जिस दिन हमने मलूटी की ओर प्रस्थान किया, 
					वह शारदीय नवरात्र की प्रथम पूजा का दिन था। समस्त जड़-चेतन 
					अजीब से अनुराग में पगे मानो- ‘माँ आनंदमयीर आगमने बूझिशे खबर 
					पेलो।’ मेघ मंडित आकाश, धान के गम्हड़ते खेतों का विस्तृत फैलाव 
					एकदम हरा कचोर रंग लिए कैनवास पर मानो कूची फेरता हुआ और उनके 
					बीचों-बीच गुजरती हुई सड़क के किनारे अपनी लंबी-लंबी शाखें हवा 
					में लहराते पेड़ मानो हमारी अगवानी में झुक-झुककर हमारा अभिनादन 
					कर रहे हों।
					
					भागलपुर से दुमका और दुमका से पूरब रामपुर हाट की ओर जाने वाली 
					सड़क-पथ के शालवन, कालिदास की पंक्तियों का स्मरण कराते पहाड़ों 
					की ग्रीवा से लिपटे बादल, सामने जितनी चौड़ी कोलतार की सड़क ऊपर 
					उतना ही चौड़ा खुला आकाश, शेष दोनों ओर के जंगल मेघों की छाया 
					तले घनी कजरारी हरीतिमा के दामन में सिमटा हुआ 
					स्तब्ध-मंत्रमुग्ध।
					
					तो क्या यही है मलूटी? जी हाँ, दुमका रामपुर हाट मार्ग पर 
					सूड़ीचुआ पड़ाव से मात्र चार किलोमीटर आगे पठारी क्षेत्र का यह 
					गाँव मलूटी- जिला दुमका- अंचल शिकारीपाडा। विकार की रोशनी से 
					दूर भारत के किसी अन्य गाँव जैसा ही है। झारखंड राज्य के 
					वैश्विक विरासत संथालपरगणा के शिकारीपाड़ा के पास स्थित मलूटी 
					गाँव की पहचान पूरी दुनिया में है। २०१५ के गणतंत्र दिवस के 
					अवसर पर नयी दिल्ली में आयोजित परेड में मलूटी गाँव की झाँकी 
					प्रस्तुत करने का निर्णय लिया गया है। प्राचीन काल में गुप्त 
					काशी के रूप में जाना जाता था
					
					हँसी की उजली किरण की आंतरिकता के बीच गोपालदास मुखर्जी हमारा 
					स्वागत करते हैं। साथ ही आकाशवाणी भागलपुर के श्री साकेतानंद 
					का कैमरा चंचल हो उठता है। ‘बाज के बदले राज’। प्राप्त 
					ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार गौड़ राज्य के बादशाह अलाउद्दीन 
					हुसैन शाह (सन् १४९३-१५१९) द्वारा दी गयी जमीन पर मलूटी ननकर 
					राज्य (कर मुक्त राज्य) की स्थापना हुई थी। किस्सा यों है कि 
					एक बार उड़ीसा से अपनी राजधानी जाते समय बादशाह ने सैंथिया के 
					निकट मयूराक्षी नदी के किनारे अपना पड़ाव डाला। वहाँ से उसकी 
					बेगम का एक पालतू बाज उड़ गया। संयोग से एक गरीब चरवाहे वसंत 
					राय ने उसे पकड़ लिया और फिर पता चलने पर बेगम को वापस कर दिया। 
					बस, वसंत राय के भाग्य खुल गये। उपहारस्वरूप बादशाह ने वसंत 
					राय को ३६ मौजे जमीन देकर जमींदार बना दिया। इतना ही नहीं 
					बल्कि उस जमीन को कर-मुक्त (नन कर) कर दिया। इसी से मलूटी 
					राज्य की स्थापना हुई। 
					तभी से ‘बाज के बदले राज’ की उक्ति चल पड़ी। 
					वसंत राय के वंशजों में से एक राजा राखार चंद्र हुए। उन्होंने 
					व उनके भाइयों तथा पुत्रों ने मलूटी में इन मंदिरों का निर्माण 
					कराया। बाद में उनके बीच मलूटी राज्य तीन भागों में बँटा। वे 
					भाग ‘राजार बाड़ी’, ‘माध्यम बाड़ी’ और ‘छय तरफ’ कहलाये। मलूटी के 
					सारे मंदिर इन्हीं तीन स्थानों में स्थित हैं, जो समय-समय पर 
					राजाओं द्वारा अपनी कुलवधुओं के नाम पर निर्मित किये गये। 
					अधिकांश मंदिरों के सामने के भाग के ऊपरी हिस्से में प्रोटो 
					बँगला अक्षरों से संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में प्रतिष्ठाता 
					का नाम व स्थापना तिथि अंकित है। इससे पता चलता है कि इन 
					मंदिरों की निर्माण अवधि सन् १७२० से १८४५ के भीतर रही है। 
					इनकी ऊँचाई कम से कम १५ फुट तथा अधिकतम ६० फुट तक की है। हर 
					जगह करीब बीस-बीस मंदिरों का समूह है। हर समूह के मंदिरों की 
					अपनी ही शैली और सजावट है। स्थापत्य के आधार पर विशेषज्ञों ने 
					मलूटी के मंदिरों को चार श्रेणियों में बाँटा है-
					
