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पुरातत्व

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मंडला जहाँ कभी समुद्र लहराता था
- सुधीर वाजपेयी


प्रकृति का आदि-अंत, अनंत है। आज से पहले करोड़ों वर्ष पूर्व और आज से करोड़ों साल बाद भी ब्रह्मांड के रूप-स्वरूप की वैज्ञानिकता कल्पनातीत है। प्रकृति के प्रागेतिहास के एक बिंदु के आधारित स्वरूप को ही हम अपना आधार मानकर उसे वैज्ञानिकता की कसौटी पर परख सकते हैं किंतु प्रकृति के महाशून्य में अनंत बिंदुओं का सागर है।

मानव का प्रागैतिहासिक स्वरूप प्रकृति के बदलते जैविकीय उद्धव के साथ उसके हर परिवर्तन के साथ परिवर्तित होता है। युग-युगांतर में मानव विकास की परिकल्पना तथा प्रकृति के नैसर्गिक दस्तावेज जो उसकी पुष्टि का आधार होते हैं यह मत स्थापित करते हैं कि पृथ्वी शुरू में अग्नि का गोला थी। लाखों-करोड़ों वर्षों के परिवर्तनों के बाद इसमें जैविक-उत्पत्ति हुई। भौगोलिक परिवर्तन नित-निरंतर हैं जो दृश्य भी हैं तथा अदृश्य भी। आदि पुराण वर्णित नर्मदा क्षेत्र के तटीय समानांतर विस्तारित आदिवासी बहुल मंडला जिले का भौगोलिक पर्यावरण तथा जैविक इतिहास का एक बड़ा हिस्सा आज भी अनुसंधान के लिए रहस्य की परतों में है। बदलती हुई प्रकृति ने अनेक परिवर्तनों से इसके पुरातात्विक, मानवीय, भौगोलिक जैसे जीव-जीवन को प्रभावित किया है।

पुरातात्विक इतिहास

मेखलाकार नर्मदीय धारा के किनारे विकसित मंडला जिले का पुरातात्विक इतिहास प्राचीनतम है। मेकल पर्वत शृंखला में रचे-बसे इसके आदि मानव का प्रागैतिहासिक विकास आस्ट्रिया के प्रसिद्ध विद्वान एडवर्ड सुएस के अनुसार लगभग पैंतीस करोड़ वर्ष पूर्व का है। जिले के मेकल पर्वत तथा नर्मदा तट पर विकसित गोंडवाना संस्कृति आदिकालीन है। पुरातात्विक दृष्टि से जिले के पुरातत्व इतिहास के उद्धव विकास अध्ययन के परिपेक्ष्य में यहाँ कल्चुरिकालीन अवशेष, गोंडकाल के स्मारक तथा अन्य अवशेष, हस्तलिखित ग्रंथ तथा जीवाश्म उपलब्ध हैं।

आदिवासी बाहुल्य मंडला जिले में पादप जीवाश्म प्रचुर मात्रा में मिले हैं। पूर्वी भाग में शंख और सीप के जीवाश्मों के अवशेष की उपलब्धता इस बात का ठोस प्रमाण है कि करोड़ों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में समुद्र लहराता था। जिले में हैफिनी (शाखा युक्त ताड़ और खजूर) तथा यूकेल्पिट्स के प्राप्त जीवाश्म इस बात की प्रामाणिकता का आधार हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में भी अफ्रीकीय भू-भाग सम्मिलित था।

प्राकृतिक संरचना के महत्वपूर्ण दस्तावेज पौधों तथा शंखीय प्राणियों के सुरक्षित भाग जीवाश्म (फोंसिल्स) हैं। विलुप्त पौधों तथा प्राणियों के ये जीवाश्म अत्यंत दुर्लभ तथा करोड़ों वर्ष पुराने हैं। ये जिले के उत्तर पूर्वी भाग घुघवा शहपुरा क्षेत्र में पूर्वी भाग पारापानी तथा चाबी तथा दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र पाला सुंदर चिरईडोंगरी के क्षेत्र में पौधा तथा शंख के फालिसल्स व्यापक मात्रा में प्रकृति रूप में उपलब्ध हुए हैं। जिले में पाये गये जीवाश्म की उपलब्धता काष्ट जीवाश्म तथा शंख जीवाश्म तथा अस्थि जीवाश्म के रूप में हैं। काष्ट जीवाश्म पारापानी, घुघवा, सिलढार में हैं तथा शंख जीवाश्म लालपुर, बरबसपुर, पालासुंदर में हैं, जबकि अस्थि जीवाश्म गौर नदी की घाटी क्षेत्र में मिलते हैं।

