लद्दाख! देश के ऊपरी छोर पर स्थित और भिन्न
जलवायु वाला लद्दाख पर्यटकों को बिलकुल अलग तरह का सुख और आनंद
देता है। यहाँ के लोगों की भाषा, संस्कृति और पहनावा भी
पर्यटकों में विशेष आकर्षण पैदा करता है। लेह पहँचने पर
पर्यटकों के कानों में बौद्ध प्रार्थना के मंत्र स्वर ‘ओम मणि
पद्मे हम’ उनका ध्यान बरबस प्रकृति की अप्रतिम सुंदरता से
अध्यात्म की ओर मोड़ते हैं। बौद्धधर्म के सबसे ज्यादा मठ लद्दाख
में ही हैं इसलिए इसे बौद्धमठों की नगरी कहा जाता है, जिनकी
छाप यहाँ के लोगों के जीवन के हर क्षेत्र में मिलती है।
शाही महलों के आसपास स्थित और ११वीं से लेकर १८वीं शताब्दी के
मध्य बने मठ जहाँ समृद्धि और संपत्ति के प्रतीक हैं वहीं ये आज
भी धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण
केंद्र बने हैं। पहाड़ों की चोटी में स्थापित मठों का उद्देश्य
हालाँकि मठों को युद्ध से अलग रखने का था, पर इन मठों से यह भी
निगरानी की जाती थी कि कहीं शत्रु क्षेत्र में हमला करने तो
नहीं आ रहा है। मठों की कला अंकित कलाकृतियाँ, उनके आकार और
साज-सज्जा पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण पैदा करती है।
अधिकांश मठ छह से सात मंजिल की ऊँचाई के हैं। इनकी छोटी-छोटी
खिड़कियाँ बेहद सुंदर लगती हैं। मठों के भीतर छोटे और बड़े कक्ष
प्रकोष्ठ हैं जहाँ प्रार्थना, योग और ध्यान किया जाता है। लामा
के लिए दुखंग और लखंग मुख्य कक्ष होते हैं। सभी उम्र के लामा
यहाँ एक साथ बैठकर प्रार्थना करते हैं। इन कक्षों से मध्य भाग
तक जाया जा सकता है। यहाँ मुख्य धार्मिक समारोह आयोजित किये
जाते हैं। शेय, थिकसे, हेमिस, लामायुरू, आलूची, शांति, शंकर,
स्तकन तथा माठो अन्य ऐसे ही दर्शनीय मठ हैं, जो बौद्धधर्म की
आस्थाओं, मान्यताओं और संस्कृति का परिचय कराकर ‘वसुधैव
कुटुम्बकम’ के संदेश को प्रतिपादित कर रहे हैं।
शेय गोम्पा
लेह से १२ कि.मी. की दूरी पर शेय नामक स्थान पर शेय मठ
या शेय गोम्पा स्थापित
है। कहा जाता है कि १६३३ में राजा डेल्डन नामग्याल ने इसकी
नींव रखी थी। उनके पिता संजय नामग्याल के सम्मान में इसे
‘लाछेन पाल्जीगों’ के नाम से भी जाना जाता है।
हालाँकि वर्तमान में यह जर्जर हालत में है, पर पहले ‘शेय’ को
लद्दाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी माना जाता था। शेय सातवें तिब्बत
गुरु की याद में दस दिन तक चलने वाले कार्यक्रमों का मुख्य
स्थान है। मठ से लगा एक विशाल वृक्ष है,
जिसमें सोने का पानी चढ़ी, ताँबे की भीमकाय बुद्ध प्रतिमा
स्थापित है। इसे लद्दाख क्षेत्र की दूसरी सबसे बड़ी मूर्ति
माना जाता है। महल के नीचे एक भाग में बुद्ध की एक और प्रतिमा
स्थापित है। शेय का अन्य भाग छोटे मठों (कोरटन) से घिरा हुआ है।
हेमिस गोम्पा
जम्मू
कश्मीर में लेह के दक्षिण-पूर्व दिशा में शहर से ४५ कि.मी. की
दूरी पर, हेमिस मठ स्थित है। इसे लद्दाख के सुंदर मठों के रूप
में जाना जाता है। मठ में दो-द्वार हैं, जहाँ से मध्य भाग तक
पहुँचा जा सकता है। छठे तिब्बती गुरु की याद में चलने वाले
कार्यक्रम के १० वें दिन ‘मास्क नृत्य समारोह’ इसी मठ में
आयोजित किया जाता है। इस मठ का निर्माण १६३० ई. में
