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					 111 अद्वितीय स्मारक - महाबोधि मंदिर
 - सुबोध 
					कुमार नन्दन
 
 महान तीर्थ गयाधाम से लगभग १३ किलोमीटर दूर 
					बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर विश्व के इतिहास में अद्वितीय 
					स्मारक है। आधी दुनिया शीतल छाया बौद्ध मंदिर की वंदनी बोधि 
					वृक्ष से पायी। तथागत बुद्ध ने यहीं उस ज्ञान को प्राप्त किया 
					था जिससे आज संसार आलोकित है। विश्व बंधुत्व,एकता और समानता का 
					जो संदेश भगवान बुद्ध ने दिया उसकी प्रेरणा उन्हें यहीं 
					प्राप्त हुई थी। बोधगया आज सारे विश्व के बौद्धों के पवित्र 
					स्थल के साथ-साथ प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थली है। यह 
					बिहार की पहली विश्व-धरोहर है। बौद्ध धर्म को मानने वाले 
					दुनिया भर से लाखों लोग हर साल यहाँ आते हैं।
 महाबोधि मंदिर भगवान बुद्ध की महिमा में बना सबसे विशाल और 
					पवित्रतम मंदिर है। चतुष्कोण पीठिका से तन्वंग गोपुच्छाकार रूप 
					में यह मंदिर उन्न होता है। इसकी ग्रीवा गोलकार है। इसके चारों 
					कोणों पर चार मीनार खड़ी है जिनसे इस पवित्र भवन को एक सुंदर 
					संतुलन मिलता है। साथ ही पर्यटकों की आँखों को अवर्णनीय सुख। 
					दीवारों के ही रंग में आले बने हुए हैं जो मूर्तियाँ स्थापित 
					करने के लिए है। मंदिर के चारों ओर भी पीपल की पत्तियाँ जो 
					सुप्रसिद्धाधिद्म से निकले हाल के पौधे हैं, मंदिर के दृश्य को 
					हरीतिमा प्रदान कर नैसर्गिक सौंदर्य करते हैं। मंदिर के चारों 
					ओर की रेलिंग भी देखने योग्य है। मंदिर परिसर में बहुत से 
					छोटे-बडे स्तूप हैं। ये स्तूप भी अति सुंदर और धार्मिक व 
					ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। मंदिर की ऊंचाई १७० फीट 
					है। मंदिर के भीतर पश्चिमी दीवार की एक वेदी पर उपविष्ट मुद्रा 
					में भगवान बुद्ध की एक सुविशाल सोने से मढ़ी मूर्ति प्रतिष्ठित 
					है। मूर्ति जिस पर कलई की गयी है, पूर्वाभिमुख की ओर, पीठ किए 
					ध्यानमग्न भगवान बुद्ध बोधिवृक्ष की ओर ध्यान मग्न थे। मंदिर 
					के प्रांगण में प्रवेश करते ही आत्मा को अचानक शांति मिलती है। 
					मंदिर में प्रवेश करने पर लगभग बीस सीढियाँ उतरने के बायीं ओर 
					विशाल घंटा है। जिसके बजते ही पूरा प्रांगण गुंजायमान हो उठता 
					है। साथ ही मंदिर के पूर्व एक मनोहारी तोरण है जिस पर हिरण 
					सिंह तथा अन्य मूर्तियाँ सुचारू रूप से उत्कीर्ण हैं। यहाँ 
					भगवान बुद्ध की प्रारंभिक जीवन से सांधिता बौद्ध जातक कथाएँ भी 
					अंकित की गयी हैं।
 
 प्रियदर्शी सम्राट अशोक ने सबसे पहले भगवान बुद्ध के चरण कमलों 
					से पूत पवित्र इस बोधि स्थल को ऐतिहासिक स्मारक के रूप में 
					परिणत किया। इस मंदिर का निर्माण सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व 
					तीसरी शताबदी में स्तूप के रूप में करवाया था, जिसे बाद में 
					कुषाण काल में मंदिर का रूप दिया गया। बख्तियारपुर खिलजी नाम 
					के आक्रमणकारी ने १२०५ ई. में इस मंदिर को प्रायः नष्ट ही कर 
					दिया था। बोधगया से प्राप्त महानाम के शिलालेख से भी यह ज्ञात 
					है कि इसका निर्माण ५८८-५८९ ई.पूर्व. के पहले हुआ। चीनी यात्री 
					फाहियान चौथी शती ई. में बोधगया आया था। दूसरा चीनी यात्री 
					ह्वेनसांग सातवीं शती ई.में बोधगया आया था। उसने विहार की 
					ऊँचाई लगभग १६०-१७० फीट बताई।
 
