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					 1 अगर तुम न होते ह्वेनसांग
 राजीव रंजन प्रसाद
 
 
                  रिक्शेवाले से नाम ठीक तरह 
					उच्चारित नहीं हो रहा था। उसने कहा, “यहाँ हंसवांग का महल है”।
					मैं मुस्कुरा दिया, मैंने पूछा कि “जानते हो कौन था यह 
					हंसवांग?”
 अब कि मुस्कुराने की बारी रिक्शावाले की थी बोला, “साहब यह तो 
					आप ही जानो, हम तो आपलोगो को जानते हैं। जहाँ बोलते हो घुमा 
					देते हैं।"
 “लेकिन भाई यह महल नहीं है, म्यूज़ियम है” मैंने अपना ज्ञान 
					बघारा।
 “म्यूझिम होगा लेकिन देखने में तो महल ही लगता है”। रिक्शेवाले 
					ने अपनी विवेचना सामने रख दी।
 
                  चीनी सहयोग से 
					निर्मित 
                  वास्तव में चीनी सरकार के सहयोग से 
					निर्मित यह एक भव्य, स्वच्छ तथा सुनियोजित तरीके से निर्मित 
					संग्रहालय है जिसके माध्यम से ह्वेनसांग को याद किया गया है। 
					ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय पहुँच कर मन प्रसन्नता से भर उठा। 
					वह एक यात्री, एक विद्यार्थी, एक शिक्षक और एक इतिहासकार जिसने 
					हमें इतना कुछ दिया कि अकल्पनातीत है उसकी स्मृति को ठीक इसी 
					तरह संरक्षित किये जाने की आवश्यकता थी। इस संग्रहालय के 
					निर्माण का मूल श्रेय नव नालंदा महाविहार के पूर्वनिदेशक श्री 
					जगदीश कश्यप को जाता है जिनकी यह संकल्पना थी। लेकिन इस संबंध 
					में भारत के प्रथम प्रधान 
					मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू तथा चीनी राष्ट्रपति चाउ इन लाई के 
					संयुक्त प्रयासों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता जिन्होंने दो 
					राष्ट्रों की परस्पर मैत्री भावना को इस अनुपम सूत्र ह्वेनसांग 
					के माध्यम से आगे बढाया। इस परियोजना पर कार्य तो १९५७ में ही 
					आरंभ हो गया था तथापि मुख्य भवन १९८४ में बन कर तैयार हो सका। 
					वर्ष २००१ में इस निर्मित भवन को नव नालंदा महाविहार को सौंप 
					दिया गया जबकि संग्रहालय का विधिवत उद्घाटन फरवरी २००७ में हुआ 
					था। 
 संग्रहालय का विशाल मुख्यद्वार
 
 संग्रहालय का विशाल मुख्यद्वार पूर्वाभिमुख है तथा काँसे से 
					निर्मित है जो अपने मुख्य भवन से साम्यता रखने के उद्देश्य से 
					उतना ही भव्य बनाया गया है। मुख्यभवन में चीनी संस्कृति और 
					कलात्मकता की झलख दिखाई पड़ती है तथा भवन की छत का नीला रंग 
					आँखो को सुकून पहुँचाता है। चटकीले लाल, स्वर्णिम तथा नीले 
					रंगों के प्रयोग से द्वार तथा मुख्य भवन की दीवारों को 
					सौन्दर्य प्रदान किया गया है; संभवत: यह माना जाता है कि लाल 
					रंग नकारात्मक ताकतों का निवारण करता है, स्वर्णिम रंग का 
					सम्बन्ध शुद्धता तथा समृद्धि से है एवं नीले रंग को अमरत्व की 
					निशानी माना जाता है। मुख्यद्वार से भीतर प्रविष्ट होते ही 
					दाहिनी ओर एक विशाल घंटा एक सफेद कलात्मक खुले भवन के नीचे 
					लगाया गया दृष्टिगोचर होगा जिसपर भगवान बुद्ध उपदेशित कोई 
					सूत्र चीनी भाषा, देवनागरी तथा संस्कृत में अंकित है। 
					मुख्यद्वार से दाहिनी ओर ह्वेनसांग के सम्मान में चौकोर 
					संगमरमर से निर्मित श्वेत स्तम्भ स्थापित 
					किया गया है। ठीक सामने 
					ह्वेनसांग की काले रंग की भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित की गयी 
					है जिस पर लिखा है – “ह्वेनसांग (६०३ ई – ६६४ ई.) दुनिया के 
					विशिष्ट महापुरुषों में से एक थे जिनका महान उद्देश्य मानवजाति 
					का कल्याण और मानव सभ्यता के उद्दात्त मूल्यों की व्याख्या 
					करना था”। मुख्य भवन में प्रवेश से ठीक पहले एक बड़ा सा 
					कलात्मक पात्र रखा हुआ है। सुगंधित पदार्थ जला कर वातावरण को 
					शुद्ध रखने के लिये निर्मित इस काले रंग के पात्र पर चीनी भाषा 
					में कुछ अंकित है।
 
