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शिगनापुर के
शनिदेव
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जियालाल आर्य
श्री शनि महाराज का मंदिर अहमदनगर-औरंगाबाद
राजमार्ग पर अवस्थित घोड़ेगाँव से करीब छह किलोमीटर हटकर
शिगनापुर गाँव में है। यह स्थल हर वर्ग के लोगों के लिए एक
तीर्थ स्थल हो गया है, जहाँ पर देश-विदेश के कोने-कोने से
श्रद्धालु दर्शनार्थी आते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
घोड़ेगाँव पहुँचने के पूर्व ही कार चालक ने राजमार्ग के किनारे
बसे घरों की ओर इशारा करके बताया, "सर! देख लीजिए। इन मकानों
में दरवाजे नहीं हैं।"
मैंने ध्यान से उन मकानों का निरीक्षण
किया। मिट्टी की दीवारें और फूस के छप्परवाले मकान थे। मैंने
सोचा कि ये तो मजदूरों और गरीबों के मकान हैं। जिनको पेट भरने
के लाले हों वे घरों में दरवाजा लगाने के लिए रुपये कहाँ से
लाएँगे, परंतु थोड़ा आगे चलने पर मेरी आशंका निर्मूल साबित हो
गयी। सड़क के किनारे बहुत से पक्के मकान थे। उनके दरवाजों में
भी किवाड़ नहीं थे। गाड़ी बायीं ओर घूम गयी, थोड़ी दूर चलने पर
देखा कि कुछ लोग नंगे बदन भीगे हुए लाल वस्त्रों में और
अधिकांश लोग काले वस्त्र धारण किये मंदिर की ओर जा रहे हैं।
मेरी प्रथम प्रतिक्रिया हुई कि ये मंदिर के पंडा या पुजारी
होंगे, परंतु जैसे-जैसे मंदिर परिसर के निकट होते गये, ऐसे
लोगों की संख्या बढ़ती दिखायी दी। गाड़ी मंदिर परिसर में प्रवेश
की और एक नवनिर्मित भवन के समक्ष रुकी।
स्थानीय तहसीलदार और मंदिर ट्रस्ट के
ट्रस्टी ने हमारा स्वागत किया। भवन के अंदर ले गया। अच्छा-सा
ड्राइंग रूम था। तहसीलदार ने बताया कि यहाँ पर औरतों को शनि
महाराज की पूजा करने की मनाही है। वे चाहें तो चबूतरे के नीचे
से पूजा-अर्चना कर सकती हैं। चबूतरे पर चढ़ना मना है। भगवान के
घर में भी भेदभाव, मैंने मन ही मन सोचा। आदमियों को भी वस्त्र
उतारना पड़ता है और काला वस्त्र पहनकर जाना होता है। पराशर ऋषि
के अनुसार शनि का प्रिय वस्त्र मोटा रेशम या चितकबरा कपड़ा होता
है, "वस्त्र चित्रं शनेर्विप्रा पट्ट वस्त्रं तथैव च।" परंतु
यह भी मान्यता है कि शनि की शांति के लिए काला वस्त्र और काला
धागा धारण किया जाता है। काली गाय को काला तिल खिलाया जाता है।
एक क्षत्र प्रतिमा
श्री शनि की अर्चना की बात चल रही थी। हम लोग ध्यान से सुन रहे
थे। इसी बीच एक आदमी ने आकर सलाम किया। अधिकारियों ने बताया कि
यह यहाँ का सिपाही है और बड़े अधिकारियों को पूजा के लिए, यही
अगुवानी करता है। हमें एक अलग कक्ष में ले गया और विनम्रता का
प्रर्दशन करते हुए अनुरोध किया कि शनिदेव के दर्शन के लिए यह
काले रंग की रेशमी लुंगी धारण करनी है। लुंगी बाँधने की विशेष
कला है जिससे पूरा शरीर ढक जाता है। हमने पैंट, कमीज और बनियान
उतारे, घड़ी खोलकर कमीज की जेब में रख दिया। उसने इशारे से कहा
कि कपड़े यहीं खूँटी पर टाँग दीजिए। यहाँ से कोई चीज गायब नहीं
होती है। हाथ-पैर प्रच्छालित करके मंदिर की ओर प्रस्थान किया।
मन स्वतः ही एकाग्र हो गया। मंदिर की विशेषता और शनिदेव के
दर्शन की आत्मिक उत्कंठा जागृत हो गयी। प्राण प्रतिष्ठित काले
रंग का एक विशाल पत्थर खुले आकाश के नीचे एक चबूतरे पर अवस्थित
है "यही शनि महाराज है" साथ के सिपाही ने सूचित किया। उसने आगे
कहा "यही एक देव स्थल है जहाँ शनिदेव की एकक्षत्र प्रतिमा है।