 कालक्रम में जीर्ण होकर यह मंदिर मिट्टी में दब गया था। 
					ब्रिटिश काल में कनिंधन का ध्यान इस ओर गया और 
					पुरातत्ववेत्ताओं की सहायता से इसका जीर्णोद्धार कराया। 
					महाबोधि की रक्षा का सबसे अधिक योगदान बर्मा के बौद्ध राजाओं 
					ने दिया। सन ४५० ई. में थोडोभेंग ने इस मंदिर का उद्धार किया। 
					सम्राट समुद्रगुप्त के शासन काल ३५० ई. में श्रीलंका के राजा 
					मेघवर्ण ने यहाँ अपने देश के बौद्ध भिक्षुओं के लिए एक भव्य 
					मंदिर का निर्माण कराया। महावंश में वर्णित है कि संभवत छठी 
					शती में सिंहल नरेश महानामन ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया 
					था। १०३५-१०७९ ई.में बर्मा के राजाओं ने इस मंदिर का 
					पुनरूद्धार करवाया। ११५७ ई. में शिवालिक के राजा ने इस मंदिर 
					का उद्धार किया।
 
 बोधिवृक्ष मंदिर के पश्चिम में है, जहां तथागत को ज्ञान की 
					प्राप्ति हुई थी। इसे बोधिवृक्ष का बहुत लंबा इतिहास है। गौतम 
					बुद्ध २९ वर्ष की आयु में मगध के राजा बिम्बसार के समय में इसी 
					पेड़ के नीचे ५७ दिनों तक ध्यानमग्न रहे थे। ४९ वें दिन के 
					अरुणोदय के साथ उन्हें सत्य की अनुभूति हुई। वृक्ष के चारों ओर 
					एक चबूतरा बना है जिसे वज्रासन कहते हैं। देश-विदेश में 
					आनेवाले बौद्ध अनुयायियों का यहाँ साल-भर जमघट लगा रहता है। वे 
					बोधिवृक्ष पर पवित्र धागों को बाँधते हैं और अगरात्ती और 
					मोमात्ती जलाते हैं। प्रचलित मान्यताओं के मुताबिक दीपक जलाने 
					से मनुष्य के पाप दूर होते हैं और इतना ही नहीं उसकी मुक्ति का 
					मार्ग भी प्रशस्त होता है। प्रसाद के रूप में यहाँ पावरोटी, 
					फल, कपड़े, मोमात्ती, द्रव्य सहित पैसे आदि समर्पित करते हैं।
 
 जापान की धार्मिक एवं सामाजिक संस्था दाइजोक्यो द्वारा भगवान 
					बुद्ध की विशाल प्रतिमा ८० फीट ऊँची है। इन दिनों पर्यटकों के 
					लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र बिन्दु है। यह ४० फीट चौड़ी है। इस 
					मूर्ति के पेट में बड़ा सा हालनुमा एक कमरा है जिसमें रैकाने 
					हैं। इन पर जापान निर्मित १६ हजार तीन सौ भगवान बुद्ध की 
					छोटी-छोटी प्रतिमाएँ हैं। यह पहली मूर्ति है जिसे पत्थर से 
					पत्थर जोड़कर बनाया गया है जो अनेक रंग-बिरंगे लाल, पीले, नीले 
					आदि होते हैं।
 
 महाबोधि मंदिर के परिसर से लगा एक मुचलिंद सरोवर है जिसके बारे 
					में कहा जाता है कि भगवान बुद्ध इसमें स्नान किया करते थे। 
					इसमें कमल के फूल खिलते रहते हैं। सरोवर के मध्य में भगवान 
					बुद्ध की ध्यान मुद्रा में मूर्ति बनी है, जिस पर नागराज फन 
					फैलाए हैं।
 
