उत्तरी बंगाल का एक जनपद है- दार्जिलिंग।
भारत वर्ष के अन्य पर्वतीय स्थलों की तरह दार्जिलिंग भी
अंग्रेजों द्वारा विकसित किया गया। मालदा जनपद के तत्कालीन
व्यापार विभाग के रेजीडेंट, जेडब्ल्यू ग्रांट तथा कैप्टेन लायड
को फरवरी १८२९ में सिक्किम-नेपाल सीमा विवाद सुलझाने के लिए
नियुक्त किया गया था। उनकी इस यात्रा का मार्ग दार्जिलिंग होकर
था, जो उस समय केवल जंगलों से भरी पहाड़ी मात्र थी। इस यात्रा
के दरम्यान जब उन्होंने बर्फ से ढँकी कंचनजंघा और साथ की पर्वत
शृंखला देखी तो मंत्रमुग्ध हो गये। पूरे रास्ते का प्राकृतिक
सौंदर्य आकर्षक एवं मनोहारी था। तभी तो उन्होंने सन् १८२९ में
भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक को एक
रिपोर्ट भेजी जिसमें कहा गया था कि यह क्षेत्र इतना सुंदर है
कि इसे शीघ्र ही ब्रिटिश अधिकार में लेकर एक सेनीटोरियम बनाया
जाए। यह रास्ता चूँकि नेपाल तथा सिक्किम जाने के मार्ग पर
स्थित है, इसलिए रक्षा मामलों के कारण भी यह क्षेत्र
महत्वपूर्ण है। कैप्टेन हरबर्ट कोव ग्रांट ने इसे यूरोपीय
रेजीमेंट के लिए स्थायी छावनी बनाने की सिफारिश की जिसे
गर्वनर-जनरल ने मंजूरी दे दी। उनके प्रयास से सिक्किम के राजा
ने, जिनका इस क्षेत्र पर आधिपत्य था, १ फरवरी, ८५ को लिखित
समझौते के तहत बिना किसी शर्त के दार्जिजिंग का पर्वतीय
क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी को भेंट स्वरूप दे दिया। सन् १९४१
में कंपनी सरकार ने सिक्किम के राजा के लिए हरजाने के रूप में
३००० रुपये का भत्ता स्वीकार किया।
दार्जिलिंग की चाय
सन् १८३७ में लॉयड ने इस निर्जन पहाड़ी पर आबादी करने के
उद्देश्य से लोगों को प्रेरित कर उन्हें भू-स्वामी बनवाया। सन्
१८२५ के बाद से असम व कुमाऊँ क्षेत्र में चाय की खेती प्रारंभ
हो चुकी थी। सन् १८४१ में चीन की चाय के कुछ बीज कुमाऊँ से
दार्जिलिंग लाये गये और प्रायोगिक तौर पर यह प्रयोग सफल रहा।
सन् १८५६ तक तो यहाँ चाय उद्योग पूर्ण विकसित हो चुका था।
दार्जिलिंग में अधिकतर चाईनरी चाय का ही उत्पादन किया जाता है।
इस चाय के बीज अब उपलब्ध नहीं हैं। अतः उसके पौधों की कलम से
ही नये पौधे बनाये गये हैं, जो ६०-७० वर्षों तक चलते हैं। यहाँ
५० वर्षों से नये बाग नहीं लगे हैं क्योंकि यहाँ वैज्ञानिक
