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रणथम्भौर की
बाघिन
- सरिता भावे
नवंबर की एक सुहावनी दोपहर में हमारा २०
लोगों का ग्रुप जब रणथम्बोर बाघ परियोजना के प्रवेशद्वार से
अन्दर गया, मैंने खुद को हल्की सी चिकोटी काटी। दर्द महसूस
होने पर विश्वास आया कि मैं ख़्वाब नहीं देख रही हूँ बल्कि सच
में रणथम्बोर के जंगल में जा रही हूँ।
सूर्यप्रकाश, मिटटी और पानी, हरे पेड़ पौधे, शाकाहारी प्राणी,
मांसाहारी प्राणी, इस जीव शृंखला की अगर अंतिम कड़ी में ‘बाघ’
है तो वो परिसंस्था पूर्ण होने की निशानी है यह मैंने
जीव-विज्ञान में पढ़ा था। तभी से बाघ के बारे में एक कौतूहल-सा
बना हुआ था। बाघ देखने के लिये मै इससे पहले कान्हा, मानस, जिम
कॉर्बेट बाघ परियोजनाओं में भी जा चुकी थी। भले ही वहाँ के
प्राणी, पक्षी, वृक्ष, फूलों ने मुझे लुभाया हो, बाघ के दर्शन
के बिना वह सब मुझे अधूरा-सा ही लगा था। और तो और श्री.
वाल्मीकि थापरजी के रणथम्बोर के बाघों पर आधारित वृत्तचित्र
देखनेपर तो मैं मोहित सी हो गयी थी। मुझे प्रकृति के साथ साथ
खँडहर, पुराने मंदिर भी बहुत लुभाते हैं। इस वजह से रणथम्बोर
के जंगल परिसर में बीच बीच में फैले हुए पुराने अवशेष और किला
तो मेरे लिये मानों ‘सोने पे सुहागा’ ही थे।
अब तक इस क्षेत्र १ में, बच्चों को सीने से लगाए हुई बन्दर
मादाएँ, हल्की सी आहट से पलायन करने वाले मोर, चहचहाती
चिड़ियाँ, सुनहरी बूँदोंवाले हिरन हमें दिखाई दिए थे। धीरे धीरे
साँझ ढलने लगी और पूरा जंगल सुनहरी किरणों में नहा उठा। एक
उथले तालाब में विभिन्न आयु और आकार के साँभर हिरन पानी पी रहे
थे, खेल रहे थे। थोड़ी देर में वहाँ एक सुन्दर सींगोंवाला नर
हिरन भी आ पहुँचा। हम सबने जल्दी से उन सबके फोटो खींचे। इस
वक़्त, "इस जगह बाघ दिखने की ‘गारन्टी’ है" यह कहकर हमारे गाइड
ने हमारा हौसला बढाया और हम सब शान्तिसे, नजरों में प्यास लेकर
‘उसकी’ बाट जोह रहे थे। संभवतः आसपास बाघ रहने पर पेड़ों के
बन्दर, पंछी आदि बाकी जानवरों को विशिष्ट आवाजों से आगाह करते
हैं। इस प्रकार के आवाजों की हम जी जान से प्रतीक्षा कर रहे
थे। लेकिन कुछ भी नहीं हो रहा था। जैसे जैसे वक़्त गुजरने लगा,
वैसे वैसे मुझे लगने लगा कि बाघ नहीं तो न सही, कम से कम मुझे
बाकी जंगल तो देख लेना चाहिये। संध्या समय में जंगल में रुकने
की पाबन्दी होती है, निश्चित समय से पहले आपको वहाँ से निकलना
ही होता है। यहीं रुके रहते तो हमारी झोली खाली रह जाती।
अंत
में हम और बाकी ग्रुप्स भी वहाँ से निकल पड़े। दूर कहीं किला
नजर आ रहा था। कहीं पर बरगद के अनेक वृक्ष और उनकी ऋषिनुमा
जटाएँ मिलकर उलझे हुए बालों की तरह लग रहे थे। थोड़ी देर जंगल