 अनिमिश्लोचन स्तूप
 
 यह उस स्थान पर बनवाया गया है जहाँ तथागत ने श्रद्धापूर्वक 
					बोधिवृक्ष की ओर खड़े होकर देखा था। यहीं उन्हें अपनी खोज की 
					प्राप्ति में सहायता मिली थी। यह ५३ फुट ऊँचाई एक स्तूपाना है 
					जिसमें भगवान बुद्ध की खड़ी मुद्रा में बोधिवृक्ष की ओर देखते 
					हुए मूर्ति है।
 रत्नचक-विहार के उत्तर की ओर बने हुए हुए चबूतरे पर तथागत के 
					पद चिह्न रूप में १८ कमल के फूल हैं। कहा जाता है कि भगवान 
					बुद्ध इसी जगह पर कभी-कभी विश्राम करते थे।
 
 राजायतन वृक्ष -
 यहाँ भगवान बुद्ध ने अपना सातवाँ सप्ताह व्यतीत किया। यहाँ 
					उन्होंने लोगों को उपदेश देने का निर्णय किया और इस प्रकार 
					मानव मात्र के कल्याण का कार्य किया।
 
 अभिधम्म नाथ-
 यहाँ भगवान बुद्ध ने आसन लगाकर गंभीर चिंतन मुद्रा में एक 
					सप्ताह व्यतीत किया था। कहा जाता है कि यहाँ साधना करते हुए 
					उनके शरीर से सफेद, पीले, लाल और नारंगी रंग के अलौकिक प्रकाश 
					निकले थे। इन रंगों को बौद्ध ध्वज में शामिल किया गया है। 
					बोधगया में पुरातत्व संग्रहालय भी देखने योग्य है। इस 
					संग्रहालय का ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व भी है। यहाँ खुदाई के 
					दौरान मिले बौद्ध काल के अवशेषों को सहेज कर दर्शनार्थ रखा गया 
					है।
 
 इसके अलावा बुद्ध की पवित्र धरती बोधगया में तिब्बत, थाइलैंड, 
					भूटान, श्रीलंका, चीन, जापान, नेपाल,बांग्लादेश, कोरिया, 
					ताइवान आदि ३२ देशों के बौद्ध मठ विशिष्ट शैली में बने हैं जो 
					पर्यटकों तथा तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। 
					तिब्बती मठ में एक विशाल धर्मचक्र लगा है। लोगों का विश्वास है 
					कि पाप मुक्त होने के लिए इसे तीन बार घुमाना आवश्यक है।
 
 सुजाता गढ़ -बकरौर स्थित सुजाता गढ़बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए 
					महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है। छह वर्ष तक कठिन तपस्या करने के बाद 
					जब सिद्धार्थ गौतम गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे, तो सुजाता 
					नामक कृषक कन्या ने उन्हें खीर खिलायी थी तथा मध्यम मार्ग का 
					ज्ञान देते हुए कहा था कि वाणी के तार को इतना मत खींचो कि टूट 
					जाए और इतनी ढीली भी मत छोड़ो कि आवाज ही न निकले। इसी केा बाद 
					मध्यम मार्ग बौद्ध धर्म का सूत्र वाक्य बन गया तथा खीर मुख्य 
					प्रसाद। ९वीं शतादी में इस स्थान पर कृषक कन्या सुजाता की याद 
					में यहाँ पर एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया गया जो सुजाता गढ़ 
					या सुजाता किला के नाम से विख्यात हुआ। सुजाता गढ़ को भारतीय 
					पुरातत्व सर्वेक्षण (पटना अंचल) द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित 
					कर यहाँ खुदाई कार्य शुरू किया गया है। सुजाता गढ़ अभी सतह से 
					१२ मीटर ऊँचा है। विश्व भर केा बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए 
					सुजाता गढ़ प्रमुख तीर्थस्थल है।
 
 डुंगेश्वरी पहाड़-बकरौर के पास डुंगेश्वरी पहाड़ पर तथागत को 
					मध्यम मार्ग प्राप्त हुआ जहाँ आज भी बुद्ध की प्रतिमा है और कई 
					बौद्ध भिक्षु यहाँ निवास करते हैं। बौद्ध साहित्य महावग्ग के 
					अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद तथागत यहाँ आए थे और मूल निवासी 
					जटिल कश्यपों से तर्क- वितर्क किया था, उनके उपदेशों से 
					प्रभावित हो लगभग पाँच सौ कश्यपों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया 
					था।
 