अन्य पूजा स्थलों रामेश्वरम आदि में मूल देवता कोई अन्य हैं।"
शनि अन्य ग्रहों के साथ रहते हैं। इसीलिए वहाँ पर शनि का
प्रभाव कम होता है।
कुछ साल पूर्व तक इस परिसर में मानव निर्मित कोई मंदिर नहीं
था। मूर्ति के निकट ट्रस्ट की ओर से एक भव्य मंदिर का निर्माण
कराया गया है। इसमें शनि की प्रतिष्ठित प्रतिमा नहीं है।
दर्शनीय मंदिर में मुख्य मूर्तियाँ हैं- महंत उदासी, भगवान
श्रीकृष्ण, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम और
गुरुदेव दत्त। इन मूर्तियों का दर्शन शनि महाराज की अर्चना के
बाद किया जाता है। श्री शनैश्वर का अभिषेक तिल के तेल से होता
है। श्रद्धालु बिना किसी पुजारी की मदद से पूजा करते हैं।
हजारों की संख्या में लोग दर्शन करते और तेल ही तेल बहता रहता
है। यदि सँभलकर न चले तब बिछलाकर गिर जाने का भय रहता है। शायद
इसीलिए औरतों को चबूतरे पर चढ़कर पूजा करने की मनाही है। चबूतरे
पर जाने के पूर्व स्थानीय पंडा ने मंत्रोच्चार के साथ पुष्पादि
से सनातनी पूजा करायी, जो यहाँ के लिए शायद आवश्यक नहीं है।
परंतु पुजारी ने पारिश्रमिक स्वरूप दान-दक्षिणा की याचना नहीं
की, जैसा कि अन्य देवस्थानों में होता है।
शनि महाराज के चबूतरे पर जाने के पूर्व अगरबत्ती जलायी, अर्चना
की। तदंतर नीचे ही नारियल चढ़ाया। यहाँ पर कहावत है कि भाग्यवान
श्रद्धालु का नारियल होरिजेंटल टूटता है मेरा नारियल एक बार
में ही होरिजेंटल टूट गया परंतु साथ के अधिकारी का नारियल
दो-तीन बार पटकने पर टूटा परंतु होरिजेंटल नहीं टूटा। वे कुछ
मायूस से हो गये। मैंने उन्हें हिम्मत बँधायी। प्रसाद स्वरूप
मैंने अपने नारियल का कुछ भाग उन्हें दिया। प्रसाद पाकर उन्हें
कुछ सांत्वना मिली, ऐसा उनके चेहरे से परिलक्षित हुआ।
एक कथा
यह क्षेत्र ‘श्री क्षेत्र शिगनापुर’ की संज्ञा से प्रख्यात है।
इस क्षेत्र के अंतर्गत किसी प्रकार की कलह, किसी प्रकार का
भेदभाव, किसी प्रकार की चोरी, डकैती अथवा अन्य अपराध या
सर्पदंश की घटना नहीं होती है। इस संबंध में कतिपय कथाएँ
प्रचलित हैं। कहा जाता है कि कुछ वर्षों पूर्व कुछ चोरों ने
यहाँ के एक ग्रामीण श्री पाटिल के बैलों की चोरी की। बैलों को
लेकर चोर रात्रिभर चलते रहे। भोर होने के पूर्व आराम करने के
लिए एक स्थान पर रुके। सुबह आँख खुली तो देखा कि वे गाँव की
सरहद पर ही हैं। उन्होंने अपराध स्वीकार कर लिया और शनिदेव से
क्षमा माँगी। इसी प्रकार की एक अन्य घटना प्रचलित है। कालू भील
डकैत ने श्री बापुराव लक्ष्मण बनकर को पकड़ लिया और अपने गिरोह
के लिए खाना और रुपया देने को कहा। उस डकैत के नाम से ही लोग
भयभीत हो जाते थे। परंतु ट्रस्टी बनकर ने कुछ भी देने से
साफ-साफ इनकार कर दिया और कहा कि गाँव के सभी घर खुले हुए हैं,
तुम लूट सकते हो तो लूट लो, परंतु मैं दूँगा कुछ भी नहीं। यदि
खाना चाहते हो तो शनिदेव के मंदिर परिसर में चलो, प्रसाद
स्वरूप भोजन दिया जाएगा। बनकर के ऐसा कहने पर डकैत कालू भील
बिना किसी प्रकार का नुकसान किये वहाँ से भाग निकला। ऐसी ही
अनेक दंतकथाएँ यहाँ पर चलती आ रही हैं।
शनिदेव के परिसर में लोग अपनी मनौती के अनुसार पूजा-पाठ,
खान-पान और प्रसाद आदि प्राप्त करते हैं परंतु शनि प्रतिमा पर
उसे नहीं चढ़ा सकते हैं। यहाँ के लोग सादा और स्वच्छ जीवन जीते
हैं। सभी लोग एक संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में रहते हैं।
