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नालंदा, बख्तियार खिलजी और आज हमारी शिक्षा व्यवस्था के दायरे
राजीव रंजन प्रसाद
नालंदा में एक बहुत उँची सी
दीवाल के सामने खड़ा मैं उस भयावह दृश्य की कल्पना कर रहा था जब
तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी ने सन ११९९ ई. में इस
विश्वविद्यालय को आग के हवाले कर दिया होगा। कई दीवारों पर आग
से जलने के चिह्न मौजूद हैं जो एक सिरफिरे आक्रांता का जुनून
पूरी चीत्कार के साथ कह रहे हैं। आँख बंद कर के महसूस करता हूँ
कि कैसा उत्कृष्ट युग रहा होगा वह जब लगभग दस हजार विद्यार्थी
यहाँ अध्ययनरत रहा करते होंगे और प्रत्येक सात विद्यार्थी पर
एक शिक्षक भी। एक आक्रांता जिसे धन चाहिये था वह सोने की
चिडिया को चाहे जितना नोंच खुरच लेता उसे विश्वविद्यालय से ऐसा
क्या विद्वेष था?
एक किंवदंती है खिलजी बहुत बीमार पड़ गया था और जब उसके निजी
हकीमों से कुछ न हुआ तो किसी ने सलाह दी नालंदा विश्वविद्यालय
के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख राहुल शीलभद्र को बुला कर उनसे
इलाज कराने की। कहते हैं कि खिलजी इतना अधिक चिड़चिड़ा,
बददिमाग और कट्टर था कि उसने आयुर्वेदाचार्य के सामने बिना दवा
खिलाये ठीक करने की शर्त रखी। उल्लेख मिलता है कि अपने
चिकित्सकीय पेशे का सम्मान करते हुए आचार्य शीलभद्र ने
आक्रांता को भी बचाना अपना धर्म समझा और गोपनीयता से उस पवित्र
कुरान के पृष्ठों में औषधि का लेप प्रयुक्त किया जिसे खिलजी
स्वयं पढ़ा करता था। पवित्र कुरान के पृष्ठो से उँगली पर लग लग
कर औषधि खिलजी की जिह्वा तक पहुँची और चमत्कारिक रूप से यह
तुर्क आक्रांता ठीक हो गया।
पिशाच के मित्र नहीं होते इस क्रूर तुर्क के भीतर इस ईर्ष्या
ने जन्म लिया कि आखिर एक वैद्य इतना श्रेष्ठ ज्ञान कैसे रख
सकता है? इस साधारण सेनापति एख्तियारूद्दीन मुहम्मद बिन
बख्तियार खिलजी ने तब केवल दो सौ घुड़सवारों के साथ वर्तमान
बिहार क्षेत्र में उदंतपुर पर आक्रमण कर इसके किलों को जीत
लिया। जब नालंदा पर आक्रमण हुआ तब बैद्ध भिक्षुओं ने इस भयानक
शत्रु का सामना नहीं किया।
अहिंसा और शिक्षा का आलोक जगाये यह क्षेत्र सेना की आवश्यकता
क्या समझता? कहते हैं कि सैनिक केवल युद्ध के लिये ही नहीं
होते अपितु थोपे गये युद्ध की स्थिति में रक्षा के लिये भी
होते हैं। बख्तियार खिलजी ने सेना के अभाव में अरक्षित नालंदा
विश्वविद्यालय पर कहर बरपा दिया। हजारों की संख्या में बौद्ध
भिक्षुओं का संहार किया गया। शिक्षक और विद्यार्थियों के लहू
से पूरी धरती को पाट कर भी जब अहसानफरामोश खिलजी को चैन नहीं
मिला तो उसने एक भव्य शिक्षण संस्था में आग लगा दी। उल्लेख
मिलता है कि नालंदा में एक समय तीन बडे पुस्तकालय थे -
'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' । एक पुस्तकालय भवन तो नौ
तलों का हुआ करता था। इतनी पुस्तकों थी जो जब जलाई गयीं तो
उनपर बख्तियार खिलजी की सेना के लिये छ: माह तक भोजन पकता रहा।
कहते हैं कई अध्यापकों और बौद्ध भिक्षुओं ने अपने कपडों में
छुपा कर कई दुर्लभ पाण्डुलिपियों को बचाया तथा उन्हें तिब्बत
की ओर ले गये। कालांतर में इन्हीं ज्ञाननिधियों ने तिब्बत
क्षेत्र को बैद्ध धर्म और ज्ञान के बड़े केन्द्र में परिवर्तित
कर दिया। यद्यपि यह जोड़ना प्रासगिक होगा कि तिब्बत की
