सीमांत
गाँव माणा की दुनिया
दीपक नौंगाई ‘अकेला’
देवभूमि
उत्तराखंड स्थित पावन धाम श्री बद्रीनाथ व केदारनाथ तीर्थस्थल
होने के कारण पूरे विश्व में जाने जाते हैं। हिन्दू संस्कृति
के उपासकों के मन में जब कभी तीर्थटन का भाव उमड़ता है तो वह
सबसे पहले हिमालय से निकलनेवाली पावन गंगा और उसके मध्य स्थित
इन दो पवित्र धामों के दर्शन को दौड़ पड़ता है। कुछ विद्वानों का
मत है कि पांडवों ने अपने अंतिम दिन इसी क्षेत्र में गुज़ारे
थे। महाभारत युद्ध के पश्चात गोत्र वध पाप से मुक्ति के लिए
भगवान शिव के दर्शन हेतु भी पांडव यहाँ आए थे। पांडवों की
परीक्षा के लिए भगवान शिव ने महिष (भैंसे) का रूप धारण किया
परन्तु सत्यनिष्ठा से पूजन करनेवाले पांडवों ने महिष रूप में
भी भगवान शिव को पहचान लिया। पांडवों के छूते ही भगवान का महिष
रूप पाँच भागों में विखंडित हो गया। भगवान शिव के महिष रूप में
खंडित शरीर का भाग जहाँ-जहाँ गिरा वे सभी पंचकेदार तीर्थ रूप
में प्रतिष्ठित हुए।
आकर्षण का
केन्द्र
जोशीमठ से
बद्रीनाथ की ओर चलें तो सब कुछ बदला-बदला नज़र आता है। एक ओर
आसमान छूते पहाड़ हैं तो दूसरी ओर नीचे घाटी में बह रही
अलकनंदा। कई बार पता नहीं अलकनंदा इन गहरी घाटियों में कहाँ खो
जाती है तो दूसरे ही पल वह इतनी नज़दीक बहती नज़र आती है मानो
हाथ बढ़ाकर छू लें। ४४ कि.मी. का यह रास्ता काफ़ी जोखिमभरा है,
पर यह जोखिम ही यात्रियों को यहाँ आने की प्रेरणा देता है।
बद्रीनाथ धाम
से तीन किमी। आगे समुद्र तल से १९,००० फुट की ऊँचाई पर हिमालय
की गोद में बसा है भारत का अंतिम
गाँव – माणा। वैसे तो इस घाटी का कण-कण सौन्दर्य से परिपूर्ण
है परंतु भार-तिब्बत सीमा से लगे इस गाँव की सांस्कृतिक विरासत
तो महत्त्वपूर्ण है ही, यह अपनी अनूठी परम्पराओं के लिए भी
मशहूर है। यहाँ रडंपा जनजाति के लोग निवास करते हैं। जोशीमठ से
१४ किमी आगे नीती घाटी में भी इसी जनजाति के लोग रहते हैं।
नीती व माणा जनजाति के रडंपा निवासी धौली व अलकनंदा नदी के
दाँऐं व बाएँ तटों के सीमित भू-भाग में निवास करते हैं। भोट
प्रदेश (तिब्बत) वाले माणा घाटी वासियों को ‘डूनी रडंपा’ तथा
नीती घाटी वालों को ‘नीरी रडंपा’ से संबोधित करते हैं। ‘रडं’
का अर्थ है ‘घाटी’ और ‘पा’ का अर्थ है ‘बसना’ यानी घाटी में
बसने वाले लोग।
पहले बद्रीनाथ से कुछ ही दूर गुप्त गंगा व अलकनंदा के संगम पर
स्थित इस गाँव के विषय में लोग बहुत कम ही जानते थे परंतु अब
सरकार ने यहाँ तक पक्की सड़क बना दी है। इससे यहाँ पर्यटक
सुगमतापूर्वक आ जाते हैं और इनकी संख्या पहले की तुलना में अब
बढ़ गई है। लेकिन फिर भी जिन पर्यटकों के पास अपना वाहन नहीं
होता, वे यहाँ पैदल चलकर आने का प्रयास कम ही करते हैं। कईयों
को इस गाँव के विषय में पता ही नहीं होता। भारत की उत्तरी सीमा
पर स्थित इस गाँव के आसपास कई दर्शनीय स्थल हैं जिनमें व्यास