की सैर करने के बाद हम वापस उस साँभर हिरन वाले तालाब के पास
आये। पत्तों की सरसराहट, पंछियों का चहकना और साँबर हिरनों की
पानी में खेलने की आवाज़ें, इसके अलावा हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ
था। वैसे भी कहाँ हम शहर में महसूस कर पाते हैं ऐसी प्राकृतिक
शान्ति, ऐसा मन ही मन सोच कर हम बाघ की प्रतीक्षा में लगे थे।
अंत में जंगल से बाहर जानेका वक़्त आ ही गया और मायूस होकर हम
वापसी के रास्ते पर निकल पड़े। संकरी, धूलभरी राह से ड्राईवर
तेजी से जा रहा था और हम कंटीली डालियों से बचते, खुद को
सम्हालते हुए, शान्ति से बैठे थे।
अचानक सारे वाहन थम गए। देखा तो सामने से एक बाघिन मुँह में
शिकार लेकर चली आ रही थी! मेरी तो सोचने-समझने की क्षमता ही
मानों नष्ट हो गयी। अभी तक सिर्फ फोटो का बेजान, सर्कस का
प्रशिक्षित या चिड़ियाघर में सोया हुआ बाघ मैंने देखा था। ‘मैं
जंगल में सचमुच जिन्दा बाघ देख रही हूँ’, मेरे लिये तो यह
कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। हरदम फोटो खींचने के
लिये जल्दी मचाने वाली मैं, यही भूल गयी कि मेरे पास कैमरा है।
हम सब मानों उसको अपनी नजरों के कैमेरे से ही पिए जा रहे थे।
इतने बरसों तक मन में सँजो कर रखी हुई कामना की पूर्ति होना
भले ही खुशी की बात हो, बाघिन को देखकर कुछ पलों के लिये मैं
सचमुच घबरा गयी थी। अपना शिकार छोड़ कर अगर उसने हमारी ओपन जीप
पर हमला बोल दिया होता तो, मैं यह गर्व से कहने के लिये भी
जिन्दा न रहती कि मैंने सचमुच बाघ देखा है! मेरी ख़ुशनसीबी से
आसपास इतना कोलाहल होते हुए भी बाघिन रत्ती भर भी विचलित नहीं
हुई। सच कहूँ तो उसने हमारी ओर नजरें उठाकर देखा ही नहीं। एक
रानी के अंदाज से वह चली जा रही थी और हम सब उसके पीछे जा रहे
थे।
वास्तव में मुँह में शिकार लेकर जानेवाली
यह ‘नूर’ नामक बाघिन एक तरह से क्रूरता की मूरत ही थी। लेकिन
जब गाइड ने जानकारी दी कि वह अपने शावकों के लिये शिकार
सम्हालकर ले जा रही है, तब मेरा उसकी तरफ देखने का नजरिया ही
बदल गया। मुझे उस बाघिन में जंगल की रानी नहीं बल्कि एक
ममतामयी माँ नज़र आने लगी। हम उसे बस देखे जा रहे थे और उस
अनुभूति से बाहर ही निकलना नहीं चाह रहे थे। शिकार लेकर
जानेवाली बाघिन दिखाई देना अपने आप में एक विशेष अनुभव है, जो
आज हमें मिला था! वापसी के रास्ते पर जब मैंने गाइड को अपनी
घबराहट के बारे में बताया तो उसने जानकारी दी कि ‘बाघिन अपने
मुँह का शिकार कभी भी छोड़ती नहीं, अपने शावकों तक उसे पहुँचाना
ही उसका अंतिम मकसद होता है’। यह सुनकर मुझ में बसे माँ के दिल
ने उस जंगल की माँ का तहेदिल से अभिवादन किया!
