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पर्यटन

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  एक गाँव कलाकारों का
- गुरमीत बेदी
 


जिस गाँव के साथ दो पद्मश्री व एक पद्मविभूषण से अलंकृत कलाकारों के नाम जुड़े हों, उसे ‘कलाकारों का गाँव’ कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘अन्द्रेटा’ ऐसे ही एक गाँव का नाम है। इस गाँव की माटी में कला की सुगंध इतने गहरे तक रच-बस चुकी है कि यहाँ एकबारगी आया कलाकार फिर यहीं कलासाधना में लीन हो जाता है।

नौरा रिचर्ड

प्रख्यात आयरिश नाटककार नौरा रिचर्ड १९३५ में जब इस गाँव में आयी थीं, तब यहाँ चारों तरफ जंगल-ही-जंगल थे और घाटी की तलहटी में इक्का-दुक्का घर। लेकिन यहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य के सम्मोहन में जब नौरा रिचर्ड बँधीं तो फिर यहीं की होकर रह गईं। नौरा रिचर्ड अपने पति के साथ १९११ में पहली बार भारत आयी थीं। उनके पति फिलिप एर्नसट रिचर्ड दयाल सिंह लाहौर के कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। सन् १९२० में अपने पति के आकस्मिक निधन के बाद नौरा रिचर्ड इंग्लैंड लौट गयीं। वह इंग्लैंड लौटी तो थी अकेलेपन से बचने के लिए, लेकिन भावनात्मक रूप से वह भारत की माटी से स्वयं को अलग नहीं कर पायीं। भारत में कला-संस्कृति और विशेषकर ग्रामीण थियेटर को बढ़ावा देने का सपना बराबर उनकी आँखों में पलता रहा। अपने भारत प्रवास के दौरान नौरा रिचर्ड ने ‘सती’ और ‘भारतवर्ष’ नामक दो नाटक लिखे थे और इंग्लैंड के रंगमंच पर ये दोनों नाटक काफी चर्चित हुए। भारत में भी कुछ कलाकारों ने जब इन नाटकों का मंचन किया, तो नौरा रिचर्ड सुर्खियों में आ गयीं।

सांस्कृतिक केंद्र का निर्माण

इसी बीच उनकी एक भारतीय प्रशंसक श्रीमती ई. डब्ल्यू. पार्कर ने उन्हें अन्द्रेटा में पंद्रह एकड़ भूमि उपहार में देकर अन्द्रेटा को एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करने का न्यौता दिया। बस यहीं से इस पहाड़ी गाँव के भाग्य ने करवट लेनी शुरू की और गुमनाम-सा यह गाँव कलाप्रेमियों की चहलकदमी का केंद्र बनने लगा। नौरा रिचर्ड १९३५ में अन्द्रेटा आयीं और मृत्यु पर्यन्त (४ मार्च, १९७१) तक यहीं की माटी से जुड़ी रहीं। नौरा रिचर्ड ने यहाँ सर्वप्रथम मिट्टी का घर बनाया। पहाड़ी घरों की तरह बाँस की बल्लियों के सहारे घास-फूस की छत पर टिका उनका यह बसेरा नाट्य प्रेमियों के लिए कला-मंदिर बन गया। घर के आँगन में घास-फूस की छत डालकर उन्होंने एक खुला थियेटर बनाया और बाकायदा कक्षाएँ लगाकर गाँव के लोगों को लोक-नाटकों में अभिनय का प्रशिक्षण देने लगीं। उन्होंने यहाँ वार्षिक रंगमंच का आयोजन करना भी शुरू किया। भारतीय रंगमंच की प्रमुख हस्तियों पृथ्वीराज कपूर और उनके बेटों ने ग्रामीण थियेटर को लोकप्रिय बनाने के नौरा के मिशन का न केवल समर्थन किया, बल्कि संरक्षण भी प्रदान किया।

सरदार सोभा सिंह

नौरा रिचर्ड ने अन्द्रेटा को एक कलाग्राम के रूप में पहचान दिलाने का सपना भी सँजो रखा था और इसी भावना से उन्होंने सन् १९४८ में प्रख्यात चित्रकार सरदार सोभा सिंह को यहाँ आकर बसने का न्यौता दिया। सोभा सिंह यहाँ आये और वह भी मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे। उनके शयनकक्ष और आर्ट गैलरी को उनकी सुपुत्री श्रीमती गुरचरण कौर ने उसी अवस्था में व्यवस्थित रखा है, जैसा सोभा सिंह छोड़कर गये थे। उनका कैनवस, ब्रश, रंगों की डिबिया, स्टूल, किताबें, पलंग, ऐनक.... सब ज्यों-के-त्यों हैं। सोभा सिंह द्वारा बनाये चित्रों में एक चित्र नौरा रिचर्ड का भी है, जो आर्ट गैलरी में प्रवेश करते ही सबसे पहले स्थान पर लगा है। सोभा सिंह चित्रकार होने के साथ-साथ कुशल शिल्पी भी थे। उनके द्वारा बनाये अब्राहम लिंकन, पृथ्वीराज कपूर, रवींद्रनाथ टैगोर, डा. एम. एस. रंधावा, अमृता प्रीतम और प्रो. निर्मल कुमार के बुत मूर्तिशिल्प के जीवंत उदाहरण हैं।

