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गौतम बुद्ध की
नगरी सारनाथ
- मुक्ता
महात्मा बुद्ध की कर्मभूमि सारनाथ उत्तर प्रदेश का एक
महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थस्थल है। बौद्ध धर्म ग्रंथों में सारनाथ
का उल्लेख ॠषिपत्तन, धर्मपत्तन, मृगदाय व मृगदाव के रूप में
होता रहा है पर सारनाथ का यह आधुनिक नाम यहाँ स्थित महादेव के
मंदिर सारंगनाथ से निकल कर आया है। बिहार के बोधगया में ज्ञान
प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने सारनाथ के मृगदाव में ही
प्रथम उपदेश दिया था, जिसे धर्मचक्र परिवर्तन के नाम से जाना
जाता है। अपनी मृत्यु के समय महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों
को लुम्बिनी, बोधगया और कुशीनगर के साथ सारनाथ को अत्यंत
पवित्र स्थान बताया था।
सम्राट अशोक २३४ ई. पूर्व सारनाथ आए थे और यहाँ एक स्तूप
बनवाया था। बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद अशोक ने प्रेम और
सदभाव पर आधारित बौद्ध धर्म का प्रचार देश और विदेशों में
करवाया। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य
सारनाथ में अनेक बौद्ध मठ और स्तूप बनवाए गए, जो आज भी
क्षतिग्रस्त अवस्था में देखे जा सकते हैं। अप्रैल-मई के दौरान
बुद्ध पूर्णिमा पर्व यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
सारनाथ में देखने के लिए विभिन्न देशों के बौद्ध अनुयायिओं की
मदद से बनाए गए कई छोटे बड़े मंदिरों के आलावा, जैन मंदिर, हिरण
उद्यान, बौद्ध विहार के अवशेष अशोक स्तंभ, धमेख स्तूप,
धर्माजिका स्तूप, धर्मचक्र स्तूप और मूलगंध कुटी मंदिर व एक
बेहद प्रसिद्ध राजकीय संग्रहालय भी है।
चौखंडी स्तूप-
सारनाथ में प्रवेश करने पर सबसे पहले चौखंडी स्तूप दिखाई देता
है। इस स्तूप में ईंट और रोड़ी का बड़ी मात्रा में उपयोग किया
गया है। ऐसा माना जाता है कि चौखंडी स्तूप को मूलत: सीढ़ीदार
मंदिर के रूप में सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था। यह विशाल
स्तूप चारों ओर से अष्टभुजीय मीनारों से घिरा हुआ है। कहा जाता
है बाद में इस स्तूप को वर्तमान आकार में संशोधित किया गया।
चौखंडी स्तूप बौद्ध समुदाय के लिए काफी पूजनीय है। यहाँ गौतम
बुद्ध से जुड़ी कई निशानियाँ हैं। बोध गया से सारनाथ जाने के
क्रम में गौतम बुद्ध इसी जगह पर अपने पहले शिष्य से मिले थे।
यही कारण था कि इस स्थान पर श्रद्धांजलि देने के लिए मंदिर का
निर्माण किया गया।
धमेख स्तूप-
यह सारनाथ की सबसे आकर्षक संरचना है। बेलनाकार इस स्तूप का
आधार व्यास २८ मीटर है जबकि इसकी ऊँचाई ३३.३ मीटर है। अगर इसे
पृथ्वी के भीतर स्थित आधार से नापें तो इसकी ऊँचाई ४२.६ मीटर
हो जाती है। इसके बाहर की दीवार पत्थर से बनी प्रतीत होती है
लेकिन ऊपर का हिस्सा ईंटों का बना दिखता है। इसके आकार को
देखकर अनुमान होता है कि इसे बनवाने में ईट और रोड़ी और