दूसरे
दिन सबेरे हम पुनः जंगल में जाने के लिये तैयार हुए। हमारी तरह
जंगल भी प्रसन्न लग रहा था। कच्ची धूप और ठण्डी हवाएँ वृक्षों
को पुलकित कर रही थीं। पत्तों-फूलों की खुशबू पूरे माहौल को
महका रही थी। आज का क्षेत्र- ४ कल से भिन्न होने से वृक्ष,
घास, पंछी भी भिन्न थे। एक विशाल जलाशय पर काले सारस, जल
मुर्गियाँ, किंगफ़िशर आदि ने हमें दर्शन दिया था। अब हम मध्यम
ऊँचाई के, सूखे हुए, पीले रंग के घास के मैदान से जा रहे थे।
आज भी हमारा नसीब ज़ोरों पर था और अचानक हमें ‘वह’ घास में
टहलती हुई नज़र आयी! कल का बाघिन देखने का अवसर भले ही ‘पहला’
हो लेकिन वह बाघिन अपने रास्ते से, हमें न देखते हुए ही चली
गयी थी (वैसे भी दुनिया भर की माँओं को कहाँ किसी और बात के
लिये वक़्त मिल पाता है)। इसके अलावा कल शाम को ऐसी धूप नहीं थी
कि अच्छे फोटो आ सकें। लेकिन आज की बात कुछ और ही थी! आज जी भर
के उसके फोटो निकाले। पीले रंग की घास की पार्श्वभूमि पर उसकी
मखमली, पीली-नारंगी त्वचा और काली धारियाँ बहुत ही खूबसूरत लग
रही थीं। फुसफुसाते हुए गाइड बोला, ‘यह नौजवान बाघिन नर बाघ को
ढूँढ रही है'।
ओहो, इसलिये यह महारानी जैसा बर्ताव कर रही थी! हम इंसान प्यार
का इजहार करने से कतराते हैं और किया भी तो एकांत में करते
हैं। इस बाघिन का इस तरह खुल्लमखुल्ला अपने ‘प्राणप्रिय’ को
ढूँढना मुझे ऐसा लगा मानो मैं कुदरत के एक अद्भुत नज़ारे की
गवाह बन गयी हूँ। बाघिन इस तरह बेचैन लग रही थी मानों कुछ खोज
रही हो। हमारी जीप उस के थोड़े पास से गुजरी तो वह गुर्रायी भी!
बहुत देर तक घास में टहलने के बाद वह रास्ता लाँघ कर दुसरी ओर
चली गयी। अब वह वृक्षों को सूँघ रही थी, और अपना बदन उनके तनों
पर घिस रही थी। बीचबीच में अपने ‘उसको’ आवाज़ भी दे रही थी। कल
हमने एक ममतामयी माँ-बाघिन को देखा था और आज हम यह ‘प्रणयातुर
प्रेयसी’ देख रहे थे! वास्तव में कुदरत ने हमें आश्चर्यचकीत कर
दिया था।
बाघ देखने की ख़ुशी के साथ इस सफारी ने मुझे सोचने पर भी विवश
किया। अपने ‘राष्ट्रीय प्राणी’ का दरजा मिले हुए इस ‘राजा की’
आजकी स्थिति कितनी दयनीय है। उनके शिकार को रोकने के लिये भारत
सरकार ने विशिष्ट जंगल प्रभाग ‘बाघ परियोजना’ के नाम से
संरक्षित घोषित किये हैं। करीब २००० तक की ही गिनती वाले बाघों
के लिये इतना करना तो बनता ही था। बहरहाल इसके लिये बहुत धन
चाहिये और वह पाने के लिये सरकार को ऐसे संरक्षित क्षेत्रों
में सफारी के लिये भी इजाज़त देनी पड़ती है। यह एक दुष्चक्र है।
एकही समय पर जंगल में जाने वाली लोगों की गाड़ियाँ, उनकी
आवाजें, धुँआ, इनसे बाघ शान्ति और ख़ुशहाली से जीवन बिता पाते
होंगे इस बारे में मुझे संदेह है। वैज्ञानिक अध्ययन के लिये
कुछ हद तक शायद यह जरूरी भी हो, लेकिन यह एक कड़वा सच है कि हम
जैसे बहुसंख्य लोग रोमांच के लिये ही
जंगल
में जाते हैं। हमें बाघ देखकर ख़ुशी होती है लेकिन साथ साथ हम
उनकी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में उथल-पुथल भी मचाते हैं। यह सब
ऐसे ही चलता रहेगा यह सोचकर मुझे बहुत मायूसी का अनुभव हुआ।
वास्तव में रणथम्बोर के जंगल ने मुझे अपरंपार दिया। इस
रोमांचकारी बाघ दर्शन ने मुझे, मेरे लाडले को ही क्या मेरे
पोतों को भी मंत्रमुग्ध कर दे, ऐसा किस्सा सुनाने की भविष्य की
कठिनाई आसान कर दी!
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