सिलिकामय जीवाश्म

मंडला जिले में मिलने वाले जीवाश्म अश्यीभूत सिलिकामय काष्ट जीवाश्म दक्कन इंटर सीरीज के जीवाश्म हैं। इनका निर्माणकाल छह करोड़ वर्ष पूर्व का है जो भू-विज्ञान के अनुसार ‘सीनोजोईक’ महाकल्प काल का है। मंडला के जीवाश्म क्षेत्र में तनों के अलावा फल, बीज तथा आरोहियों के सिलिकामय जीवाश्म भी उपलब्ध हुए हैं। जीवाश्मों की व्यापकता तथा काष्ट जीवाश्म की प्राकृतिक अवस्था की दृष्टि से जो कि दुर्लभ है, विशेष महत्वपूर्ण है। यहाँ स्थित देवरीखुर्द के जीवाश्मों की प्राकृतिक तथा संपूर्णता में उपलब्धता से इसकी तुलना अमरीका के ‘येलोस्टोन-पार्क’ के विकसित जीवाश्म उद्यान से भी की जा सकती है।

अतीत का सागर

जिले में पाये गये जीवाश्मों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। जीवाश्म संग्रह प्रदेश का पहला संग्रहालय मंडला में है तथा शहपुरा विकास खंड में घुघवा जीवाश्म उद्यान एशिया का सबसे बड़ा जीवाश्म संग्रहण क्षेत्र है। मंडला में पाये गये जीवाश्मों के संबंध में सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य है यहाँ के देवरी खुर्द तथा बरबसपुर में पाये गये वृक्षों के जीवाश्म ही ऐसे हैं जिनके जड़ व तने यथावत खड़ी अवस्था में हैं करोडों वर्षों की अश्यीकरण क्रिया के बाद पाषाणों में परिवर्तित हुए ये जीवाश्म पाय कुल वर्ग के पौध-जीवाश्म हैं। घुघवा तथा उमरिया में मिलने वाले जीवाश्म द्विदलीय बीज वाले पौध जीवाश्म हैं। ये पौध जीवाश्म समुद्र के खारे जल के तटीय पौधों के जीवाश्म हैं। यहाँ शंखीय जीवाश्म भी बहुतायत मे मिले हैं। इस प्राकृतिक संरचना के आधार पर जीवाश्म विदों का मत है कि जीवाश्म के रूप में प्राप्त पादप प्रजातियाँ वर्तमान में इस क्षेत्र में नहीं हैं। यह प्रकृति वर्तमान में भारत की पश्चिमी घाट पर्वत श्रेणियों तथा उत्तर पूर्वीय असम क्षेत्र में है। ताड़ एवं नारियल के प्राप्त जीवाश्म यह स्पष्ट करते हैं कि प्रागैतिहास काल में यह क्षेत्र भूमध्य रेखा के निकट रहा होगा तथा उस समय यहाँ की जलवायु उष्णकटिबंधीय रही होगी। वैज्ञानिकों का यह मत है कि ‘पेलियोसीन-इयोसीन’ काल में लगभग छह करोड़ वर्ष पहले मंडला जिले के ये क्षेत्र समुद्र तटीय थे। बीरबल साहनी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्राचीन भारतीय प्रायद्वीप के मानचित्र में यह दर्शित है कि करोड़ों वर्ष पूर्व अरब सागर का एक सकरा भाग इस भू-भाग में लहराता था जिसे आज हम नर्मदा घाटी कहते हैं। समुद्र तटीय वनस्पतियाँ, गट्टीफेरी लारेसी, हैफिनी आदि के जीवाश्म इस तथ्य की प्राकृतिक पुष्टि भी करते हैं।