पत्थरों का बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया गया है। स्तूप के
निचले तल में शानदार फूलों की नक्काशी की गई है। कुछ दूर पर
चौकोर चौखाने नुमा आकार दिखाई देते हैं। जिससे यह अनुमान होता
है कि यहाँ प्रतिमाएँ लगी होंगी, जिन्हें तुर्की और मुस्लिम
आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया। इस स्तूप का धमेश नाम आधुनिक
काल में पड़ा। प्राचीन काल में इसे धर्मचक्र स्तूप कहते थे।
इसका कारण यह था था कि इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने उपदेश दिये
थे।
यहीं पास में ही स्थित जैन मंदिर भी देखने योग्य है। इस आधुनिक
मंदिर का निर्माण सन् १८२४ में जैन धर्म के ११ वें तीर्थंकर
श्रेयंशनाथ की तपस्थली होने की स्मृति में किया गया था।
अशोक स्तंभ
अशोक स्तंभ उत्तर भारत में मिलने वाले शृंखलाबद्ध स्तंभ हैं।
इन स्तंभों को सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल (तीसरी शताब्दी)
में बनवाया था। हर स्तंभ की ऊँचाई ४० से ५० फुट है और वजन कम
से कम ५० टन है। इन स्तंभों को वाराणसी के पास स्थित एक कस्बे
चुनार में बनाया गया था और फिर इसे खींचकर उस जगह लाया गया,
जहाँ उसे खड़ा किया गया था। वैसे तो कई अशोक स्तंभों का
निर्माण किया गया था, पर आज शिलालेख के साथ सिर्फ १९ ही शेष
बचे हैं। इनमें से सारनाथ का अशोक स्तंभ सबसे प्रसिद्ध है। इन
स्तंभों में चार शेर एक के पीछे एक बैठे हुए हैं। आज इसे
राष्ट्र चिह्न के रूप में अपना लिया गया है। यह चार शेर शक्ति,
शौर्य, गर्व और आत्वविश्वास के सूचक हैं। स्तंभ के ही निचले
भाग में बना अशोक चक्र आज राष्ट्रीय ध्वज की शान बढ़ा रहा है।
मूलागंध कुटी विहार-
यह
आधुनिक विशाल तथा सुन्दर मंदिर महाबोधि समाज द्वारा बनवाया गया
है। इस समाज की स्थापना श्रीलंका के बौद्ध प्रचारक अंगारिका
धर्मपाल ने की थी। विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के दान से
१९३१ में इस मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर में बने शानदार
भित्तिचित्रों को जापान के सबसे लोकप्रिय चित्रकार कोसेत्सू
नोसू ने बनाया था। १९३६ में इनका लोकार्पण हुआ। इन चित्रों में
बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं का निरूपण किया गया है। यहाँ
समृद्ध बौद्ध साहित्य को भी सहेजकर रखा गया है। भारत के
नार्गाजुन कोंडा और तक्षशिला में उत्खनन से मिले कई पवित्र
बौद्ध ग्रंथों को अंग्रेजों ने महाबोधि समाज को भेंटस्वरूप
दिया जो आज इस मंदिर की शोभा बढ़ा रहे हैं। हर साल कार्तिक
पूर्णिमा के दिन इन धर्मग्रंथों के साथ यहाँ एक शोभायात्रा
निकाली जाती है।
मंदिर से थोड़ी दूर पर इसी नाम के पुराने मंदिर के भग्नावशेष
मिले हैं। चीनी यात्री ह्वेनसाँग की माने तो यहाँ अवस्थित उस
प्राचीन मंदिर की ऊँचाई लगभग ६१ मीटर थी। १८ मीटर से कुछ अधिक
वर्गाकार भुजा वाले इस मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था