स्वायत्तता और अपनी ही तरह की सांस्कृतिक शुद्धता पर चीनी हमला
एक तरह से खिलजी के नालंदा पर आक्रमण के समतुल्य ही कहा जा
सकता है।
तिब्बत की पहचान उसी तरह नष्ट हो रही है जैसे कभी नालंदा को
मिट्टी में मिला दिया गया। महान शोधकर्ता राहुल सांस्कृतियायन
जिस तरह तिब्बत से अनेकों प्राचीन पाण्डुलिपियों की
प्रतिलिपियों को पुन: भारत लाने और उनका अनुवाद कर हमारी पीढी
को सौंपने में सफल हुए उसके लिये उनका हम ऋण संभवत: कभी नहीं
चुका सकेंगे। तिब्बत ने उसी तरह अपनी धरोहरों और ज्ञान की
सुरक्षा के लिये सेना की आवश्यकता नहीं समझी जैसी कि नालंदा या
विक्रमशिला ने और फिर यहाँ का सब कुछ समय ने मिट्टी की परतों
के भीतर छिपा लिया। हमारा सौभाग्य है लगभग विलुप्त हो चुके इस
विश्वविद्यालय के खण्डहरों को अलेक्जेंडर कनिंघम ने तलाश कर
बाहर निकाला।
ह्वेनसांग के लेखों के आधार पर ही इन खण्डहरों की पहचान नालंदा
विश्वविद्यालय के रूप में की गयी थी। सातवीं शताब्दी में भारत
आये ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में न केवल विध्यार्थी रहे
अपितु बाद में उन्होंने एक शिक्षक के रूप में भी यहाँ अपनी
सेवाएँ दी थीं। ह्वेनसांग ही क्यों इस विश्वविद्यालय में चीन,
तिब्बत, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी
विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। यद्यपि नालंदा की
स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (४५०-४७० ई) को
दिया जाता है तथापि लगभग बारहवीं शताब्दी तक नालंदा की
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति रही है।
कुछ बातें प्राचीन शिक्षण से वर्तमान शिक्षा पद्यति की भी करनी
आवश्यक है। ह्वेनसांग विवरण देते हैं कि उन दिनों प्रवेश
परीक्षा विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर ही हो जाया करती थी
जहाँ प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी को द्वारपाल के प्रश्नों
के उत्तर देने होते थे। जिस विश्वविद्यालय का द्वारपाल भी इतना
अधिक विद्वान रहा करता होगा कि उसके विवेक के आधार पर छात्रों
के प्रवेश सुनिश्चित किये जाएँ तो यह यह मान सकते हैं कि भीतर
शिक्षकों के ज्ञान का स्तर कितना विस्तृत रहा होगा! प्रवेश
प्राप्ति के बाद विद्यार्थियों को आचार, विचार और व्यवहार की
शुद्धता के साथ अध्ययन करना अपेक्षित था। आज हमारे एंटरेंस
टेस्ट भी हजारों लोगों को पुलविद्ध्वंसक अभियंता बनाने में लगे
हैं क्योकि शिक्षा और साधना के बीच के अंतर को समाप्त कर हमने
बाजार को द्वारपाल बना दिया है।
कितने लोग जानते हैं कि
प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलविद आर्यभट एक समय में नालंदा
विश्वविद्यालय के कुलपति रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की
जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं - दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र।
उन्होंने आर्यभट्ट सिद्धांत की भी रचना की थी किंतु वर्तमान
में केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इक्कीसवी सदी में हमारे
वैज्ञानिक आर्यभट्ट की तुलना मे कहाँ ठहरते हैं तथा हमारे
विश्वविद्यालय नालंदा की तुलना में किस पायदान पर ठहरते हैं यह
गहरी विवेचना का विषय है। खिलजी ने तो तोड़ा है लेकिन हमने
जोड़ना भी नहीं सीखा, हम भी दोषी हैं।