गुफा, गणेश गुफा, सरस्वती मन्दिर, भीम पुल, वसुधारा आदि मुख्य
हैं।
कठिन है जीवन
आधुनिकता के इस दौर में भी रडंपा समाज अपने सामाजिक,
सांस्कृतिक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को धरोहर के रूप में
सँजोकर रखने के लिए कृतसंकल्प हैं। भौगोलिक विषमताओं के मध्य
भी इन्हें कोई कष्ट महसूस नहीं होता। ऊँचे-ऊँचे पर्वत
और नीची घाटियाँ इसकी साक्षी है। प्रकृति का मनुष्य जीवन पर
कैसा स्वच्छन्द प्रभाव पड़ता है, यदि यह देखना है तो माणा के
रडंपा समाज के गीतों में यथार्थ रूप में देखा जा सकता है
परन्तु फिर भी कहना होगा कि इनकी ज़िन्दगी बहुत कठिन है। माणा
में गज़ब की सरदी पड़ती है। छह महीने तो यह क्षेत्र हिमाच्छादित
रहता है। पर्वत शृंखलाएँ बिल्कुल नंगी और खुश्क हैं। इसका यह
अर्थ है कि ये चोटियाँ अशिकांश समय बर्फ से ढकी रहती हैं।
जाड़ों में ग्रामवासी नीचे चमोली जनपद के गाँवों में अपना बसेरा
करते हैं। वहाँ शिक्षा का भी प्रबन्ध है। एक इंटर कॉलेज छह
महीने माणा में और छह महीने चमोली में चलाया जाता है।
भले
ही यह ठंडा क्षेत्र हो लेकिन हम माणा की ज़मीन को बंजर नहीं कह
सकते। अप्रैल-मई में जब यहाँ बर्फ पिघलती है, तब यहाँ की भूमि
हरित आवरण में लिपट जाती है। यहाँ की मिट्टी आलू की खेती के
लिए उत्तम है। जौ तथा थापर (इसका आटा बनता है) भी अन्य प्रमुख
फसलों में हैं। भोजपत्र भी यहाँ पाए जाते हैं, जिन पर हमारे
महापुरुषों ने अपने ग्रंथों की रचना की थी। बद्रीनाथ में तो ये
बिकते भी हैं। खेत जोतने के लिए ये पशु-पालन करते हैं। पहले
भेड़-बकरियाँ कफी संख्या में पाली जाती थीं पर्ंतु जाड़ों में
उन्हें निचले क्षेत्रों में ले जानेवाली परेशानी को देखते हुए
उनकी संख्या कम हो गई है। खेत की जुताई हो जाने के बाद ये अपने
पशु को चरने के लिए खुला छोड़ देते हैं। हर १५ दिन में जंगलों
में जहाँ वे पशु चर रहे
होते हैं, वहाँ जाकर उन्हें नमक खिला देते हैं। ये जानवर पहाड़
पर उगी घास चरते हैं, यहाँ कुछ गडरिए भी हैं जो रात ऊँची
गुफाओं में बिताते हैं तथा दिन अपनी भेड़ों के साथ गुज़ारते हैं।
जड़ी-बूटियों के लिए भी माणा गाँव प्रसिद्ध है पर्ंतु यहाँ के
बहुत कम लोगों को इसका ज्ञान है। जिन्हें इनका ज्ञान है वे
इन्हें माणा तथा बद्रीनाथ में बेचते हैं। यहाँ मिलनेवाली कुछ
उपयोगी जड़ी-बूटियों में ‘बालछड़ी’ – यह बालों में रूसी खतम करने
व बालों को स्वस्थ रखने में काम आती है। ‘खोया’ --- इसकी
पत्तियों से सब्ज़ी बना कर खाने से पेट साफ हो जाता है. ‘पीपी’
– इसकी जड़ को पानी में उबाल कर पीने से भी पेट साफ हो जाता है।
‘पाखान जड़ी’ – इसको नमक एवं घी के साथ चाय बनाकर पीने से पथरी
का इलाज किया जाता है।
चावल की शराब और गलीचे
माणा गाँव की आबादी चार सौ के करीब है और यहाँ साठ घर हैं।