					पहली श्रेणी के मंदिर शिखर युक्त हैं। इनमें अधिकांश के 
					पार्श्व भाग में सुंदर सुस्पष्ट और मनभावन नक्काशियाँ उत्कीर्ण 
					हैं। मुख्य पैनल में ज्यादातर राम-रावण युद्ध के दृश्य अंकित 
					हैं। एक मंदिर में महिषासुरमर्दिनी का दृश्य है। इसके अलावा 
					मंदिरों में रामलीला विषयक चित्र यथा- रामवनगमन, जटायु वध, 
					मारीच वध, सीताहरण तथा कृष्णलीला के माखन चोरी वस्त्रहरण, 
					वकासुरवध आदि के दृश्य चित्रित हैं। मुख्य हिस्से के ऊपरी भाग 
					में कहीं दशावतार व दश महाविद्या अंकित हैं, तो निचले हिस्से 
					में विभिन्न सामाजिक क्रिया-कलापों के दृश्य। यहाँ उड़ीसा के 
					जगन्नाथ मंदिर की शैली से मिलता-जुलता एक आवभगत की निश्छल 
					औपचारिकता के बीच हम निकलते हैं इतिहास के पन्नों का यह 
					उपेक्षित अध्याय देखने। आगे-आगे मुखर्जी दा, साकेतानंदजी, मानस 
					तथा मैं, हमारे साथ-साथ अन्य स्नेही ग्रामीण जन। जब हम 
					भव्य-भग्न मंदिरों के समूह से होकर गुजरते हैं, तो यह जानकर 
					आश्चर्य होता है कि हजार परिवारों के इस गाँव में कभी १०८ 
					मंदिर थे। आज तो ७४ मंदिर ही शेष हैं और वह भी अपनी भग्नप्राय 
					स्थिति में भी अपनी नफासत और पुरातात्विक गरिमा को उजागर करते 
					हुए। शायद, इंतजार में कि कोई पूछनेवाला आये तो वे कह सकें कि 
					‘मैं भी मुँह में जुबान रखता हूँ, काश पूछो कि मुद्दा क्या 
					है?’
					
					बताते हैं कि ७४ मंदिरों में ५९ मंदिर सिर्फ शिव के हैं, शेष 
					काली दुर्गा, धर्मराज और ग्रामदेवी मौलीक्षा के। "इतने सारे 
					शिव मंदिर एकसाथ? क्या इसीलिए यह गुप्त काशी है? वैसे, इतने 
					शिव मंदिर तो काशी में भी नहीं हैं। जवाब मिलता है कि काशी के 
					सुमेरूमठ के अध्यक्ष दंडीस्वामी मलूटी के राजाओं के कुलगुरू 
					हैं। दंडीस्वामी की शिष्य परंपरा के अद्वैतवादी संन्यासी 
					प्रतिवर्ष अपना कुछ समय मलूटी में व्यतीत करते हैं।
					मंदिरों की दीवारों व मुख्य द्वारों पर सज्जित टेराकोटा 
					की उत्कृष्ट कलाकृतियाँ स्वतः ही बनवाने वाले तथा बनाने वाले 
					दोनों के कलाप्रेम को व्यक्त करती हैं। विभिन्न पैनलों में जड़ी 
					बारीक कलाकृतियाँ पकी हुई लाल मिट्टी और प्रस्तर पर उत्कीर्ण 
					हैं। इनकी सजीवता तो दूर ही से बोलती है।
					