स्टेग्संग रास्पा नंवाग ग्यात्सो ने करवाया था। १९७२ में
राजा सेंज नामपार ग्वालवा ने मठ का पुर्ननिर्माण करवाया। यह धार्मिक विद्यालय धर्म की शिक्षा को बढ़ावा देने
के उद्देश्य स्थापित किया गया था। तिब्बती स्थापत्य शैली
में बना यह मठ बौद्ध जीवन और संस्कृति को प्रदर्शित करता है।
मठ के हर कोने-कोने में कुछ न कुछ विशिष्ट है और कई तीर्थ भी
हैं लेकिन पूरे मठ का आकर्षण बिंदु ताँबे की धातु में ढली
भगवान बुद्ध की प्रतिमा है। मठ की दीवारों पर लगी हुई
कलाकृतियाँ वर्द्धन भगवान के जीवन को चित्रित करती हैं,
वर्द्धन भगवान बौद्ध धर्म में चारों भागों के ईश्वर माने जाते
हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ जीवन के चक्र को दर्शाते कालचक्र को
भी स्थान मिला है। मठ के दो मुख्य भाग है जिन्हे दुखांग और
शोंगखांग कहा जाता है। वर्तमान में इस मठ की देखरेख द्रुकपा
संप्रदाय लोग किया करते है, यह लोग बौद्ध धर्म के ही अनुयायी
हुआ करते हैं। जून के अंत में या जुलाई के प्रारंभ में यहाँ
भारी सख्ंया में लोग आते हैं और गुरू पद्मसंभव के लिए वार्षिक
उत्सव का आयोजन करते हैं। गुरू पद्मसंभव तिब्बती बौद्ध धर्म
के परिचित व्यक्ति हैं।
स्पीतुक गोम्पा
लेह हवाई-अड्डे से कुछ ही दूरी पर है, स्पीतुक मठ।
इस मठ का निर्माण ११ वीं शताब्दी में ओद डी द्वारा करवाया गया
था। यह बौद्धों के साथ हिन्दुओं व सिखों की आस्था का भी
केंद्र है। इस मठ के ऊपरी भाग में भगवती तारा का मंदिर है।
मूर्ति सालभर कपड़े से ढँकी रहती है। सिर्फ जनवरी में दो दिन
आवरण हटता है।
माना जाता है कि तारा की
आराधना भगवान बुद्ध करते थे। हिन्दुओं के लिए सिद्धपीठ काली
का मंदिर है। लद्दाखी जनता के लिए यह देवी पालदन लामो है। यहाँ
विभिन्न आकार-प्रकार वाले मठों की शृंखलाएँ हैं। स्पीतुक मठ
दलाईलामा के लिए विशेष रूप से आरक्षित किया गया है। यहाँ आने
पर वह इसी मठ में ठहरते हैं। पर्यटक यहाँ वज्र-भैरव की एक
विशाल मूर्ति भी देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त ११ सिर वाली
अवलोकतेश्वर तथा बुद्ध की एक सुंदर प्रतिमा भी यहाँ स्थापित
है। यहाँ एक काली माँ का मंदिर भी है। कुछ हिंदू यहाँ मंदिर के
आकर्षण से आते हैं।
थिकसे गोम्पा
लेह
से २५ कि.मी. की दूरी पर है अत्यंत सुंदर थिकसे मठ। थिकसे मठ
के ऊपर से देखने पर सिंधु घाटी के सुंदर नजारे को देखा जा सकता
है। इसके ऊपरी भाग में गुरु रिनपोच या लामा के लिए स्थान हैं।
दीवारें अत्यंत सुंदर चित्रों और कलाकृतियों से मढ़ी हैं। लखंग
और दुखंग का भी अन्य बौद्ध गुरुओं-जैसे बोद्धिसत्व, मैत्रेय,
अवलोकेत्श्वर की तरह स्थान है। स्थानीय भाषा में थिकसे का अर्थ
है पीला। यह गोम्फा पीले रंग का होने के कारण थिकसे गोम्पा
कहलाता है। १२ हज़ार फीट पर पहाड़ी के ऊपर बनी हुई यह गोम्फा
तिब्बती वास्तुकला का सुंदर उदाहरण है। इस मठ को १५ वीं शती
में शेर्ब जंगपो के भतीजे पल्दन शेराब ने बनवाया था। १२
मंजिलों वाले इस मठ में कई भवन, मंदिर और भगवान बुद्ध की
मूर्तियाँ है। प्रमुख मन्दिर में बुद्ध की १५ मीटर ऊँची काँसे
की मूर्ति को हर मंजिल से देखा जा सकता है। दीवारों पर बनी
कलाकारी अद्भुत है और बुद्ध भगवान के मुकुट की चित्रकला अनूठी!