अधिकाँश घर दो मंजिलें बने हुए हैं और इन्हें बनाने में लकड़ी
का प्रयोग हुआ है। छत पत्थर के पटालों की बनी है। इस तरह के
मकान भूकम्प के झटकों को आसानी से सह लेते हैं। हिमालय का यह
क्षेत्र तो वैसे भी भूकंपीय क्षेत्र है इसलिए यहाँ पक्के लेंटर
के मकान नहीं बनाए जा सकते। ऊपर की मंज़िल में घर के लोग रहते
हैं और नीचे पशुओं को रखा जाता है। शराब के बाद चाय यहाँ के
लोगों का प्रमुख पेय है।
यहाँ चावल से शराब बनाई
जाती है और यह घर-घर में बनती है। बद्रीनाथ धाम के पास शराब का
यह बढ़ता प्रचलन मन को कचोटता है परंतु सरकार ने इन्हें जनजाति
होने के कारण शराब बनाने की छूट दे रखी है। गाँव के मध्य में
एक मंदिर है। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि देवता को भोग लगाने
के लिए यह शराब बनाई जाती है, लेकिन शराब बेची भी जाती है।
जैसा कि बद्रीनाथ में चाय की दुकान चलानेवाला दुकानदार हमें
बताता है कि उसके अनुसार प्रतिमाह हज़ारों की शराब पर्यटकों व
बद्रीनाथ धाम के आसपास रहनेवालों द्वारा खरीदी जाती है।
दिलचस्प बात यह है कि जहाँ शराब बनाने से लेकर उन्हें बोतल में
भरने का कार्य महिलाएँ अपने हाथों से करती हैं, वहीं वे स्वयं
शराब को मुँह तक नहीं लगातीं।
यहाँ के लोगों का मुख्य कार्य गलीचे बनाना भी है। महिलाओं का
योगदान यहाँ भी पुरुषों से अधिक है। उनमें गज़ब का हुनर है और
खाली समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे। शालें, दरियाँ,
कालीन, गुदमे, पहू बनाने में इनका कोई सानी नहीं है। इनके
हस्तशिल्प में प्रकृति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं।
गलीचे बुनने का काम महिलाएँ प्राय: चमोली में करती हैं। यहाँ
आकर इन्हें बेचा जाता है। यात्री इनके बनाए गलीचे पसन्द करते
हैं। जब से यहाँ आनेवाले पर्यटकों की संख्या बढ़ी है, तब से
गलीचों की बिक्री भी बढ़ी है। हालाँकि गलीचे बनानेवाले अपनी
स्थिति से खुश नहीं हैं, उनके अनुसार एक गलीचा बनाने में
कम-से-कम एक माह का समय लगता है और आठ-नौ सौ की लागत आती है,
परंतु खरीदनेवाले उन्हें मात्र १२००-१३०० रुपए ही देते हैं।
मातृ शक्ति का सम्मान
यहाँ की महिलाएँ खेत खलिहान से लेकर घर के सारे कामकाज करती
हैं। वे किसी भी मामले में पुरुषों से कमतर नहीं हैं। एक तरह
से यहाँ की पूरी अर्थव्यवस्था इन महिलाओं के कन्धों पर ही टिकी
है। हालाँकि अभी भी कुछ अन्धविश्वास कायम हैं, पर ज्यों-ज्यों
गाँव में शिक्षा का प्रचार हो रहा है त्यों-त्यों यहाँ की
युवतियाँ दकियानूसी विचारों और रूढ़ियों को तिलाँजलि दे रही
हैं। शिक्षा ग्रहण करने में वे लड़कों से पीछे नहीं हैं जबकि
पहले माता-पिता अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना अच्छा नहीं समझते
थे।
माणा गाँव में संयुक्त परिवार प्रथा कायम है। रडंपा समाज पितृ
सत्तात्मक समाज है जहाँ पिता परिवार का संरक्षक तथा प्रधान