जिसके सामने एक आयताकार मंडप एवम् विशाल प्रांगण था।
इतिहासकारों का मानना है कि स्थापत्य और ईंटों की सज्जा शैली
के हिसाब से ये मंदिर गुप्त काल में बनाया गया होगा। मूलागंध
कुटी विहार में ही महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम बरसाती मौसम
बिताया था। मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ा घंटा लगा हुआ है जो
यहाँ पर सबके लिए आकर्षण का केंद्र होता है। ऐसा कहा जाता है
कि इस घंटे की आवाज ७ किलोमीटर की दूरी तक सुनाई देती है।
पवित्र बोधिवृक्ष
सारनाथ में ही वह पवित्र बोधिवृक्ष स्थित है जहाँ पर भगवान
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश अपने पाँच
शिष्यों को दिया था। ऐसा कहा जाता है की सम्राट अशोक की पुत्री
संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधिवृक्ष की एक शाखा
श्रीलंका के अनुराधापूरा में लगाईं थी, उसी पेड़ की एक शाखा को
यहाँ सारनाथ में लगाया गया है। गौतम बुद्ध तथा उनके शिष्यों की
प्रतिमाएँ म्याँमार के बौद्ध श्रद्धालुओं की सहायता से यहाँ
लगाई गई हैं। इसी परिसर में १९८९ में गौतम बुद्ध व उनके
शिष्यों की प्रतिमा म्याँमार के बौद्ध श्रृद्धालुओं के सहयोग
से स्थापित की गई। १९९९ में इस परिसर में बुद्ध के २८ रूपों की
प्रतिमा और लगाई गई।
जापानी मंदिर "नीची रेन शय्यू"
इस मंदिर का निर्माण सन् १९८६ में जापानी सरकार के सहयोग से
'होजो म्योजो सासकी' नामक जापानी नागरिक ने करवाया था। यह
मंदिर पूर्णतः जापानी शैली में लकड़ी से बनाया गया है और यह
बौद्ध मंदिर जापान के क्योटो शहर में स्थित बौद्ध मंदिर की
प्रतिकृति है। मंदिर के अन्दर भगवान बुद्ध की लेटी अवस्था में
निर्मित सुन्दर प्रतिमा को साखू की लकड़ी से जापानी
शिल्पकारों द्वारा बनाया गया है। मंदिर को बनाने में जिन
पत्थरों और लकड़ी का उपयोग हुआ है वे भी जापानी ही हैं। इस
मंदिर में एक बड़ा आसन है जिस पर केवल जापानी गुरु ही बैठते
हैं। मंदिर के बाहर जापानी शैली में स्थापित रक्षक सील
स्तंभ है। मंदिर में पूजा के समय घंटा बजाने के लिए जापानी
शैली का घंटा भी मौजूद है। इस मंदिर की पुजारी म्योजित्स
नागकूबो एक जापानी महिला हैं।
चीनी मंदिर
जापानी मंदिर के पास ही स्थित है चीनी मंदिर। यह मंदिर चीन की
सरकार के द्वारा बनवाया गया है, इस मंदिर में चारों दीवारों पर
बाहर की ओर भगवान बुद्ध की चार बड़ी बड़ी प्रतिमाएँ लगाई गई हैं।
अंदर से इसकी सज्जा सादगीपूर्ण है। मंदिर में गौतम बुद्ध की
तीन अलग-अलग मूर्तियाँ हैं, जो चीनी और थाई शैली में बनी हैं।
मंदिर को वर्ष १९३९ में चीनी कारीगरों ने बनाया था। मंदिर कई
एकड़ में फैला हुआ है। यहाँ बनी मूर्तियों को बनाने के लिए
प्रयोग किए गए पत्थर चीन और म्याँमार से मँगाए गए थे। चीन के
कारीगरों ने ब्रुसनी कला शैली में नक्काशी कर इन्हें बनाया है।
मंदिर का मुख्य द्वार और चारदीवारी को वर्ष १९५२ में चीनी