कला साधना का अहसास

सोभा सिंह की कला-वीथिका में करीने से सजी कलाकृतियाँ पलभर के लिए सम्मोहित-सा कर देती हैं और साथ ही उस महान कलाकार की कला साधना का अहसास दिलाती हैं। इन कृतियों में कहीं कृष्ण का मनोहर वंशीधर रूप दिखाया गया है, तो कहीं गुरू गोविंद सिंह का तेजस्वी रूप। कोई चित्र अहिंसा के पुजारी बापू का है, तो कोई अमर शहीद भगत सिंह का। सोहिनी-महिवाल में अगर अमर प्रेम प्रतिबिंबित हो उठा है, तो गुरू नानक देव जी की तस्वीर देखते ही शीश स्वयंमेव श्रद्धा से झुक जाता है। १९८३ में पद्मश्री से अलंकृत सोभा सिंह को पंछियों और फूलों से भी बेहद लगाव था। उनकी कला वीथिका के बाहर बड़े-से एक पिंजरे में दुर्लभ नस्ल की चिड़ियाँ हैं। नौरा रिचर्ड और सोभा सिंह द्वारा अन्द्रेटा को अपनी कर्मभूमि बना देने के बाद तो अन्द्रेटा बराबर सुर्खियों में रहने लगा। कई कलाकार यहाँ की माटी से जुड़े। पद्मविभूषण बी. सी. सान्याल और पद्मश्री गुरूचरण सिंह सरीखे कलाकारों के अलावा पृथ्वीराज कपूर, प्रो. ए. के. सक्सेना और कबीर बेदी की माता फरीदा जैसी हस्तियों के नाम भी इस कलाग्राम से जुड़े हैं। इन तमाम लोगों की कर्मभूमि कहलवाने की वजह से अन्द्रेटा अंतर्राष्ट्रीय कला मानचित्र में भी अंकित हो उठा है।

थियेटर, कला आश्रम और मिट्टी के कलात्मक बर्तन

अन्द्रेटा स्थित नौरा रिचर्ड का थियेटर, सोभा सिंह का कला आश्रम और गुरुचरण सिंह की पोट्री कार्यशाला कलाप्रेमियों के आकर्षण का केंद्र हैं। नौरा रिचर्ड के ग्रामीण थियेटर में पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला ने टीन डलवाकर उसे सचमुच में थियेटर का रूप दे दिया है और विश्वविद्यालय के लोग साल में यहाँ एकाध नाटक करवा जाने की औपचारिकता भी बखूबी निभा रहे हैं। नौरा रिचर्ड का मूल निवास कहीं खंडहरों में न बदल जाये, यह सोचकर प्रो. ए. के. सक्सेना ने इसके एक हिस्से में अपना बसेरा बना लिया है। पद्म विभूषण बी. सी. सान्याल ने भी यहाँ बाँसों से निर्मित अपना घर बना रखा है और हर वर्ष गर्मियाँ वह यहीं गुजारते हैं। पद्मश्री गुरुचरण सिंह भले ही गर्मियों में यहाँ आते हैं, लेकिन उनके बेटे हरसिमरण सिंह और पुत्रवधू मैरी यहाँ पोट्री की कार्यशाला चला रहे हैं और यहीं बस गये हैं। सोभा सिंह की कला-वीथिका के ठीक सामने एक रास्ता अन्द्रेटा पोट्री की ओर जाता है। रास्ते के दोनों ओर विशालकाय दरख्त व नीलकांटा की तराशी हुई झाड़ियाँ हैं। मुश्किल से दो-तीन मिनट का सफर तय करने के बाद दायीं तरफ एक दरवाजा है, जिसके बाहर लिखा है - अन्द्रेटा पोट्री। अंदर प्रवेश करते ही दिखते हैं चारों ओर मिट्टी के कलात्मक बर्तनों का ढेर... कुछ फूलदान और गमले।

अन्द्रेटा पोट्री में ‘हिमाचली टच’ भी काफी हद तक देखने को मिलता है- यानी पहाड़ की महिलाएँ अपने आँगन और दीवारों पर जिस तरह के कलात्मक बेल-बूटे बनाती हैं, उसी तरह के बेल-बूटे इन बर्तनों पर भी चित्रित किये जाते हैं। अन्द्रेटा पोट्री में दो स्थानों की मिट्टी तो अन्द्रेटा गाँव में ही उपलब्ध हो जाती है, जबकि एक विशेष किस्म की गुलाबी मिट्टी अन्द्रेटा से १२ किलोमीटर दूर स्थित गाँव मालनू से लाकर प्रयुक्त की जाती है।

कैसे बनते हैं कलात्मक बर्तन

मिट्टी को सुखाया जाता है, फिर इसे कूटकर गूँथा जाता है। इसके बाद अलग-अलग लोदें चाक पर चढ़ाये जाते हैं। इन्हीं लोदों से बनते हैं खूबसूरत बर्तन। बाद में इन्हें सुखाकर आग पर पकाया जाता है। मिट्टी को दो बार भट्टी में तपाया जाता है। पहली बार ६०० सेंटीग्रेड तापमान पर, और फिर सुहागा, नीला थोथा आदि रसायन डालकर दूसरी बार १०५० डिग्री सेंटीग्रेड तक पकाया जाता है। बर्तन पकाने की इस विधि को बिस्कुट फायर कहा जाता है। प्रक्रिया के बाद जब बर्तन सख्त हो जाता है, तो इसे रँगा जाता है जिसे ग्लेज करना कहते हैं। कलाग्राम अन्द्रेटा हिमाचल प्रदेश के पालमपुर नगर से १४ किलोमीटर दूर है और सड़क व रेलमार्ग से जुड़ा है। नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण यह गाँव एक टापू जैसा दिखता है।

 

 २ फरवरी २०१५

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