माना जाता है और पिता के नाम पर ही वंश चलता है लेकिन स्त्री
को भी पूरा सम्मान प्राप्त है। परिवार की ज्येष्ठ सदस्या घर की
घरवाली अर्थात ‘घर की रानी’ कहलाती है। पितृ प्रधान समाज होने
पर भी नारी को ऊँचा स्थान प्राप्त है। उत्सव व त्यौहारों में
नारी वर्ग का विशेष स्थान है। नृत्यगान, लोकगीत, मनोरंजन,
हस्तशिल्प के अतिरिक्त विषम परिस्थितियों का सामना करने में
यहाँ की नारियाँ कभी पीछे नहीं हटतीं। कालीन और गलीचे बनाने
हों, शराब बनानी हो, खेत में काम करना हो या फिर जानवरों की
देखरेख करनी हो महिलाएँ ही जुटी नज़र आएँगी। घर के पुरुष भी इन
कामों में मदद करते हैं परंतु महिलाएँ अधिक परिश्रम करती हैं।
आसपास के दर्शनीय स्थल
माणा
गाँव से जुड़े कई ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल हैं। कुछ इन स्थानों का
आकर्षण यह भी है कि पर्यटक यहाँ तक खिंचे चले आते हैं। वस्तुत:
यही है माणा का जादू जिसे सभी ने माना है। यहाँ स्थित दर्शनीय
स्थलों में गणेश गुफा, व्यास गुफा, भीम पुल और वसुधारा का नाम
प्रमुख है। गाँव से कुछ ऊपर चढ़ाई पर चढ़े तो पहले नज़र आती है
गणेश गुफा और उसके बाद व्यास गुफा। व्यास गुफा के बारे में कहा
जाता है कि यहीं पर वेदव्यास ने पुराणों की रचना की तथा वेदों
को चार भागों में बाँटा। व्यास गुफा और गणेश गुफा यहाँ होने से
इस पौराणिक कथा को सिद्ध करते हैं कि महाभारत और पुराणों का
लेखन करते समय व्यासजी ने बोला और गणेशजी ने लिखा। व्यास गुफा,
गणेश गुफा से बड़ी है। गुफा में प्रवेश करते ही नज़र एक छोटी सी
शिला पर पड़ती है। इस शिला पर प्राकृत भाषा में वेदों का अर्थ
लिखा गया है। गुफा के भीतर व्यासजी की संगमरमर से बनी छोटी
परंतु सुंदर प्रतिमा स्थापित है। इसे देखकर एक बारगी लगता है
मानो व्यासजी जीवित अवस्था में अपने भक्तों को आशीर्वाद दे रहे
हों।
यहीं पर हमें एक सज्जन मिलते हैं जो हमें बताते हैं कि माणा
गाँव के लोगों की भाषा प्राकृत एवं ब्राह्मी भाषा का मिला-जुला
रूप है जो कुछ-कुछ थुलीमठ (तिब्बत) के लोगों की भाषा से
मिलती-जुलती है। बद्रीनाथ व थुलीमठ के मध्य में ही स्थित
है माणा गाँव। माणा के निवासी पहले तिब्बत तक व्यापार के लिए
जाते थे परंतु चीन से १९६२ के युद्ध के बाद वहाँ जाने पर
प्रतिबंध लग गया है। एक रास्ता अभी भी यहाँ से बॉर्डर तक जाता
है परंतु उस पर अब सेना का कब्ज़ा है।
समीप ही है भीमपुल। कहते हैं इसी गाँव के सामने देवताओं का
स्वर्ग यानी अलकापुरी है और पांडव इसी मार्ग से होते हुए
अलकापुरी गए थे। कहते हैं कि अब भी कुछ लोग इस स्थान को स्वर्ग
जाने का रास्ता मानकर चुपके से चले जाते हैं। प्राकृतिक
सौन्दर्य के साथ-साथ भीम पुल से एक लोक मान्यता भी जुड़ी हुई
है। जब पांडव इस मार्ग से गुजरे थे। तब वहाँ दो पहाड़ियों के