इतिहास के शिलालेख

प्रकृति की संरचना के परिवर्तित प्रागैतिहास की अनुपम, दुर्लभ तथा करोड़ों-करोड़ों वर्षों के काल क्रम को अपनी परतों में लपेटे ये जीवाश्म प्रकृति निर्मित प्राकृतिक इतिहास के शिलालेख हैं। बहुत-कुछ जानकर और कुछ जानने की मानवीय जिज्ञासु प्रवृत्ति इस प्रकृति प्रदत्त प्रकृति-विज्ञान के अध्ययन से प्रकृति के भौगोलिक विकास क्रम को समझने में अपनी महत्पूर्ण भूमिका निबाह सकते हैं। प्रकृति की यह विज्ञानशाला दुर्लभ है। जो आज भी करोड़ों वर्ष पुराने प्रकृति के स्वरूप को मूक भाषा में ‘जीवाश्म’ के रूप में हमारे सामने ला रही है।

जीवाश्म प्रकृति की उस असामान्य प्रक्रिया की देन है जो सामान्य क्षयन क्रिया में आंशिक रोक से शुरू होती है। जब कोई पौधा या उसका कोई भाग जल या मिट्टी में दब जाता है तब ऑक्सीजन की कमी से विघटन प्रक्रिया मंद हो जाती है और क्रमशः क्षयन से रिक्त स्थान में खनिज पदार्थों का घोल रिसने लगता है और इस प्रकार इन कोशिकाओं के जैव पदार्थों का स्थान बाहर से प्रविष्ट खनिज पदार्थ लेकर प्रतिस्थापन पद्धति द्वारा फॉसिल्स का निर्माण करते हैं।

मंडला जिले के प्रमुख संरक्षित फॉसिल्स उद्यान, राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान के रूप में सन् ८३ में घुघवा में स्थापित किया गया। यह उद्यान करीब अड़सठ एकड़ क्षेत्र में विस्तारित है। इस उद्यान में घुघवा के अतिरिक्त अन्य जीवाश्म क्षेत्र उमरिया, सिलगेद, देवरीखुर्द तथा बरबसपुर के जीवाश्म क्षेत्र भी संरक्षित स्थल के रूप में विकसित किये गये हैं। इसके अलावा भी वे क्षेत्र जहाँ जीवाश्म क्षेत्र हैं जिनमें पालासुंदर, सिलठार, नैनपुर, किकराझिर, सगोनिया प्रमुख हैं, शासन द्वारा संरक्षित घोषित किये गये हैं।

राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान घुघवा मंडला शहपुरा मार्ग पर मंडला जिला मुख्यालय से सत्तर कि.मी. दूर है। इसी प्रकार शंख जीवाश्म क्षेत्र, पालासुंदर (चिरईडोगरी) मंडला-नैनपुर मार्ग पर मंडला से तीस कि.मी. दूर है। सिलठार शहपुरा से तीस कि.मी. दूर है, यहाँ ‘जीवाश्म’ अपनी प्रकृति अवस्था में बहुतायत मात्रा में हैं। यहाँ के पत्र चित्रांकित जीवाश्म उल्लेखनीय हैं। घुघवा संरक्षिता जीवाश्म प्रक्षेत्र में पाये गये जीवाश्म तना जीवाश्म, पत्ती जीवाश्म तथा बीज जीवाश्म विविधता तथा उपलब्धता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ ‘जीवाश्म पार्क’ है। यहाँ तनों का विशाल-जीवाश्म प्रकृतिगत अवस्था में दर्शनीय है।

मंडला जिले में पाये गये जीवाश्म सत्तर वें दशक में प्रकाश में आये। यहाँ मिले पादप श्रेणी के जीवाश्म का परीक्षक केंद्रीय पुरावनस्पतिक वैज्ञानिक संस्थान में किया गया। वे पादप श्रेणी के जीवाश्म एनानेसी, मिरटेसी, रूटेसी, पामेसी, कुल के पादप फॉसिल्स थे। वर्तमान समय में ये अशोक (एनोनेसी) जामुन (मिरटेसी) समुद्रफल (मिटरेसी) नारियल (पंपेसी) जातियों के हैं।

