पराजित किया और 
					इस परगने से भगा दिया। गोपामऊ कस्बे की किलाबन्दी की और गोपामऊ 
					में चिश्तीपुरा नामक बस्ती की स्थापना की । इसी ख्वाजा 
					ताजुद्दीन चिश्ती ने गोपामऊ में लालपीर की दरगाह बनवाई थी।
 
 जामा मस्जिद की ऐतिहासिकता को दर्शाता 
					भवन पर लगा एक शिला लेख
 
 कालान्तर में मुगलों के शासन काल में बिलग्राम में हुमायूँ ने 
					एक बडा युद्ध लड़ा और पराजित हुआ। इस युद्ध में स्वयं हुमायूँ 
					मरते मरते बचा। सत्ता का हस्तान्तरण इस्लामशाह सूरी को हो गया 
					जिसकी मृत्यु के उपरांत १५५५ ई॰ में पुनः हुमायूँ ने थोड़ी सी 
					कठिनाई के साथ दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इसी वर्ष हुमायूँ ने 
					सण्डीला में एक मस्जिद बनवायी और गोपामऊ के शेख नियामतउल्ला को 
					दो करमुक्त गाँव और १७०० रुपये का अनुदान दिया और उन्हें इस 
					परगने का चौधरी बनाया। इसी समय एक कायस्थ को गोपामऊ में 
					कानूनगो भी नियुक्त किया गया। (एच आर नेबिल हरदोई गजेजियर 
					पृष्ठ १३३)
 
 हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसका प्रतिभाशाली पुत्र अकबर उसका 
					उत्तराधिकारी बना जिसने १५५९ ई॰ में अली कुली खां ए जमां 
					शैबानी को अवध क्षेत्र के लिये नियुक्त किया तथा इसी दौरान 
					हरदोई के कस्बे पिहानी से जुडे के अब्दुल मुकतदी का बेटा गफूर 
					आलम अध्ययन के लिये दिल्ली गया हुआ था जहाँ वह अकबर के बेटे 
					सलीम जहाँगीर का अध्यापक नियुक्त हुआ जिसे बाद में नवाब सदर ए 
					जहां की उपाधि दी गयी और वह नवाब सदर ए जहां अर्थात सम्राज्य 
					का एक प्रमुख मुफ्ती हो गया।
 
 इसी काल में (९७८ हि. १५७१ ई.) जनपद में अनेक यादगार इमारतें 
					बनवायी गयीं जिनमें गोपामऊ में जामा मस्जिद, ईदगाह और एक कुआँ 
					भी बनवाया गया। इस प्रकार गोपामऊ की जामा मस्जिद का निर्माण 
					मौलिक रूप से सम्राट अकबर के शासकान काल में करवाया गया था। 
					कहा जाता है कि यह मस्जिद भूकम्प के कारण क्षतिग्रस्त हो गयी 
					थी जिसका बाद में अरकोट के सूबेदार नवाब महमूद अली खान, जो 
					गोपामऊ के निवासी थे, द्वारा १७५६ ई॰ में इस पुर्ननिर्माण 
					करवाया गया। वर्तमान में यह अच्छी स्थिति में है। मस्जिद के 
					निर्माण में लखौरी ईटों और चूने का प्रयोग हुआ है। इस ऐतिहासिक 
					जामा मस्जिद के कुछ चित्र यहाँ दिये जा रहे हैं।
 
 अंत मे पुनः वही बात दोहराना चाहूँगा कि इतिहास की इतनी 
					समृद्धशाली परंपरा का वहन करने वाला यह समूचा कस्बा इतने 
					पुरातात्विक महत्व का है कि इसे स्वयं विभाग को अंगीकार कर 
					लेना चाहिऐ।
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