अनुसंधान नहीं के बराबर हुए हैं। दूसरे पुराने पौधों से बीज
बनाये नहीं जा सकते। यदि बनाये भी जाएँ, तो आवश्यक नहीं कि नये
पौधों की विशिष्टता बनी रहे। दार्जिलिंग में पैदा होने वाली
चाय को डिब्बों में बंद कर कलकत्ता लाया जाता है। यहाँ इनकी
नीलामी होती है, जो कि सौ से कुछ हजार रुपये किलो तक होती है।
गत वर्ष नीलामी में सबसे महँगी चाय १३००१ रुपये प्रति किलो के
भाव से बेची गयी। जहाँ एक ओर व्यावसायिक रूप से चाय की खेती के
लिए दार्जिलिंग प्रसिद्ध है वहीं इसके नैसर्गिक सौंदर्य में
चुंबकीय आकर्षण व्याप्त है। प्रकृति की गोद में बसी इस पहाड़ी
और यहाँ की घाटियों का स्नेह, मधुरता, विशालता और मनोहारी
दृश्य जीवन के उस अंश को सार्थक कर देते हैं, जब हम इस प्रकृति
के बीच में होते हैं। मैदानी इलाकों में ऐसा प्रतीत होता है,
मानो बादल हमसे दूर हैं, परंतु यहाँ बादल आपके ऊपर नहीं बल्कि
आप उनके ऊपर होते हैं। देखने में आता है कि नीचे घाटियाँ
बादलों से ढँकी पड़ी हैं और आप बादलों की पालकी पर सवार हैं।
यातायात के साधन-
दार्जिलिंग समुद्रतल से २१४३ मीटर ऊँचाई पर बसा है।
पहले न्यू
जलपाई गुड़ी से यहाँ के लिए खिलौना गाड़ी ‘ट्रॉय ट्रेन’ चलती थी,
पर अब यह दार्जिलिंग से कुछ कि.मी. दूरी तक के लिए ही चलायी
जाती है। बेहतर रख-रखाव, मरम्मत के लिए निजी कंपनी को सौंपने
पर विचार किया जा रहा है। बहुधा पर्यटक स्वयं के वाहन अथवा
टूरिस्ट वाहनों से दार्जिलिंग पहुँचते हैं। पूर्वोतर भारत के
इस खूबसूरत पर्यटन स्थल तक हवाई यात्रा कलकत्ता या दिल्ली से
बाग डोगरा तक और वहाँ से ९० कि.मी. बस या टैक्सी से।
कलकत्ता
से सिलीगुड़ी होते हुए बस या मिनी ट्रेन अथवा टैक्सी की सेवा ली
जा सकती है। दार्जिलिंग घूमने की
दृष्टि से अप्रैल से मध्य जून तथा सितम्बर से नवम्बर तक का समय
उपयुक्त रहता है। जून से सितम्बर यहाँ बरसात होती है, परंतु
कभी भी दार्जिलिंग जाएँ, तो गरम कपड़े अवश्य साथ लेकर जाएँ।
आकर्षक पर्यटन स्थल-
पर्यटन का सही आनंद यहाँ के अनेक आकर्षक स्थलों को देखकर उठाया
जा सकता है। प्रत्येक जगह का अलग ही सौंदर्य एवं महत्व है।
संसार में प्रसिद्ध हिमाच्छादित चोटियाँ के-२, जानू, काबू आदि
के दर्शन इस शहर के विभिन्न स्थानों से होते हैं। ट्रैकिंग
करने वालों के लिए यहाँ से १६० कि.मी. दूर फालूत, १५३ कि.मी.