यह मठ लगभग १० छोटे बौद्ध मठों की देखभाल करता है।१७वीं और
१८वीं शताब्दी के १२वें तिब्बती गुरु की स्मृति में कार्यक्रम
इसी मठ में आयोजित होते हैं। इसके पास ही शेय गोम्पा व माथो
गोम्पा है।
शांति स्तूप
लेह
के चंग्स्पा के कृषि उपनगर के ऊपर, लेह से ५ किलोमीटर की दूरी
पर, लेह पैलेस के पास स्थित, शांति मठ सबसे अलग किस्म का मठ
है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसका निर्माण १९८३ में परमपावन
दलाई लामा के आदेश पर शांति संप्रदाय के जापानी बौद्धों ने
कराया था। दलाई लामा ने आदेश देते हुए कहा था कि ऐसा करने से
भगवान बुद्ध के सिद्धांतों को जन साधारण तक आसानी से पहुँचाया
जा सकता है। इस स्तूप का निर्माण १९९१ में पूरा हुआ और इसका
उद्घाटन १४ वें दलाई लामा तेनजिंग ग्यात्सो ने किया था। इस
स्थान तक जीप और टैक्सियों के माध्यम से पहुँचा जा सकता है।
सफेद रंग के पत्थर से निर्मित यह मठ अत्यंत मोहक है तथा
रंग-बिरंगी कलाकृतियों व संदेशों से ओतप्रोत, शांति, सद्भाव और
मित्रता की शिक्षा देता है।
शंकर गोम्पा
लेह मे लघु श्रेणी के कई मठ हैं। उनमें शंकर लेह बाजार में
स्थित है। यहाँ आसानी से पैदल जाया जा सकता है। यह २०० वर्ष से
अधिक पुराना है। इसकी चित्रकारी अद्भुत है। शंकर गोम्पा को शंकर मठ
के नाम से भी जाना जाता है। यह, लेह से तीन किमी की दूरी पर
स्थित है, और यहाँ तक पैदल चल कर पहुँचा जा सकता है। गोम्पा के
अन्दर एवालोकितेश्वर, एक बोधिसत्व या आत्मज्ञानी जीव की एक
प्रतिमा रखी गई है, जो समस्त बौद्धों की करुणा का प्रतीक है।
इस प्रतिमा के ग्यारह सिर, एक हजार हाथ और प्रत्येक हाथ की
हथेली पर आँखें है। प्राचीन वास्तुकला शैली में बनाए गए, चारों
दिशाओं के संरक्षक के ये चित्र, प्रवेश द्वार पर रखे गए हैं।
मठ
के दर्शन का समय सीमित है, जल्दी सुबह (भोर में) और शाम को,
क्योंकि यह सिर्फ २० बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा प्रबंधित किया
जाता है, जो यहीं रहते हैं। ड्यू-खांग, को मठ में असेंबली हॉल
के रूप में जाना जाता है, जिस तक एक सीढ़ी के माध्यम से पहुँचा
जा सकता है जो सीधे दो दरवाजों के माध्यम से इसमें खुलती हैं।
इस जगह की दीवारों और दरवाजों को, मंडलों, बौद्ध भिक्षुओं के
लिय तय नियम कानून और तिब्बतन कैलेंडर से पूरी भव्यता के साथ
चित्रित किया गया है। ऐसा माना गया है कि मठ पहले स्पितुक के
मठाधीश का निवास स्थान था, ऊपर स्थित उनका कमरा, अतिथि कक्ष और
पुस्तकालय भी देखा जा सकता है।
स्तकन,
लामायुरु, माथो और आलची मठ
इसके
अतिरिक्त यहाँ उपरोक्त चार मठ भी दर्शनीय हैं। स्तकन और माथो के मठ
पहाड़ी भाग में हैं। माथो मठ को वार्षिक नग-रंग समारोह के कारण
जाना जाता है। माथो मठ, सिंधु नदी की घाटी में, शहर से १६ किमी की दूरी
पर स्थित है। इसका इतिहास ५०० साल पुराना है, इसे 'सक्या मठ
प्रतिष्ठान, लद्दाख के द्वारा प्रबंधित किया जाता है। इस मठ का
निर्माण १६वीं शताब्दी में 'लामा दुग्पा दोर्जे, के द्वारा
किया गया था।
लेह से दो कि.मी. की दूरी पर है, लामायुरु मठ। हालाँकि इस मठ
की दीवारों की अभी हाल में पेंटिग की गयी है, पर अद्भुत शैली
की कलाकृतियाँ और चित्रकारी पर्यटकों को बेहद आकर्षित करती है।
सस्पोल से पुल पार करते ही मिलती है आलची की सुंदर घाटियाँ
जहाँ स्थित है आलची मठ। इस मठ का रंग रोगन और चित्रकारी दुर्लभ
तथा अनोखी है। इनकी दुबारा पुताई नहीं की गयी है, फिर भी
चित्र आज के से लगते हैं। मठ की दीवारों में विभिन्न प्रकार के
मांडाला चित्र भी चित्रांकित किये गये हैं, जो बेहद मनमोहक
हैं।