					बाज के बदले राज- इन मंदिरों पर 
					चर्चा करने से पहले हम उस लोकोक्ति को दुहराना चाहेंगे जो 
					अभी-अभी मुखर्जी दा बोल गये हैं, जिसे दुहराए बिना मलूटी का 
					इतिहास नहीं समझा जा सकता, दूसरी 
					श्रेणी में काली दुर्गा एवं विष्णु के मंदिर हैं, जो सामान्यतः 
					समतल छतवाले मंदिर हैं। दुर्गा मंदिर के सम्मुख भाग में 
					चित्रित शेर, अप्सराएँ, मानव आकृतियाँ व ब्रिटिश झंडा भी है, 
					जो तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव को दर्शाता है।
					तीसरी श्रेणी में, जो गाँव के दक्षिण की ओर स्थित मंदिर 
					समूह हैं, उसमें बंगाल की एक बँगला शैली का ग्रामदेवी महादेवी 
					मौलीक्षा का मंदिर है। यह देवी जागृत देवी मानी जाती है। साधना 
					मार्ग के पंथकों द्वारा मौलीक्षा की माँ तारा (तारापीठ) की बड़ी 
					बहन के रूप में साधना की जाती है। इनकी पूजा सर्वप्रथम और 
					अनिवार्य रूप से की जाती है। इसी क्रम में यह बताना अत्यंत 
					समीचीन होगा कि तारापीठ के महान तांत्रिक साधक बामाखेपा की 
					प्रथम साधना-स्थली यहीं थी। आज भी उनके पूर्व निवास के आँगन 
					में उनका छोटा-सा मंदिर है और उनका अपना त्रिशूल भी गड़ा हुआ 
					है। कहते हैं माँ आनंदमयी को भी माँ तारा की ओर से स्वप्न में 
					मलूटी आने का निर्देश मिला था जिससे वे मौलीक्षा माँ के सम्मुख 
					साधना की प्रारंभिक अवस्था संपन्न कर सकें।
					चौथी श्रेणी में रासमंच का मंदिर है। रासमंच पर आमतौर 
					पर राधाकृष्ण की मूर्तियाँ हुआ करती हैं, लेकिन यहाँ काली की 
					मूर्ति स्थापित है। इन मंदिरों की विशेषता ही इनका खुला होना 
					है, ताकि भक्तगण हर दिशा से लाभान्वित हो सकें।
					
					 इन 
					मंदिरों के मुख्य भाग पर उत्कीर्ण आलंकरण कभी-कभी लकड़ी के 
					टुकड़े पर भी नक्काशी होने का भ्रम देते हैं। इन प्रस्तर खंडफलक 
					को पुरातत्ववेत्ताओं ने पहले टेराकोटा कहा था। बाद में 
					भूगर्भ-शास्त्रियों ने इसे एक प्रकार का पत्थर बताया। इन मंदिर 
					समूहों के बीच तीन मंदिरों का एक ऐसा ही समूह है, जिसके तीन 
					शिखर मंदिर, मस्जिद और गिरजे की शिखर आकृति को प्रतिबिंबित 
					करते हैं। हरे-भरे वृक्षों के बीच पवित्र द्वारिका नदी के 
					किनारे स्थित मलूटी के ये मंदिर मध्यकालीन स्थापताय-कला के 
					अनूठे नमूने हैं जिनकी दीवारों पर टेराकोटा की कलाकृतियाँ मानो 
					सजीव हो उठी हैं। यही कारण है कि ये मंदिर न सिर्फ शिव भक्तों 
					को, वरन् पर्यटकों, पुरा विशेषज्ञों और इतिहास प्रेमियों को भी 
					अपनी ओर आकर्षित करते हैं। जीर्ण-शीर्ण हालत में होते हुए भी 
					आज भी गजब की सुंदरता झांकती है इन मंदिरों से। इन मंदिरों का 
					निर्माण बंगाल की सुप्रसिद्ध 'चाला' रीति से किया गया है।
इन 
					मंदिरों के मुख्य भाग पर उत्कीर्ण आलंकरण कभी-कभी लकड़ी के 
					टुकड़े पर भी नक्काशी होने का भ्रम देते हैं। इन प्रस्तर खंडफलक 
					को पुरातत्ववेत्ताओं ने पहले टेराकोटा कहा था। बाद में 
					भूगर्भ-शास्त्रियों ने इसे एक प्रकार का पत्थर बताया। इन मंदिर 
					समूहों के बीच तीन मंदिरों का एक ऐसा ही समूह है, जिसके तीन 
					शिखर मंदिर, मस्जिद और गिरजे की शिखर आकृति को प्रतिबिंबित 
					करते हैं। हरे-भरे वृक्षों के बीच पवित्र द्वारिका नदी के 
					किनारे स्थित मलूटी के ये मंदिर मध्यकालीन स्थापताय-कला के 
					अनूठे नमूने हैं जिनकी दीवारों पर टेराकोटा की कलाकृतियाँ मानो 
					सजीव हो उठी हैं। यही कारण है कि ये मंदिर न सिर्फ शिव भक्तों 
					को, वरन् पर्यटकों, पुरा विशेषज्ञों और इतिहास प्रेमियों को भी 
					अपनी ओर आकर्षित करते हैं। जीर्ण-शीर्ण हालत में होते हुए भी 
					आज भी गजब की सुंदरता झांकती है इन मंदिरों से। इन मंदिरों का 
					निर्माण बंगाल की सुप्रसिद्ध 'चाला' रीति से किया गया है। 
					
					मलूटी के राजाओं का अंत हो जाने के बाद ये मंदिर उपेक्षित होते 
					चले गये। एक छोटे से गाँव में इतने सारे मंदिरों की देखभाल 
					करनेवाला कोई नहीं रहा। सेना के रिटायर्ड अफसर गोपालदास 
					मुखर्जी एक ऐसे आदमी हैं जो काफी चिंतित और सजग दिखाई देते हैं 
					इन मंदिरों के प्रति। सेना से रिटायर्ड होने के बाद से वे 
					समर्पित भाव से लगे हैं इन मंदिरों की सेवा में।