                  भव्य सभागार
 मुख्यभवन के भीतर एक भव्य सभागार है जिसमें सामने की ओर 
					ध्यानस्थ ह्वेनसांग की विशाल प्रतिमा लगाई गयी है जिनके सामने 
					काष्ठ की एक कलात्मक मेज रखी गयी है जिसे फूलों से सजा दिया 
					जाता है। प्रतिमा के ठीक सामने भगवान बुद्ध के चरण चिह्न से 
					अंकित एक पाषाण शिला रखी गयी है। कहते हैं कि ह्वेनसांग ने 
					य्वीहुआ महल में बौद्ध सूत्रों का अनुवाद करते हुए स्वयं बुद्ध 
					के चरण चिन्हों को तराशने का संचालन किया तथा लेख उत्कीर्ण 
					करवाया। “पश्चिमी जगत के अभिलेख” के अनुसार महात्मा बुद्ध ने 
					पाटलिपुत्र, मगध में अपने चरणचिन्ह छोड़े थे। ह्वेनसांग ने उस 
					पवित्र पदचिन्ह की पूजा की तथा प्रतिलिपि बना कर यवीहुआ महल ले 
					गये थे। १९९९ में यह शिला खोजी गयी। 
					ह्वेनसांग की मुख्य-प्रतिमा के 
					ठीक पीछे सफेद दीवार पर मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा उत्कीर्ण है। 
					दीवारों पर बडे बडे पैनल लगाये गये हैं जिनपर ह्वेनसांग का 
					सम्पूर्ण जीवन चित्रित किया गया है। सभागार की छत पर अजंता के 
					चित्रों के अनुकल्प अंकित हैं। सभागार में कई महत्त्वपूर्ण 
					तैलचित्र भी लगे हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं - ह्वेनसांग के 
					विभिन्न कार्य, उनके भ्रमण की कठिनाइयाँ, उनकी सम्राट 
					हर्षवर्धन से मुलाकात, प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु शीलभद्र आदि आदि।
 