भक्तों द्वारा बनवाया गया था। चीन के पाँच प्रमुख धर्म गुरुओं
मोजी, मेन्सी, लोलाओजी, कन्फ्यूसियस, ज्वांगजी की के चित्र
भी मंदिर के अंदर रखे गए हैं।
काग्यु तिब्बती मठ-
इसे वज्र विद्या संस्थान के नाम से भी जाना जाता है और इसकी
स्थापना थरांगू रिनपोचे ने की थी। यह संस्थान डीयर पार्क के
पास है, जहाँ गौतम बुद्ध ने पहला उपदेश दिया था। काग्यु
तिब्बती मठ सारनाथ में सबसे बड़ा मठ है और इसे बोध गया के पास
स्थित नालंदा मनैस्टिक इंस्टीट्यूट की शैली में बनाया गया है।
इस समय संस्था में १५ महंत और ४ योगिन हैं, जो यहाँ रहकर
अध्ययन करते हैं।
थाई मंदिर
प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थल होने के नाते पूरे विश्व से यहाँ
बौद्ध श्रद्धालु आते हैं। विशेष रूप से जापान, कोरिया,
वियतनाम, श्रीलंका, म्याँमार, थाईलैंड और चीन जैसे बौद्ध धर्म
प्रधान देशों से। इन देशों के अधिकांश लोगों ने सारनाथ में
मंदिर बनवाए हैं। थाई मंदिर का निर्माण एक थाई समुदाय ने
करवाया था। मंदिर की विशेषता इसकी थाई वास्तुशिल्प शैली है। यह
मंदिर अपने आप में काफी रंगीन है और थाई बौद्ध महंतों के
द्वारा संचालित किया जाता है। इसे एक आकर्षक उद्यान में बनाया
गया है, जो एक शांत और एकांत स्थान है।
शिवली वियतनामी मंदिर
शिवली वियतनामी मंदिर में बुद्ध की ७० फुट ऊँची भव्य प्रतिमा
विशेष आकर्षण है। इसकी स्थापना दिसंबर २०१४ में हुई थी। चुनार
के प्रसिद्ध मूर्तिकार देव नारायण पुजारी द्वारा निर्मित इस
प्रतिमा को बनाने में ४८ महीने लगे थे। चुनार के पत्थरों से
बनाई गई इस प्रतिमा के नीचे विशाल धम्मा हाल है। धम्म हाल की
बाहरी दीवारों पर हिन्दी, अंग्रेजी, पाली और वियतनामी भाषा में
धम्म चक्र परिवर्तन सूत्र लिखा गया है। इसके अलावा पाँच बौद्ध
भिक्षुओं की मूर्तियाँ उकेरी गई हैं। धम्म हाल के बाहर भारतीय
शैली में तोरण द्वार और प्रवेश व निकास द्वारों के चारों कोनों
पर सिंह शीर्ष बनाए गए हैं। प्रांगण में एक पगोडा रखा गया जो
वियतनाम से आया है। अष्टधातु से बने इस पगोडा का वजन छह
क्विंटल है। ४५ बिस्वा में फैले परिसर में ध्यान कक्ष, विश्राम
स्थल व कई कमरे हैं।
सारनाथ संग्रहालय-
सारनाथ
में बौद्ध मूर्तियों का विस्तृत संग्रह है। बौद्ध कला की
प्रतीक इन मूर्तियों को यहाँ के संग्रहालय में संरक्षित किया
गया है। प्राचीन काल की अनेक बौद्ध और बोधित्व की प्रतिमाएँ इस
संग्रहालय में देखी जा सकती है। भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक
स्तम्भ का मुकुट भी इस संग्रहालय में संरक्षित है। चार शेरों
वाले अशोक स्तम्भ का यह मुकुट लगभग २५० ईसा पूर्व अशोक स्तम्भ
के ऊपर स्थापित किया गया था। तुर्कों के हमले में अशोक स्तम्भ
क्षतिग्रस्त हो गया और इसका मुकुट बाद में संग्रहालय में रख
दिया गया।
समय: शुक्रवार के अतिरिक्त यह संग्रहालय प्रतिदिन सुबह १० बजे
से शाम ५ बजे तक खुला रहता है।
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