समुद्र होने की संभावना

यह पाया गया फॉसिल्स यूकेल्पिट्स का था। यह सर्वप्रथम मंडला में ही प्राप्त हुआ। इस फॉसिल्स की खोज प्रसिद्ध पुरावैज्ञानिक डॉ. धर्मेंद्र ने की। पुराविदों ने नई प्रजाति के रूप में इसका नामकरण उनके ही नाम पर ‘यूकेल्पिट्स धर्मेंद्री’ रखा। इस पौध जीवाश्म के संबंध में हुए गहन अध्ययन ने यह स्पष्ट किया कि यह भारतीय मूल के पौधों में नहीं है। इसे मंडला में पाया जाना इस धारणा की पुष्टि करता है कि भारत एवं आस्ट्रेलिया करोड़ों वर्ष पूर्व विशाल गोंडवाना महाद्वीप के भाग थे। इसी मत के अनुसार भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप के पास समुद्र का होना जैसी धारणा को भी वे स्थापित करते हैं।
मंडला जिले में पुरातत्व संग्रहालय में जीवाश्म संग्रह में अत्यंत दुर्लभ तने के काष्ठ तिलिकामंद जीवाश्मों का उल्लेखनीय संग्रहण है। इसके अलावा यहाँ प्रदर्शित जीवाश्मों डायनासोर प्रजाति का जीवाश्म, नारियल फल का जीवाश्म तथा जबड़ों का अस्थि जीवाश्म अत्यंत ही दुर्लभ संग्रहण हैं।

मंडला जिले की पुरातात्विक समृद्धि अत्यंत वैभवशाली है। यहाँ मिलने वाले पुरातत्व महत्व के पुरावशेष इस क्षेत्र और काल की प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहर हैं। जिससे इसके गौरवशाली इतिहास का जहाँ साक्षात्कार होता है वहीं यहाँ प्राकृतिक बदलाव के प्रमाणित दस्तावेज के रूप में मिले करोड़ों वर्ष पुराने फॉसिल्स’ अपना वैज्ञानिक महत्व रखते हैं। ये फॉसिल्स हमारे पुरावनस्पति विज्ञान के काल-परिस्थिति विश्लेषण में सिद्ध प्रमाण माने जाते हैं। मंडला के बहुविस्तारित क्षेत्र में फॉसिल्स की प्रमुख उपलब्धता ने इस क्षेत्र को न केवल प्रदेश या देश बल्कि विश्व स्तर पर पुरावनस्पति के अध्येता क्षेत्र के रूप में विशिष्ट महत्व का केंद्र बना दिया है।

अंतर्राष्ट्रीय महत्व

मंडला क्षेत्र में उपलब्ध पुरातन प्राकृतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक दस्तावेजों की विशिष्टता आज अंतर्राष्ट्रीय महत्व की तो है ही साथ ही इसका वैज्ञानिक सत्यापन होने के साथ ही वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए भी इसका अपना विशेष स्थान बन गया है। इस दृष्टि से आज इस बात की जरूरत है कि इसके रखरखाव के प्रति विशेष जागरूकता हो इसके लिए शासन के साथ ही साथ क्षेत्र की जनता को भी अपनी अहं भूमिका अपनानी होगी।

आज अंतर्राष्ट्रीय महत्व के घुघवा ‘फॉसिल्स पार्क’ को शासन ने पुरातात्विक महत्व का विशिष्ट स्थल घोषित करते हुए, संरक्षित पार्क घोषित किया है। किंतु यह उल्लेखनीय तथ्य है कि यह ‘फॉसिल्स पार्क’ रख-रखाव के नाम पर औपचारिकता पूर्ति के कारण पर्यटकों का ध्यानाकर्षण करने में समर्थ नहीं है, इस पार्क में जो कि एशिया महाद्वीप का एकमात्र ‘फॉसिल्स पार्क’ है, बदहाल दशा में है। जबकि शासन इसे इस जिले के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के सहपर्यटन केंद्र के रूप में अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक नक्शे में उभार सकता है। इसके साथ ही फॉसिल्स के अन्य स्थलों जिनमें पालासुंदर शंख जीवाश्म क्षेत्र, किरा क्षेत्र जीवाश्म क्षेत्र, को जो आज पूर्णतया उपेक्षित है को भी पर्यटक क्षेत्र में विकसित किया जा सकता है।

 

 २४ नवंबर २०१४

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