दूर विजनबाड़ी और १८० कि.मी. दूरी पर मानीमजांग है। सिंगालिला
श्रेणी में संढाकू-दार्जिलिंग जिले की सर्वोच्च चोटी ३६३६ मीटर
है। यह ट्रैकरों का स्वर्ग है। पर्वतारोहियों के लिए चिड़ियाघर
के समीप हिमालयन माउंटेनियरिग इंस्टीट्यूट है। एवरेस्ट विजय की
खुशी में सन् १९५४ में इसे नेहरूजी ने स्थापित किया था। यहाँ
भारत के गौरव तेनजिंग नोरगे की आदमकद मूर्ति विजय की याद
दिलाती है जो कि मृत्युपर्यंत इस संस्थान के निदेशक और सलाहकार
भी रहे। यहाँ का एवरेस्ट म्यूजियम एक रोमांचक यादगार है। नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम, लॉयड बोटेनिकल
गार्डन और जूलॉजिकल पार्क में क्रमशः पशु-पक्षी, तितलियाँ,
आर्किड और हिमालयी जीव-जंतु दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं।
काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर-जैसा ही है।
धीरधाम मंदिर, जो स्टेशन के समीप ही स्थित है। बौद्ध मठ
घूम, जापानी मंदिर आदि हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं।
मनोरम पर्वत शृंखलाएँ-
बताशिया लूप से पर्वत शृंखलाओं के दर्शन टेलीस्कोप द्वारा
होते हैं। यह प्वाइंट बहुत ही आकर्षक है। यहाँ से थोड़ी दूरी पर
स्थित टाइगर हिल है, जहाँ का सूर्योदय बहुत ही लुभावना होता
है, पर इसके लिए आपको ठंड में सुबह तीन बजे उठकर टाइगर हिल
जाना होगा। दार्जिलिंग आकर ‘रोप वे’
में घूमना बहुत ही आनंददायक होता है। एक बार में पाँच से छह
लोग ‘रोप वे’ की बॉक्सनुमा ट्रॉली में बैठते हैं और विद्युत
चालित ट्रॉली चल देती है, बादलों को चीरती अगले छोर की ओर। इस
बीच नीचे चारों ओर चाय के बागान हैं, जो कि कई फिल्मकारों
द्वारा अपने कैमरों में कैद किये जा चुके हैं। टॉय ट्रेन
हालांकि ज्यादा दूर तक नहीं चलती, फिर भी इसमें बैठकर घूमने का
मजा ही और है। दार्जिलिंग के पास ही कलिमपोंग और कुर्सियांग के
अलावा मिरिक हिल स्टेशन है। मिरिक की सुमेंधु झील में नौकायन
और खूबसूरत नजारों का आनंद लिया जा सकता है।
हस्तकला के नमूनों की खरीदारी-
दार्जिलिंग की पहाड़ियों के बीच
एक स्थल है, जहाँ तिब्बती शरणार्थी केंद्र है सन् १९५९ में
स्थापित इस केंद्र में रह रहे लोग हथकरघा उद्योगों के माध्यम
से चटाइयाँ, लकड़ी चमड़े, कपड़े और धातुओं के सामान तैयार करते
हैं। आत्म-निर्भरता हेतु इन सामानों को उचित मूल्य पर पर्यटकों
को बेचा जाता है।
पर्यटकों को खरीददारी करने का शौक तो होता ही है और यहाँ आकर
वे खरीददारी करते हैं, किंतु इलैक्ट्रॉनिक सामान जो विदेशी
होते हैं, उन पर बहुत मोल-भाव होता है और गारंटी भी किसी सामान
की नहीं दी जाती है। गरम कपड़े, हस्तशिल्प की वस्तुएँ, चाँदी के
आभूषण आदि भी दार्जिलिंग में मिलते हैं। यहाँ की महिलाएँ
आत्मनिर्भर होती हैं और स्वयं व्यवसाय चलाती हैं। अधिकतर
व्यावसायिक संस्थान महिलाओं के
नाम पर ही हैं।
ऐसे बहुरंगी और प्राकृतिक सौंदर्य के धनी इस हिल स्टेशन पर
जाना एक अलग ही अनुभूति प्रदान करता है। बरफ से ढँके पर्वत
शिखरों के बीच चाय के बागान और वहाँ की खुशबू सारे विश्व में
व्याप्त हो चुकी है। पर्यटन को मुख्य व्यवसाय अपनाये इस शहर को
यदि सबसे ज्यादा फायदा पर्यटकों से है, तो उन्हीं से इसे सबसे
ज्यादा नुकसान भी है। जरूरत इस बात की है कि पर्यटक भी इसके
प्राकृतिक वातावरण और यहाँ के पर्यावरण पर कोई गलत हस्तक्षेप न
करें और सिर्फ आनंद उठायें, प्रकृति प्रदत्त इस उपहार का।