बीच गहरी खाई थी, जिसे पार करना आसान नहीं था। तब कुंतीपुत्र
भीम ने एक भारी-भरकम चट्टान उठाकर फेंकी और खाई को पाटकर पुल
के रूप में परिवर्तित कर दिया। बगल में स्थानीय लोगों ने भीम
का मंदिर भी बना रखा है।
इसी रास्ते से आगे बढ़े तो पाँच किमी. का पैदल सफर तय कर पर्यटक
पहुँचते हैं वसुधारा। लगभग ४०० फीट ऊँचाई से गिरता इस
जल-प्रपात का पानी मोतियों की बौछार करता हुआ-सा प्रतीत होता
है। ऐसा कहा जाता है कि इस पानी की बूँदें पापियों के तन पर
नहीं पड़तीं। यह झरना इतना ऊँचा है कि पर्वत के मूल से पर्वत
शिखर तक पूरा प्रपात एक नज़र में नहीं देखा जा सकता। अंचभित कर
देनेवाले इस जलप्रपात को देखकर प्रकृति के इस रोमाँचकारी
स्वरूप की छटा के आगे मस्तक बार-बार झुक जाता है। वास्तव में
उत्तराखंड की इन दुर्गम चोटियों से गिरती धाराओं ने मानव को
उसकी साँस्कृतिक अनुभूति देने के साथ-साथ उसके मन में देव
चिंतन की स्वस्थ चेतना जगाकर प्रकृति-प्रेम के उदात्त गुणों का
परिचय दिया है।
नृत्य तथा संगीत के प्रेमी
माणा निवासी नृत्य तथा संगीत के प्रगाढ़ प्रेमी हैं, विशेषकर
महिलाएँ और लड़कियाँ, इनमें बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। शाम होते ही
घाटी में गीत और संगीत के स्वर गूँजने लगते हैं। इनके नृत्यों
का अपना एक विशेष ढंग होता है, जो कुछ-कुछ तिब्बती नृत्य से
मिलता है। प्राय: सभी नृत्य से मिलता है। प्राय: सभी नृत्य
सामूहिक होते हैं और एक ही ताल पर सभी नर्तकों के समान अंग
संचालन दर्शनीय होते हैं। यहाँ के लोकगीत अधिकांशत: प्राकृतिक
सुन्दरता का ही बखान करते हैं।
माणा में ही भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल का बेस भी है। कुछ
समय पहले तक यहाँ के युवकों को सुरक्षा बल में भरती नहीं किया
जाता था परंतु अब इन लोगों को भी सीमा सुरक्षा बल में भरती
किया जा रहा है। यहाँ के निवासी भारत सरकार से अत्यंत खुश हैं।
उन्हें तमाम सुविधाएँ दी गई हैं। कोऑपरेटिव सोसायटी से उन्हें
प्रति माह राशन मिलता है। सभी के घरों में बिजली है और सभी को
गैस कनेक्शन दिए गए हैं। माणा गाँव अब विकास की तीव्र गति से
स्पन्दित है।
यहाँ के लोगों को अदालतों के बारे में पता नहीं है, जो भी
झगड़े-फसाद होते हैं, उन्हें ग्राम सभा के अंतर्गत सुलझा लिया
जाता है। जो फैसला प्रधान करता है, वह सभी को मान्य होता है।
इन्हें सीमा पर रहने में डर नहीं लगता। प्राकृतिक हलचल और
मौसमी बदलावों के मध्य भी इनके आत्मबल में कोई कमी नहीं है।
हालाँकि यहाँ की ज़िन्दगी बहुत कठिन है, फिर भी वे यहाँ से जाना
नहीं चाहते। कारण है उनकी अपनी मातृभूमि के लिए प्यार। वे
गर्वपूर्वक कहते हैं कि यह उनकी मातृभूमि है और मातृभूमि को
छोड़कर भला कोई जाता है। ठीक ही तो कहते हैं। यही अटल विश्वास
उनमें जीवन को जीने की ललक पैदा करता है, भारत के इस सीमांत
गाँव माणा में। |