भारत में ट्यूशन का इतिहास आचार्य द्रोण से प्रारंभ होता है
इसे पहले और इसके बाद भी बहुत समय तक ट्यूशन दिये जाने की
जानकारी शास्त्रों में नहीं मिलती। पैसे से पोषित कोई शिक्षक
ही किसी एकलव्य का अंगूठा माँग सकता है और अपने ही
विद्यार्थियो के खिलाफ शस्त्र संधान कर युद्ध कर सकता है।
प्राचीन शिक्षा पद्यति में शिक्षक और विद्यार्थी का भरण-पोषण
तथा अन्य व्यवस्थाएँ आसपास के गाँव तथा शासन व्यवस्था द्वारा
ही सुनिश्चित की जाती थीं। नालंदा का ही समय लीजिये जब लगभग दो
सौ गाँव आपस में मिल कर यहाँ की अर्थ-व्यवस्था संचालित करते थे
और शिक्षा पूरी तरह मुफ्त में दी जाती थी। शिक्षा भी कोई आम
नहीं अपितु विश्व में श्रेष्ठतम। सात बडे कक्ष और तीन सौ अन्य
अध्यापन कक्षों के विषय में जानकारी मिलती है। केवल
छात्रावासों को ही देखा जाये तो आज की व्यवस्थाएँ भी पानी
भरने लगें, छात्रावास कक्ष में सोने के लिए पत्थर की चौकी,
अध्ययन के लिये प्रकाश व्यवस्था, पुस्तक आदि रखने का स्थान
निर्मित थे। अधिक वरिष्ठता पर अकेला कमरा था।
कनिष्ठता की
स्थिति में एक वरिष्ठ और एक कनिष्ठ छात्र को एक कमरा साथ दिया
जाता था जिससे कि नये विद्यार्थी को मार्गदर्शन मिल सके। हम
सहयोग की अपेक्षा पश्चिम से तलाश कर वहाँ की बीमारी रैगिंग को
अपने शिक्षण संस्थानों में ले आये हैं। जब आरंभ ही अविश्वास और
तनाव के साथ होता है तो विद्यार्थियों मे भविष्य में किसी तरह
के सहयोग और सामंजस्य की कल्पना कैसे की जा सकती है। इसके
अलावा शेष व्यवस्थाएँ सामूहिक थीं जैसे प्रार्थना कक्ष, अध्ययन
कक्ष, स्नान, बागीचे आदि। निरंतर विद्वानों के व्याख्यान चलते
रहते थे तथा विद्यार्थी अपनी शंकाव्के समाधान के लिये तत्पर
अपने अध्यापकों के साथ जुटे रहा करते थे। बौद्ध धर्म से इस
शिक्षण संस्थान के प्रमुखता से जुडे होने के पश्चात भी यहाँ
हिन्दु तथा जैन मतों से संबंधित अध्ययन कराये जाने के संकेत
मिलते हैं। साथ ही साथ वेद, विज्ञान, खगोलशास्त्र, सांख्य,
वास्तुकला, शिल्प, मूर्तिकला, व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या,
ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम में
शामिल थे।
बख्तियार खिलजी मूर्ख था। उसने ताकत के मद में बंगाल पर
अधिकार के बाद तिब्बत और चीन पर अधिकार की कोशिश की किंतु इस
प्रयास में उसकी सेना नष्ट हो गयी और उसे अधमरी हालत में
देवकोट लाया गया था। देवकोट में ही उसके सहायक अलीमर्दान ने
खिलजी ही हत्या कर दी थी। शायद मौत उसके पापों की सही सजा नहीं
है नालंदा की हजारों जलाई गयी पुस्तकों के कारण विलुप्त हुए
ज्ञान का अभिषाप है तुम पर खिलजी, कि तुम्हारी आत्मा को
अश्वत्थामा होना नसीब हो, दोजख में भी चैन न मिले तुम्हें।
दैनिक जागरण की वेबसाईट पर पढा था कि खिलजी की दफन स्थली अब
पीर बाबा की मजार बन गयी है और लोग उससे मन्नत माँगने भी आते
हैं। मन्नत माँगने वालों में बहुतायत हिन्दू भी हैं। प्रकाशित
खबर का शीर्षक था “उपेक्षित है बख्तियार खिलजी की एतिहासिक
मजार”। मैं महसूस कर सकता हूँ इस व्यंग्य को चूंकि यह गंगा
जमुनी संस्कृति शत्रु और मित्र भी नहीं जानती। हर माँगी जा रही
दुआ तुम्हे नश्तर की तरह चुभती ही होगी खिलजी, रही बात मेरी तो
मेरे पास न तो तुम्हारी मजार पर चढाने के लिये चादर है न ही
तुम्हारी कब्र को देखने के लिये पहुचने का व्यर्थ समय। |