 पहुँचने का मार्ग
 
 सड़क मार्ग- पटना से १२४ किलोमीटर, जहानाबाद से ७० किलोमीटर , 
					गया से १२ किलोमीटर, नालंदा से ९५ किलोमीटर, राजगीर से ८५ 
					किलोमीटर, वाराणसी से २४५ किलोमीटर। गया से बोधगया जाने के लिए 
					आटो रिक्शा, तथा घोड़ा गाड़ी (टमटम) की सुविधा उपलध है।
 रेल मार्ग- निकटवर्त्ती रेलवे स्टेशन- गया
 हवाई मार्ग- पटना और गया हवाई अड्डा बोधगया से ६ किलोमीटर 
					उत्तर में गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। इंडियन एयरलाइंस 
					द्वारा सप्ताह में दो दिन शनिवार तथा बुधवार को कोलकाता 
					-गया-बैंकाक तथा बैंकाक -गया- कोलकाता विमान सेवा संचालित है।
 
 यहाँ ठहरने के लिए हर स्तर को होटल, रेस्ट हाऊस तथा धर्मशालाएं 
					है।
 एक कथा के अनुसार आदि काल में मंदिर के कोई 
					महंत अजगैबीनाथ मंदिर से देवघर मंदिर को जोड़ने वाले भूगर्भीय 
					मार्ग (भूतल) से प्रतिदिन जल चढ़ाने आया करते थे। उस रास्ते का 
					पता लगाने की कोशिश आधुनिक इंजीनियरों ने बहुत प्रयास की, 
					लेकिन सफल नहीं हो सके। भूगर्भीय मार्ग का मंदिर के पास ही 
					खुलने वाला दरवाजा आज भी मौजूद है। कालक्रम में इस मंदिर की 
					उत्कीर्ण नक्काशियों का अदभुत सौंदर्य हमारा ध्यान सबसे पहले 
					चौथी सदी की ओर ले जाता है। इनमें प्रमुख है शेषशय्या पर 
					विश्राम की मुद्रा में भगवान विष्णु। पुरातत्वेत्ताओं की नजर 
					में यह अतिविशिष्ट कोटि की कला है। अन्य उत्कीर्ण आकृतियों में 
					गंगा माँ जाह्नवी ऋषि की आकृतियाँ भी अति विशिष्ट हैं। 
 एक किंवदंती के अनुसार भगीरथ अपनी तपस्या के बल पर गंगा को इस 
					धरती पर लाए। भगीरथ के रथ के पीछे दौड़ती गंगा सुल्तानगंज 
					पहुँची तो पहाड़ी पर स्थित जह्नु मुनी के आश्रम को बहाकर ले 
					जाने पर अड़ गई। इससे मुनि क्रोधित हो गए और अपने तपो बल से 
					गंगा को चुल्लू में उठाकर पी गए। अंततः भगीरथ के बहुत आग्रह 
					करने पर मुनि कुछ नरम पड़े और अपनी जंघा चीरकर गंगा को बाहर 
					निकाल दिया। मुनि के जंघा से प्रकट होने से गंगा का एक नाम 
					‘जाह्नवी’ भी पड़ा।
 
 उत्तरवाहिनी 
					गंगा और इस पहाड़ी के कारण सुल्तानगंज इतना आकर्षक प्रतीत हुआ 
					कि यहाँ बौद्धों ने भी प्राचीन काल में
  स्तूप बनवाए। इस तरह 
					सुल्तानगंज कभी बौद्धों का तीर्थ स्थान रहा है। अजगैबीनाथ 
					पहाड़ी पर अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की प्रस्तर प्रतिमाएँ 
					प्राप्त हुई हैं। ईंट के बने प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष, 
					शिवलिंग और शिलालेख भी मिले हैं। 
 यह पहाड़ी वास्तव में निराली है। इसके दर्शन के लिए कुछ साल 
					पहले तक यात्रियों को नाव का सहारा लेना पड़ता था लेकिन अब एक 
					छोटी सी पुलिया बना दी गई है। यह स्थान न केवल पूरे सावन-भादों 
					माह में देशी-विदेशी यात्रियों और श्रद्धालुओं से गुलजार रहता 
					है, बल्कि हर पूर्णिमा, संक्राति आदि के अवसर पर भी शिव भक्तों 
					का हुजूम लगा रहता है।
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