यहाँ की विशेषता है कि लोगों में धन-दौलत, जाति वर्ण,
धर्म-संप्रदाय आदि के नाम पर कोई अंतर नहीं है। यह एक ऐसा
देवस्थान है जहाँ पर कभी भी, किसी दिन शनिदेव का दर्शन किया जा
सकता है परंतु लोग शनिवार की अमावस्या को अधिक महत्व देते हैं
और उस दिन दर्शनार्थियों की संख्या औसत से बहुत अधिक हो जाती
है। यह जानकारी स्थानीय तहसीलदार ने दी।
शनिदर्शन करने के बाद प्रशासनिक भवन के बड़े कक्ष में आये।
मैंने इस मंदिर और शनिदेव के बारे में और अधिक जानने की
जिज्ञासा की। स्थानीय राजस्व पदाधिकारी ने बताया कि यहाँ पर
मान्य किंवदंती है कि करीब १५० साल से भी पूर्व इस क्षेत्र में
एक भयंकर बाढ़ आयी थी। ग्राम शिगनापुर के पूरब में अवस्थित पानस
नाले का पानी बाँध तोड़कर चारों ओर बह चला। चारों ओर बाढ़ का
पानी ही पानी। कुछ दिन बाद पानी कम हो गया। गाँव के कुछ चरवाहे
अपने जानवरों को चराने के लिए नाले के पास गये। एक स्थान पर एक
विशालकाल पत्थर-मूर्ति सेवार-घास में फँसी हुई थी। चरवाहे उसे
निकालने का प्रयास करने लगे। मूर्ति यथावत रही। एक चरवाहे ने
डंडे की नोक से मूर्ति में दबाव दिया। मूर्ति से रक्त स्त्राव
होने लगा। चरवाहे घबड़ाकर भागे और गाँववासियों को पूरा वृत्तांत
सुनाया। गाँव के लोग मूर्ति के पास एकत्र हुए। मूर्ति निकालने
का असफल प्रयास किया गया, अंततः सूर्य ने अपना प्रकाश समेट
लिया। अंधकार की छाया में गाँववासी गाँव वापस आ गये। रात्रि
में एक ग्रामीण को स्वप्न में मूर्ति ने कहा कि मुझे नाले से
निकालने के लिए अधिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं। मामा-भांजा का
संबंध रखने वाले दो व्यक्ति मुझे सेवार घास पर उठाकर एक
बैलगाड़ी में रख दे। बैलगाड़ी के दोनों बैलों में भी मामा-भांजा
का रिश्ता होना चाहिए। दूसरे दिन गाँव वालों को स्वप्न की बात
मालूम हुई। ग्रामीणों ने मूर्ति के निर्देशानुसार कार्रवाई की
और मूर्ति वर्तमान स्थल पर लाकर रख दी गयी इसीलिए वे ‘स्वयंभू
देव’ हैं।
राजस्व
अधिकारी ने आगे बताया कि सोनाई गाँव के श्री जवाहर मल लोधा को
भगवान ने सभी सुख दिये थे परंतु शादी के कई साल बीत जाने पर भी
घर के आँगन में बच्चे की किलकारी नहीं सुनायी पड़ी। उन्होंने एक
व्रत लिया कि यदि उन्हें शनि महाराज पुत्र रत्न का आशीर्वाद दे
तो मूर्ति के चारों ओर चबूतरे का निर्माण करा देंगे। संयोग से
उसे पुत्र प्राप्त हुआ। लोधा ने मूर्ति के चारों ओर एक चबूतरा
बनवाया और गाँववालों की मदद से मूर्ति को नीचे से खोदकर चबूतरे
पर रखने का प्रयास किया परंतु मूर्ति टस से मस नहीं हुई। लोधा
को रात्रि में स्वप्न निर्देश हुआ कि मूर्ति जिस हालत में है
वैसे रहने दिया जाए। आज भी यह सजीव मूर्ति उसी स्थल पर है।
मूर्ति की ऊँचाई साढ़े पाँच फुट और चौड़ाई करीब डेढ़ फुट है। यह
मूर्ति धुर काली है। गत डेढ़ सौ वर्षों के दौरान इस मूर्ति पर
आँधी-पानी, जल-वायु, सर्दी-गर्मी आदि का कोई प्रभाव नहीं
दिखायी दिया। कहावत यह भी है कि लोगों ने इस मूर्ति के ऊपर
चँदोआ देने का प्रयास किया परंतु सफल नहीं हो सके। शायद इसीलिए
शनिदेव के नाम से बगल में एक मंदिर का निर्माण कराया गया।
परंतु उसमें शनिदेव की प्रतिमा स्थापित नहीं की जा सकी।
शिगनापुर ग्राम पर शनि महाराज की असीम कृपा है। यह कोई भी वहाँ
जाकर साक्षी हो सकता है।
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