                  शोध और यात्राएँ
 ह्वेनसांग की यात्रा और 
					उनके वृतांत महत्त्वपूर्ण हैं। अगर वे उपलब्ध न रहे होते तो 
					प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत सा कोना अँधेरे में डूबा रहता 
					जिसमें नालंदा विश्वविद्यालय से संबंधित वृतांत भी सम्मिलित 
					है। ह्वेनसांग एक असंतुष्ट शोधकर्ता थे इसलिये यात्री बन गये। 
					चीन के होनान फू के पास जनमे ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की ओर 
					आकृष्ट हुए किंतु और जानने की लालसा और उपलब्ध ज्ञान से 
					असंतुष्टि उन्हें भारत खींच लाई। भारत यात्रा के लिये चूँकि 
					चीनी सम्राट ने उन्हें पारपत्र जारी नहीं किया अत: वे गुप्त 
					रूप से अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए इस भूमि में 
					प्रविष्ट हुए। वे अपने दो साथियों के साथ लांगजू पहुँचे वहाँ 
					से आगे बढ कर गोबी की मरुभूमि को पार किया। दुष्वारियाँ इतनी 
					थी कि साथी लौट गये कितु ह्वेनसांग चलते रहे – हामी, काशनगर, 
					बल्ख, बामियान, काबुल, पेशावर, तक्षशिला और सन ६३१ ई में 
					कश्मीर जहाँ उन्होंने लगभग दो वर्षों तक अध्ययन किया। कश्मीर 
					से पुन: यात्रा प्रारंभ हुई तो मथुरा, थानेश्वर होते हुए वे 
					कन्नौज पहुँचे जो सम्राट हर्षवर्धन की राजधानी हुआ करती थी। 
					सम्राट से स्वागत व सहायता प्राप्त करने के बाद यात्री पुन: चल 
					पडा अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, 
					कुशीनगर, पाटलीपुत्र, गया, राजगृह होते हुए नालंदा। नालंदा 
					विश्वविध्यालय में ह्वेनसांग एक अध्येता रहे और कालांतर में 
					वहाँ के शिक्षक भी नियुक्त हुए। अब भी यह यात्री नहीं थका था 
					उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण भारत की ओर निकल पडा। वे पल्लवों 
					की राजधानी कांची पहुँचे 
					जहाँ से उन्होंने स्वदेश लौटना निश्चित किया। चीन लौटने पर 
					वहाँ सम्राट ने ह्वेनसांग का भव्य स्वागत किया। ह्वेनसांग अपने 
					साथ ६५७ हस्तलिखित बौद्धग्रंथ घोडों पर लाद कर चीन ले गये थे। 
					अपना शेष जीवन उन्होंने 
					इन ग्रंथों के अनुवाद तथा यात्रावृतांत के लेखन में लगाया।
 
 तत्कालीन भारतीय समाज का जो आईना ह्वेनसांग ने प्रस्तुत किया 
					है वह प्रभावित करता है तथापि एक घटना ने मुझे चौंकाया भी है। 
					बात ६४३ ई. की है जब महाराजा हर्षवर्धन ने कन्नौज में धार्मिक 
					महोत्सव आयोजित किया था। इस आयोजन में साम्राज्य भर से बीस 
					राजा, तीन सहस्त्र बौद्ध भिक्षु, तीन हजार ब्राम्हण, विद्वान, 
					जैन धर्माचार्य तथा नालंदा विश्वविद्यालय के अध्यापक सम्मिलित 
					हुए थे। ह्वेनसांग ने स्वयं इस आयोजन में महायान धर्म पर 
					व्याख्यान व प्रवचन दिये थे तथा उन्हें यहाँ विद्वान घोषित कर 
					सम्मानित भी किया गया था। यह आयोजन अत्यधिक विवादों में रहा। 
					कहते हैं कि हर्षवर्धन ने अन्यधर्मावलंबियों को स्वतंत्र 
					शास्त्रार्थ से वंचित कर दिया था। कई विद्वान लौट गये तो कुछ 
					ने गड़बड़ी फैला दी। आयोजन के लिये निर्मित पंडाल और अस्थायी 
					विहार में आग लगा दी गयी यहाँ तक कि सम्राट हर्षवर्धन पर 
					प्राणघातक हमला भी किया गया। यह घटना उस युग में भी स्थित 
					धार्मिक प्रतिद्वन्द्विता को
  समझने 
					में नितांत सहायता करती है। 
 यह निर्विवाद है कि हमें ह्वेनसांग का कृतज्ञ होना चाहिये। 
					नालंदा विश्वविद्यालय के पुरावशेष देखने के पश्चात हर पर्यटक 
					और शोधार्थी को मेरी सलाह है कि एक बार ह्वेनसांग स्मृति 
					संग्रहालय अवश्य जाएँ। इस संग्रहालय को सम्मान दे कर वस्तुत: 
					हम अपने इतिहास की कडियों को प्रामाणिकता से जोड़ने वाले उस 
					व्यक्ति को सम्मानित कर रहे होते हैं जिसने भारतीय होने के 
					हमारे गर्व के कारणों का शताब्दियों पहले दस्तावेजीकरण किया 
					था।
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